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जंगल के दावेदार

वन-भूमि से आदिवासियों की बेदखली पर आखिर किसकी नजर
सिंगरौली में वनवासी

सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के खिलाफ एक याचिका पर जो अंतरिम आदेश पारित किया, उसका असर इतना व्यापक था कि समूचे देश में उसकी गूंज सुनाई देने लगी। अदालत ने राज्यों से उन वनवासियों का ब्योरा देने को कहा, जिनके वन अधिकारों के आवेदन खारिज कर दिए गए थे। साथ ही, उन लोगों का ब्योरा मांगा जिनके दावे खारिज कर दिए गए थे, ताकि उन्हें वन-भूमि से बेदखल किया जा सके।

इससे 1.9 करोड़ से अधिक परिवारों का वन-भूमि अधिकार खारिज हो जाता, जिन्हें जुलाई 2019 तक उनकी जमीनों से बेदखल किया जा सकता था। देश भर में विरोध प्रदर्शनों के चलते केंद्र सरकार ने याचिका दायर की और सुप्रीम कोर्ट से 28 फरवरी को इस पर अस्थायी रोक लगवाने में सफल रही। लेकिन भविष्य में बड़े पैमाने पर बेदखली की आशंका बनी हुई है। जनजातीय मामलों के मंत्रालय की नवंबर 2018 की स्टेटस रिपोर्ट के अनुसार, 42 लाख से अधिक दावे किए गए हैं, जिनमें 18 लाख 94 हजार 225 स्वीकार और 19 लाख 39 हजार 231 खारिज कर दिए गए हैं। लगभग चार लाख दावों की जांच चल रही है। इस मामले में याचिकाकर्ताओं का दावा है कि ‘फर्जी दावों’ के कारण मामले नामंजूर किए गए हैं। इनमें वाइल्डलाइफ फर्स्ट, नेचर कंजर्वेशन सोसायटी और टाइगर रिसर्च एंड कंजर्वेशन ट्रस्ट शामिल हैं। हालांकि कई वैज्ञानिक, आदिवासी समूह, सिविल सोसायटी और सबसे अहम जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने भी इंगित किया है कि कई दावों को गलत तरीके से खारिज किया गया है।

देश की वन-भूमि सदियों से विवादित रही है। अंग्रेजी राज में देश के अधिकांश हिस्सों में जंगलों पर सामुदायिक नियंत्रण वापस ले लिया गया था। सभी वन-भूमि को सरकारी संपत्ति घोषित कर व्यवस्थित तरीके से व्यावसायिक हितों के लिए उनका शोषण किया गया। वन अधिकारों को छीन लेने के बाद आदिवासी देश में सबसे अधिक हाशिए पर रहने वाले समुदाय बन गए। उन्हें राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीवों के संरक्षण, उद्योगों, खनन परियोजनाओं, बांधों और अन्य परियोजनाओं के लिए वनों से निकाला जाने लगा। 2006 का एफआरए पारंपरिक वनवासियों के साथ होने वाले ‘ऐतिहासिक अन्याय’ का हल निकालने और दीर्घकालीन सुरक्षा मुहैया कराने के लिहाज से उनके वन अधिकारों को मान्यता देने के लिए लाया गया था।

वन अधिकार अधिनियम पर अमल करने की प्रक्रिया मुश्किल रही है। मसलन, जनजातीय मंत्रालय की ओर से 27 जून 2018 को लिखा गया एक पत्र, “एफआरए क्रियान्वयन के संबंध में वन विभाग के कर्मचारियों को जागरूक होने और साथ ही फर्जी आपत्तियों को नहीं उठाने” की जरूरत पर प्रकाश डालता है। ताकतवर खनन माफिया एफआरए के खिलाफ हैं। कई संरक्षणविद वैज्ञानिकों (मैंने भी) ने हाल में एक दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया और तर्क दिया कि संरक्षण के एक स्थायी और न्यायपूर्ण मॉडल के लिए एफआरए को लागू करना जरूरी है।

