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मिंट रोड की कमजोर होती साख

उर्जित पटेल और प्रमुख अर्थशास्त्रियों की विदाई ने मोदी सरकार पर खड़े किए गहरे सवाल
छोड़ा साथः आरबीआइ कार्यालय से बाहर निकलते उर्जित पटेल

आखिरकार उर्जित पटेल ने रिजर्व बैंक के गर्वनर पद से 10 दिसंबर को इस्तीफा दे दिया। देश में 1991 में आर्थिक उदारीकरण शुरू होने के करीब 28 साल में ऐसा पहली बार हुआ जब रिजर्व बैंक के गर्वनर ने अपने कार्यकाल के पूरा होने के पहले इस्तीफा दिया है। वैसे देश के इतिहास में रिजर्व बैंक के गर्वनर के इस्तीफे का यह दूसरा वाकया है। पटेल का इस्तीफा सरकार और उसके बाहर के लोगों को भी चौंकाने वाला है। प‌िछले दो साल से रिजर्व बैंक और सरकार के बीच चल रही खींचतान 19 नवंबर को आरबीआइ की बोर्ड बैठक के बाद सुलझती नजर आ रही थी। लेक‌िन 14 द‌िसंबर को आरबीआइ बोर्ड की अगली बैठक से पहले पटेल का इस्तीफा यह साबित कर गया कि वह खुद को कुछ ऐसी परिस्थिति से बचाना चाहते थे जो उनको असहज कर सकती थी। आर्थिक मुद्दों पर टिप्पणी करने वालों का यह भी कहना है कि जब नोटबंदी जैसे विवादित और अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाला फैसला लिया गया तो उस वक्त पटेल ने कोई विरोध नहीं किया। साथ ही वह उसके बाद लंबे समय तक इस मुद्दे पर चुप ही रहे। लेकिन अब मामला ज्यादा आगे बढ़ गया और लग रहा था कि पटेल नॉर्थ ब्ल़ॉक और पीएमओ के उन निर्देशों का पालन नहीं करना चाह रहे थे जो रिजर्व बैंक की स्वायत्तता को लेकर सवाल खड़े करते। उनके इस्तीफे के बाद उनके पूर्ववर्ती और वैश्विक स्तर पर बड़े अर्थशास्‍त्री माने जाने वाले रघुराम राजन की टिप्पणी काफी अहम है जिसमें उन्होंने कहा है कि देश की जनता को इस पर चिंतित होना चाहिए।

असल में मोदी सरकार में ‘व्यक्तिगत कारणों’ से कई बड़े अर्थविद विदा हुए हैं। यह सभी लोग मौजूदा सरकार की पसंद रहे हैं। मसलन, नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष अरविंद पानगढ़िया ने व्यक्तिगत कारणों और अपने शैक्षिक कार्यों में रुचि के चलते समय से पहले इस्तीफा दे दिया। उनके बाद मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन ने भी व्यक्तिगत कारणों से इस्तीफा दे दिया और वह अमेरिका चले गए। वैसे, इस्तीफे के कुछ माह बाद उनकी जो किताब बाजार में आई उसमें उन्होंने नोटबंदी को देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी विपदा बताते हुए जीडीपी पर उसके कम असर को आंकने पर भी आश्चर्य व्यक्त किया। वहीं, उर्जित पटेल के इस्तीफे के अगले दिन प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य सुरजीत भल्ला ने भी इस्तीफा दे दिया। हालांक‌ि सरकार ने डैमेज कंट्रोल करते हुए उर्जित पटेल के इस्तीफे के अगले ही दिन पूर्व नौकरशाह शक्तिकांत दास को रिजर्व बैंक का गवर्नर नियुक्त कर दिया। शक्तिकांत दास को वित्त मंत्री अरुण जेटली और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी भी माना जाता है। 

 हालांक‌ि रघुराम राजन की विदाई के बाद उर्जित पटेल को भी सरकार की पसंद माना गया था। नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया और वित्त मंत्रालय के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन को तो सरकार दूसरा कार्यकाल भी देना चाहती थी, लेक‌िन सभी ने सरकार का साथ छोड़ द‌िया। पूरे घटनाक्रम पर, अटल बिहारी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने आउटलुक को बताया कि इससे आशंका पैदा होती है, इकोनॉमी में काफी गड़बड़ है। यह सीधे तौर पर सरकार के मैनेजमेंट और वर्किंग स्टाइल पर सवाल उठाता है। इसके पहले पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस के प्रमुख नेता पी.चिदंबरम ने आउटलुक को दिए एक इंटरव्यू में भी कहा था कि सभी प्रमुख फैसले प्रधानमंत्री कार्यालय में लिए जाते हैं। उनके काम करने के तरीके का परिणाम पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है।

सिन्हा का कहना है कि पटेल ने ऐसे समय इस्तीफा दिया जब इकोनॉमी की स्थिति बेहद खराब है। इससे दुनिया भर में संदेश बेहद गलत गया है। विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी विश्व स्तरीय संस्थाओं का भारत के प्रति नजरिया बदलेगा। क्योंकि यही संदेश जा रहा है कि वित्तीय प्रबंधन में बहुत कुछ गड़बड़ है जिसकी वजह से उर्जित पटेल ने इस्तीफा दिया है। उनके इस्तीफे से एक बात और साबित होती है कि 19 नवंबर को आरबीआइ बोर्ड मीटिंग के बाद भी कुछ बदला नहीं। सरकार भले ही दावा कर रही थी, कि आरबीआइ और उसके बीच सब ठीक हो गया, लेकिन हकीकत यह थी कि उसने दबाव बनाना खत्म नहीं किया था।

