Advertisement

आवरण कथा/पंकज त्रिपाठीः प्रयोगधर्मी अभिनेता की पेशकदमी

अभिनय की भारतीय और पाश्चात्य विधियों में दक्ष देसज पंकज जैसा कुशल अभिनेता जब किसी किरदार को निभाता है तो वह चमत्कार पैदा करता है, यही एक बेहतर अभिनेता का अपना गढ़ा हुआ क्राफ्ट कहलाता है
निल बटे सन्नाटा के माटसाब पंकज त्रिपाठी

अभिनय में एक अवधारणा है, किरदार की काया में प्रवेश। काया प्रवेश से पहले की अवधारणा मानसिक और शारीरिक तैयारी है। इसमें कई स्थितियां हैं। इन सब स्थितियों को आत्मसात करने के बाद ही एक उत्कृष्ट अभिनेता किरदार की आत्मा के भीतर पहुंच कर उसे मंच या पर्दे पर जीवंत करता है। इस अवधारणा के इर्द-गिर्द बड़ा अभिनेता तैयार ही नहीं होता, बल्कि इन्हीं कसौटी पर उसकी अभिनय क्षमता को परखा भी जाता है। लेकिन इन सबसे आगे बढ़कर वह नई किस्म की थ्योरी और कौशल से अपने क्राफ्ट का अनूठापन निर्माण करता है। किरदार और कथ्य के हिसाब से दक्ष अभिनेता ही अपने क्राफ्ट को अपने हिसाब से रच सकता है।

ऐसा अभिनेता किरदार के लिए ‘दी गई परिस्थितियों’ के साथ ‘अगर ऐसा होता’ के सवाल में भी प्राणवायु भरता है। सहज अभिनय प्रवाह होता कैसे है या यह कैसे होगा, उसे बारीकी से समझकर हर बार एक नए किरदार की आत्मा तक पहुंच जाना पंकज त्रिपाठी की आदत में शुमार हो चुका है, जिसे अभिनय की ‘मेथड’ वाली पाठशाला में ‘मैजिक ऑफ इफ’ कहते हैं। अभिनय की तमाम विधाओं और किरदार निभाने की सौ कथाओं के बीच मेथड एक्टिंग के ‘स्क्राउलिंग अंडर द स्किन ऑफ द कैरेक्टर’ या ‘मैजिक ऑफ इफ’ की संकल्पना के अतिरिक्त अभिनय की भारतीय और पाश्चात्य विधियों में दक्ष देसज पंकज जैसा कुशल अभिनेता जब खेलता है तो वह चमत्कार पैदा करता है। वजहः उसमें अभिनेता का भी अपना पाठ आकार ले रहा होता है, इसे ही उसका निजी क्राफ्ट कह सकते हैं। दुनिया के तमाम बड़े अभिनेताओं को देख लीजिए। इस प्रक्रिया में किताबी सिद्धांत जब प्रायोगिक रूप में बदलता है, तब पंकज त्रिपाठी बनता है। वे किरदार निभाते नहीं, बल्कि उसमें समा जाते हैं। इधर कुछ साल से पंकज त्रिपाठी के अभिनय की पाकीजगी चरम पर है। इसकी वजह साफ है, अभिनेता के तौर पर वे बनाए गए फॉर्मेट को बार-बार तोड़ते हैं, उसमें नित नए प्रयोग करते हैं और अपने दर्शकों, आलोचकों, समीक्षकों को चौंकाते हैं।

बीते वर्षों में पंकज त्रिपाठी ने लगातार कई तरह के प्रयोग करते हुए अपने ही रचे फार्म को बार-बार तोड़ा है। आप हमेशा पाएंगे कि इस अभिनेता का काम कैसे एक से दूसरे में अलग तरह से ही ट्रासंफार्म हो जाता है और वह भी सहज-सरल तरीके से। यह इतना जादुई तरीके से होता है कि दर्शकों को ठिठकने पर मजबूर कर देता है। उसको देखते ही होंठों पर आश्चर्यमिश्रित मुस्कान तैर जाती है। याद कीजिए नरोत्तम मिश्रा के सामने मुन्ना माइकल का बाली और निल बटे सन्नाटा का प्रिंसिपल श्रीवास्तव, गैंग्स ऑफ वासेपुर के सुल्तान से कैसे जुदा हो जाता है। एकदम अलग किरदार पाउडर का नावेद अंसारी, गुड़गांव का केहरी सिंह और मिर्जापुर के अखंडानंद त्रिपाठी और सेक्रेड गेम्स के खन्ना गुरुजी एक खास मनोवृत्ति दिखाने वाली दुनिया में रहते हुए परदे पर नितांत अलग-अलग हैं।

