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यूरोप का कलियुग

यूरोप मानो एज ऑफ डाउनफॉल में प्रवेश कर गया है, कई परिवर्तनों से एशियाई लोग हक्का-बक्का
संस्कृति प्रसंग

पारसनाथ चौधरी

कुछ ही महीने पहले जर्मनी की राजधानी में बर्लिन यूनिवर्सिटी के अध्यापकों की सभा में यूरोप के एक मशहूर अर्थशास्‍त्री ने कहा कि मंदी के बावजूद यूरोप की अर्थव्यवस्‍था को स्वस्‍थ होने का प्रमाण-पत्र दिया जा सकता है। उन्होंने कहा कि यूरोप में अभी भी अमन और अमीरी बरकरार है। हालांकि आम लोगों से बातचीत में ऐसा नहीं लगता है। लोग बेचैन और चिंतित दिखते हैं। इसे अस्तित्वपरक चिंता भी कहा जा सकता है।

लगता है, अमीरी से विरक्ति, शराब और नशे के भयंकर सेवन, जीवन में निरर्थकता-बोध और डिजिटलीकरण जैसी वजहों से यूरोप का समाज न्यूरोटिक हो गया है। मोबाइल और कंप्यूटर पर हमेशा व्यस्त रहने से लोग सामान्य जीवन नहीं जी पा रहे हैं। बच्चे स्कूलों में पढ़ते नहीं, लोग ठीक से काम नहीं कर पाते। अगर बाहर से आए लोग काम न सम्‍हालें तो यूरोप खत्म हो जा सकता है। डिजिटलीकरण से यूरोप के लोग इसलिए भी डरते हैं क्योंकि इससे बेरोजगारी बढ़ेगी। वैसे भी वहां के लोग टेक्नोफोबिया से पीड़ित हैं। न्यूफैंगल्ड (आधुनिक) मनोवैज्ञानिकों की मानें तो यूरोप जल्दी ही गूंगा, मूर्ख और बेकार हो जाएगा। हालत इतनी खराब होती जा रही है कि आदेश देने के अधिकार की परंपरा को दोबारा समाज में बहाल किए जाने की चर्चा है। कुछ लोग तो अधिनायकवाद की वकालत करने लगे हैं। हाल में बर्लिन के एक उच्च शिक्षण संस्‍थान में एक समाज वैज्ञानिक को मैंने यह कहते सुना कि आम जर्मन लोगों की भावात्मक उम्र महज ग्यारह साल के बच्चों के बराबर ही है।

यूरो‌पीय संकट का एक और महत्वपूर्ण घटक एशिया है। जबसे चीन और भारत जैसे देश ताकतवर होने लगे हैं, यूरोप के लोगों को लगता है कि अब उनकी अमीरी पहले जैसी नहीं रह पाएगी। एशिया के देश हार्डपावर और सॉप्ट पावर दोनों में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। आजकल यूरोप के बाजार चीन में बने सामान से अंटे पड़े हैं। यूरोपीय लोगों के इस्तेमाल की लगभग हर वस्तु चीन और एशिया के दूसरे देशों से ही पहुंचती है। भारी संख्या में यूरोप के लोग भारतीय योग और ध्यान करने लगे हैं। साहित्य में भी भारत की खपत वहां खूब है। भारतीय लेखकों की पुस्तकों की लोकप्रियता इसका सबूत है। यूरोप के कई दार्शनिक भारतीय दर्शन और चिंतन से प्रेरित हैं। मशहूर जर्मन दार्शनिक पेटर स्लोटरजिक ओशो से प्रेरित रहे हैं, जिन्होंने “क्रोध” पर काम किया।

चीन को लेकर तो यूरोप के भय का एक इतिहास ही रहा है। लगता है, वहां की कल्पना में यह बात उकेरी-सी गई है कि एक दिन पीले यानी चीनी लोग यूरोप पर धावा बोलेंगे और पश्चिमी सभ्यता को तहस-नहस कर डालेंगे। जर्मन भाषा में इसे “गेल्बे गेफार” कहा जाता है।