"उर्जित पटेल के इस्तीफे से कई आशंकाएं उठती हैं। साथ ही सरकार के काम-काज के तरीके पर भी सवाल उठते हैं"

यशवंत स‌िन्हा, पूर्व व‌ित्त मंत्री, भारत सरकार

आरबीआइ के एक पूर्व गवर्नर ने आउटलुक को बताया कि जिस तरह से उर्जित पटेल ने इस्तीफा दिया है, इससे एक बात और साफ हो गई है कि सरकार और आरबीआइ के बीच टेंशन खत्म नहीं हुई थी। साथ ही 19 नवंबर को आरबीआइ बोर्ड की बैठक में जो फैसले लिए गए वह भी अमल में लाए नहीं जा सके। आरबीआइ के लिए यह संभव नहीं है कि वह सरकार की सभी बातें मान ले। क्योंकि उसका खामियाजा पूरी इकोनॉमी को सहना पड़ेगा।

पूर्व वित्त मंत्री सिन्हा का कहना है कि सरकार छोटे और मझोले उद्योगों और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) सेक्टर को जिस तरह से ज्यादा कर्ज देने का दबाव बना रही थी, वह सही नहीं था। क्योंकि एनबीएफसी कंपनी आइएल एेंड एफएस का जो संकट खड़ा हुआ है उसके लिए बहुत हद तक वित्त मंत्रालय जिम्मेदार है। इकोनॉमी के साथ-साथ सरकार की वित्तीय स्थिति भी अच्छी नहीं है। राज्यों को समय से केंद्र से फंड नहीं मिल रहे हैं। सांसद निधि के लिए जारी होने वाले फंड में भी देरी हो रही है। साफ है कि सरकार चीजों को संभाल नहीं पा रही है। इसलिए वह आरबीआइ के कैश रिजर्व पर भी नजर रखे हुए है। एक अन्य बैंकर के अनुसार उर्जित पटेल ने जिस तरह से नोटबंदी के फैसले में सरकार का साथ दिया था, उससे उनकी साख खराब हुई थी, जिसे वह बाद में सुधारना चाहते थे। वहीं से रिश्तों में दरार आनी शुरू हुई और बात तब बढ़ गई जब आरबीआइ बोर्ड में एस.गुरुमूर्ति को स्वतंत्र निदेशक के रूप में शामिल किया गया। उनका कई बार बोर्ड मीटिंग में व्यवहार ऐसा रहा जिससे बात बिगड़ी। अब देखना यह है कि नए गवर्नर कैसे आरबीआइ की स्वायत्तता को बरकरार रखते हुए सरकार के साथ तालमेल बैठाते हैं।

तकरार इसलिए बढ़ी

-आरबीआइ गवर्नर बनने के तुरंत बाद उर्जित पटेल ने खराब परफॉर्म कर रहे 11 बैंकों को प्रॉम्पट करेक्टिव एक्शन (पीसीए) के तहत डाल दिया। इससे कारोबारियों की मुश्किल बढ़ गई, जिसके बाद सरकार ने आरबीआइ पर नियमों में ढील देने का दबाव बनाया, जिसे आरबीआइ ने नहीं माना।

-आरबीआइ ने साल 2016-17 के लिए सरकार को 30,659 करोड़ रुपये का डिविडेंड दिया, जो कि पिछले साल के मुकाबले करीब 50 फीसदी कम था। सरकार ने आरबीआइ से 13 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त डिविडेंड की मांग की, जिसे आरबीआइ ने देने से मना कर दिया।

-आरबीआइ ने एनपीए नियमों को सख्त करते हुए कॉरपोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग, स्ट्रेटेजिक डेट रिस्ट्रक्चरिंग आदि सुविधाओं को खत्म कर दिया। साथ ही कहा कि लोन चुकाने में एक दिन की भी देरी होगी, तो उसे एनपीए मान लिया जाएगा। सरकार को शिकायत थी कि आरबीआइ ने फैसला लेते हुए उससे कोई संवाद नहीं किया।

-सरकार ने आरबीआइ के बोर्ड में स्वदेशी जागरण मंच के एस.गुरुमूर्ति को नियुक्त किया। साथ ही, नचिकेत मोर के कार्यकाल की अवधि को भी घटाया। इसके अलावा एक अंतरमंत्रालय समिति ने पेमेंट ऐंड सेटलमेंट सिस्टम एक्ट 2007 में संशोधन को अंतिम रूप दिया। यानी आरबीआइ से अलग एक रेग्युलेटर बनाया जाय, जिसका आरबीआइ ने विरोध किया।

-आइएल ऐंड एफएस संकट आने के बाद सरकार ने आरबीआइ से एनबीएफसी सेक्टर के लिए एक स्पेशल विंडो की मांग की, जिससे एक लाख करोड़ रुपये की कमी झेल रहे सेक्टर को फंड मिल सके। सरकार की इस मांग को आरबीआइ ने खारिज कर दिया। इसके बाद सरकार ने सेक्शन-7 लागू करने की तैयारी कर ली। इसके अलावा आरबीआइ के नौ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा के कैश रिजर्व पर भी सरकार की नजर टेढ़ी हो गई। 

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