एफआरए 2006 में पारित और 2008 में लागू किया गया था। एफआरए व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों अधिकारों को मान्यता देता है, लेकिन अधिकांश दावे व्यक्तिगत वन अधिकारों के लिए हैं। जांच और दावों को खारिज करने की प्रक्रिया का अक्सर उल्लंघन किया गया है। उदाहरण के लिए, एफआरए को लागू करने के स्पष्ट दिशा-निर्देशों के बावजूद उपग्रह छवि विश्लेषण के आधार पर दावों को खारिज किया गया है। कई वनवासियों के वनों पर बहुत कम पदचिह्न हैं, क्योंकि वे जगह बदल-बदल कर खेती करते हैं या पेड़ों के नीचे फसलें उगाते हैं। उपग्रह इन भूखंडों को वन-भूमि के रूप में ही दिखाएगा। इसलिए उपग्रह से लिए चित्र उपयोगी हो सकते हैं, लेकिन ये सबूत का एकमात्र स्रोत नहीं बन सकते।

आवेदकों को अक्सर उनके दावों को खारिज करने के बारे में अंधेरे में रखा जाता है, जिससे वे अपील करने में असमर्थ होते हैं, जैसा अधिनियम उन्हें इजाजत देता है। इसमें कोई शक नहीं कि कुछ दावों को लेकर दिक्कतें हैं, लेकिन इसके लिए पारदर्शी जांच की जरूरत है, ताकि लोगों को अपने दावों को अस्वीकृत किए जाने का आधार जानने का मौका मिल सके। साथ ही, वे जरूरत पड़ने पर आंकड़ों के साथ अपने मामलों में अपील कर सकें।

सामुदायिक वन अधिकार एफआरए का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है। वनों के सामुदायिक स्वामित्व के लिए 15 लाख से कम दावे किए गए हैं। इनमें से लगभग आधे को ही मंजूरी मिली है। दुनिया भर और भारत में भी शोध से पता चलता है कि वन संरक्षण के लिए मूल निवासियों को पारंपरिक अधिकार देना बहुत महत्वपूर्ण है। कई समुदाय लिखित दस्तावेज मुहैया कराने में अक्षम हैं और उनसे पारंपरिक समुदायों के अधिकारों के लिए इसकी मांग करना बतलाता है कि उन्हें पर्याप्त सहायता नहीं मिली है।

एफआरए पर विवाद को नजरअंदाज करना जंगलों के लिए बड़ा खतरा है, क्योंकि सड़कों, रेलवे और बांधों के लिए पेड़ों को काटा जाता है। इमारती लकड़ियों की कटाई की जाती है और खनन तथा उद्योगों के लिए भी ऐसा किया जाता है। देश के बाकी बचे वन खनिज पदार्थों और कोयले के भंडार से समृद्ध हैं और इन पर व्यावसायिक हित रखने वाले शक्तिशाली लोगों की नजर है। इन वनों की सुरक्षा में वन समुदायों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ओडिशा में नियमगिरि पहाड़ियों को खनन के लिए नष्ट करने से रोकने के लिए डोंगरिया कोंध समुदाय का विरोध एक बड़ा उदाहरण है।

प्रोफेसर माधव गाडगिल, मुंबई यूनिवर्सिटी और महाराष्ट्र आदिवासी विकास निगम के बीच हाल ही में एक दिलचस्प सहयोग से महाराष्ट्र के आदिवासी बेल्ट के 27 युवाओं को सामुदायिक वन प्रबंधन के डिप्लोमा में प्रशिक्षित किया गया। इस तरह का नजरिया भारत के भविष्य की संरक्षण रणनीति के लिहाज से एफआरए की शक्ति और क्षमता को बतलाता है। अधिनियम और इसके दावेदारों के खिलाफ काम करना पारिस्थितिकी, सामाजिक और मानक रूप से कई आधारों पर गलत है। इसके बजाय हमें पर्याप्त संस्थागत सुरक्षा मुहैया कराकर एफआरए की प्रक्रियाओं को मजबूत करना होगा।

(लेखिका अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर (सस्टेनेबिलिटी) हैं)

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