यूरोप के संकट का एक दूसरा पहलू अप्रवासी लोगों (इमीग्रेंट्स) की आमद है। फिलहाल यूरोप में करीब दस करोड़ बाहरी लोग बस गए हैं और उनकी आवाजाही जारी है। मूख्य रूप से सजातीय (होमो‌जिनस) समाज होने के कारण, यूरोप के लोग बाहरी लोगों के इतनी बड़ी संख्या में होने से घबराए हुए हैं। कुछ लोग कहते हैं कि अप्रवासियों की वजह से यूरोप में सामाजिक और सांस्कृतिक टकराव होंगे, जिससे यह महादेश बर्बाद हो जाएगा। दूसरी तरफ उद्योगों के मालिकों और अर्थशास्त्रियों की राय है कि यूरोप जैसे “ग्रे” समाज (ज्यादा उम्रदराज आबादी वाले समाज) में बाहरी लोगों के बिना अर्थव्यवस्‍था को सामान्य स्थिति में रखना असंभव हो जाएगा। हालांकि इमीग्रेशन विरोधी लोगों की संख्या बहुत अधिक है। यह भी एक कारण है कि यूरोप में “बहुसंस्कृतिवाद” का प्रयोग फेल होता जा रहा है।

यूरोपीय संकट का एक और महत्वपूर्ण घटक राष्ट्रवाद की समस्या है। यूरोप में राष्ट्रवाद का अति कड़वा अनुभव रहा है। यूरोप के लोग दोबारा इस बुराई के उभरने से आतंकित हैं। यह समस्या जोर पकड़ती जा रही है। आज यूरोप के कई देशों में उग्र राष्ट्रवाद एक हकीकत है। जर्मनी के “आ-एफ डे” और फ्रांस में मारी ल पेन की “नेशनल रैली” पार्टी उल्लेखनीय है। रूस में भी राष्ट्रपति पुतिन राष्ट्रवाद के बल पर ही सत्ता पर काबिज हैं। पश्चिमी यूरोप के लोग इस बात से भी बड़े परेशान रहते हैं कि साम्यवादी व्यवस्‍था के पतन के बाद भी मास्को पश्चिमी देशों का दुश्मन है।

यूरोप के संकट का एक और पहलू डोनाल्ड ट्रंप जैसे सनकी आदमी का व्हाइट हाउस में होना है। अमेरिका यूरोप का सबसे घनिष्‍ठ मित्र देश है, व्यापार और विदेश नीति दोनों ही में यूरोप और अमेरिका साथ रहे हैं, लेकिन ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों की तमाम पारंपरिक संरचनाओं को ध्वस्त करके घोर अनिश्चितता का वातावरण पैदा कर दिया है। यूरोप के लोग समझ नहीं पा रहे कि दुनिया किस दिशा में जा रही है।

यूरोप में हो रहे परिवर्तनों में एक और अहम पहलू कार्य संस्कृति (वर्ककल्चर) में बदलाव है। वहां आजकल “वर्क गिग” का फैशन चल पड़ा है। युवा और अधेड़ लोग नियमित तौर पर काम करने से परहेज करते हैं, वे स्वतंत्र श्रमिक के रूप में काम करना अधिक पसंद करते हैं। इन गिग वर्करों का मानना है कि संक्षिप्त अवधि के लिए काम करके वे अपनी आजादी और क्वालिटी टाइम दोनों का मजा लेते हैं। गिग अर्थव्यवस्‍था लगातार फैलती जा रही है।

यूरोप में आजकल एक और परिवर्तन गौरतलब है। फ्रांस और कई स्कैंडेनिवियाई देशों में वेश्यावृत्ति को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया है। मसलन, पेरिस का विश्व प्रसिद्ध वेश्यावृत्ति का केंद्र “पिगाल” बंद कर दिया गया है। वेश्यावृत्ति में लिप्त पाए जाने पर फ्रांस में लोगों को तीन से चार लाख रुपये तक का जुर्माना भरना पड़ता है। लेकिन मीटू आंदोलन यूरोप में फेल हो गया है। वहां मल्टीपल पार्टनर का रिवाज चल पड़ा है। इसे पोलीमोरी के नाम से भी जाना जाता है। यूरोप के सांस्कृतिक क्षेत्र में इस तरह के कई परिवर्तन हो रहे हैं जो एशियाई लोगों को हक्का-बक्का कर सकते हैं। व्यक्तिगत आजादी के नाम पर चारों तरफ मौलिक मानवीय मूल्यों की गिरावट के कारण यूरोप “एज ऑफ डाउनफॉल” में प्रवेश करता दिख रहा है। इसे ही “कलियुग” कहा जा सकता है।

(लेखक जर्मनी की हाइडलबर्ग यूनिवर्सिटी के एशिया अध्ययन केंद्र में रीडर पद से सेवानिवृत्त हैं)

 

 

यूरोपीय संकट का एक महत्वपूर्ण घटक राष्ट्रवाद की समस्या है। यूरोप में राष्ट्रवाद का कड़वा अनुभव रहा है। लोग दोबारा इसके उभरने से आतंकित हैं

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