83 फिल्म में उनका अलग ही अंदाज दिखाई दिया

83 फिल्म में उनका अलग ही अंदाज दिखाई दिया

इसी तरह योर्स ट्रूली के विजय, मैंगो ड्रीम्स के सलीम, स्‍त्री के रुद्र भैया या अंग्रेजी में कहते हैं के फिरोज, 83 के मानसिंह, कागज के भरतलाल और लाली (शाॅर्ट फिल्म) में निभाए उनके किरदारों का अलहदापन सभी को भाता है। जब मैं अलहदा कह रहा हूं तो वह ठीक पूरब और पश्चिम वाले अलग हैं। यह अभिनेता पंकज त्रिपाठी के अभिनय शैली की उत्कृष्टता के विभिन्न सोपान और विभिन्न छवियां हैं। इधर कुछ वर्षों में जिस वेबसीरीज ने पंकज त्रिपाठी के अभिनय के एक अलग और आश्चर्यजनक रूप से बेहतरीन पक्ष को सामने लाया है वह क्रिमिनल जस्टिस है। यहां माधव मिश्रा का किरदार केवल एक किरदार को निर्दोष सिद्ध करने की जुगत में नहीं लगा है बल्कि इस पूरी प्रक्रिया में माधव मिश्रा का किरदार खुद की तलाश में भी है, जहां इस दुनिया में उसके होने के भी कुछ मायने हैं और इसी प्रक्रिया में न्याय की वह लड़ाई उसकी खुद के प्रति न्याय की लड़ाई भी बन जाती है। इस सीरीज में पंकज त्रिपाठी एक बिलकुल अलग अभिनेता दिखते हैं। कोई सजग दर्शक जब-जब माधव मिश्रा को देखता है तब-तब बलराज साहनी की वह बात पंकज त्रिपाठी पर सौ फीसदी उचित बैठती है,  “प्रत्येक अभिनेता की अपनी अलग तकनीक होती है, जिसे उसने गहन अध्ययन और लंबे अभ्यास के बाद सीखा होता है।”

पंकज त्रिपाठी लगातार प्रयोग करते हैं और हम देखते हैं कि वे हमेशा इस सिद्धांत को चुनौती देते रहते हैं। बिना नाटकीय हुए कालीन भइया का चरित्र रूह में सिहरन पैदा करता है। गुड़गांव का केहरी सिंह घृणा करने के कई मौके देता,तो रुद्र भैया या नरोत्तम मिश्र का किरदार प्यार करने के हजार मौके देता है। यह एक बेहतर अभिनेता का अपना गढ़ा हुआ क्राफ्ट है। उसकी अपनी सैद्धांतिकी है।

इंडस्ट्री में ‘खास’ छवि तोड़ना आसान नहीं होता। पर कुशल अभिनेता तो वही है, जो बार-बार अपने प्रयोगों से अपनी ही बनाई छवियों को तोड़ नई इबारत लिख दे। पंकज त्रिपाठी इस खेल के महारथी हो चले हैं। गांव का बिरवा मायानगरी में पीपल की सघन छाया हो चला है, जो सिनेमाई किरदारों में ऑक्सीजन भर रहा है। वैसे भी सिनेमा में यह दौर एक्टरों की वापसी का है। इस दौर के सिनेमा और इन अभिनेताओं में पंकज त्रिपाठी भोजन में नमक की तरह जरूरी हो गए हैं। यह हमारे फिल्मी टेस्ट में ग्राम्य अंचल अथवा वन के वह फूल हैं जो निश्चित ही ड्राइंग रूम और बालकनी के फूलों से अधिक खुशबू दे रहे हैं। यही इनकी विशेषता भी है, यह वनफूल अकेले नहीं महकते, इनकी खुशबू सामुदायिक होती है। इनमें समूची प्रकृति नर्तन करती है। कहते हैं, जब वनबेला फूलती है, तो समूचा वन महकता है और जब समूचा वन महकता है, तो प्रकृति अपने सबसे सुंदर रूप में होती है। इसी का एक सिरा अब विश्व सिनेमा से जुड़ गया है।

हिंदी सिनेमा की यह ऋतु पंकज त्रिपाठी सरीखे वनफूल के खिलने की है। अभी तो और फसाने आने हैं। अभी तो यह बरसात की पहली बूंद के धरती पर उतरने और उसकी  सोंधी सुगंध के चहुं ओर फैलने की मानिंद है। कहीं पढ़ा था, इस सुगंध को ‘पेट्रिकोर’ कहते हैं, जो ग्रीक भाषा के शब्द पेट्रा से बना है, जिसका अर्थ स्टोन या आइकर होता है। माना जाता है कि यह वही तरल है, जो ईश्वर की नसों में रक्त के रूप में बहता है। यह कलाकार और उसकी अलग छवियां अपने ईमानदार काम से ईश्वरीय नसों में रक्त की मानिंद बह रही हैं। वह बरसात की वही सौंधी गंध है जो आपके नथुनों में उतरते ही आपकी जड़ता तोड़ अपनी ओर खींच लेता है। मुझे पंकज त्रिपाठी के लिए मेरे एक और अजीज रंगकर्मी हबीब तनवीर के मशहूर नाटक कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना का गीत याद आ रहा है और उनके लिए सच में यही गीत इस वक्त मुझे सबसे मुफीद लगता है, “मुझे पता है मेरे वन की रानी कहां सोई है/जहां चमेली महक रही है और सरसों फूली है।” यह सिनेमा में पंकज त्रिपाठी सरीखे वनबेलों का सुवासित समय है। वे इस दौर के हिंदी सिनेमा के प्राणवायु की तरह हैं।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। विचार निजी हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement