Advertisement

तंगहाल बजट स्कूल

इन स्कूलों की फीस कम, सरकारी मदद भी नहीं, पढ़ाई जारी रख पाना चुनौतीपूर्ण
तालाबंदी: बजट स्कूलों पर भी लॉकडाउन की मार

मुनि इंटरनेशनल स्कूल, वेस्ट दिल्ली के भीड़-भाड़ वाले उत्तम नगर इलाके में संचालित होने वाला एक बजट स्कूल है। बजट स्कूल यानी सरकारी स्कूलों में प्रति छात्र प्रति माह खर्च होने वाली राशि के बराबर या कम शुल्क में शिक्षा प्रदान करने वाले प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त स्कूल। आम दिनों में स्कूल और इसके आसपास छात्रों और अभिभावकों की काफी चहल-पहल रहती है। लेकिन इन दिनों यहां सन्नाटा पसरा है। स्कूल के मुख्य द्वार पर ताला लटका है। इन पर जमी धूल और मकड़ी के जालों को साफ देखा जा सकता है। इसके मालिक और भूतपूर्व सैनिक अशोक ठाकुर के माथे पर चिंता की लकीरें भी साफ देखी जा सकती हैं। कारगिल, लेह-लद्दाख जैसे दुर्गम इलाकों में तैनाती और ऑपरेशन ब्लू स्टार में शामिल होने के दौरान भी उन्हें इतनी चिंता नहीं हुई थी। लेकिन सेना से स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेकर गरीब और वंचित तबके के छात्रों को कम शुल्क में गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करने के लिए स्थापित स्कूल पर ताला लटका देख उनकी पेशानी पर बल पड़ जाते हैं। उन्हें यह चिंता भी सताए जा रही है कि सालों से उनके साथ जुड़े अध्यापकों और कर्मचारियों को वेतन कैसे दें। दरअसल, मार्च महीने से ही उन्हें छात्रों की फीस नहीं मिल पा रही है।

नांगलोई-नजफगढ़ रोड स्थित रोज वैली पब्लिक स्कूल के संचालक प्रेमचंद देसवाल की चिंता भी कुछ ऐसी ही है। सरकारी आदेश के साथ-साथ नैतिकता का भी यही तकाजा है कि संकट की इस घड़ी में किसी भी स्टाफ की सैलरी न रोकी जाए। चूंकि बजट स्कूलों की स्थिति रोज कुआं खोदने और रोज पानी पीने वाली होती है, इसलिए सरप्लस बजट जैसा कुछ उनके पास संभव ही नहीं है। स्थित यह है कि उन्हें अपने सगे-संबंधियों और रिश्तेदारों से आर्थिक सहायता मांगने को मजबूर होना पड़ रहा है। चिंता यह भी है कि फीस नहीं मिली तो कर्ज लौटाएंगे कैसे?

यह समस्या सिर्फ मुनि इंटरनेशनल या रोज वैली पब्लिक स्कूल की नहीं, बल्कि देश के लाखों ऐसे बजट स्कूलों की है जो आस-पड़ोस के छोटे भवनों और भूखंडों में संचालित होते हैं और गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करते हैं। कोरोना महामारी के दौरान फीस लेने के संदर्भ में जारी दिशानिर्देशों का सबसे अधिक दुष्प्रभाव छोटे और कम शुल्क वाले बजट स्कूलों पर ही पड़ा है। परिणामस्वरूप फंड और संसाधनों की कमी के कारण देश के लगभग तीन लाख बजट स्कूलों के अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है।

दुर्भाग्य से, प्राइवेट स्कूलों की बात आते ही मन में बड़ी बिल्डिंग, चमकता परिसर, स्कूल बसों की कतार, टाई-पैंट बूट पहने अमीर घरों के बच्चे और मुख्य गेट से लेकर अंदर तक जगह-जगह तैनात गार्ड की तसवीर उभर आती है। इसके साथ ही एक और तसवीर ऊभरती है, स्कूलों द्वारा वसूली जाने वाली मोटी फीस और समय-समय पर किसी न किसी बहाने पैसों की उगाही करते कठोर मैनेजमेंट की। यह ऐसी छवि है जो पिछले एक दशक के दौरान और अधिक गहरी होती गई है। हालांकि सच्चाई यह है कि सिर्फ 15 से 20 फीसदी प्राइवेट स्कूल ही बड़े और एलीट वर्ग में आते हैं। बाकी स्कूल ऐसे हैं जिनकी औसत मासिक फीस 50 से 700 रुपये के बीच होती है। इन स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश छात्र प्रथम पीढ़ी के छात्र (फर्स्ट जेनेरेशन लर्नर्स) होते हैं और जिनके अभिभावक आमतौर पर निम्न और अतिनिम्न आयवर्ग वाले होते हैं। इन स्कूलों के सामने हमेशा आर्थिक संसाधनों की कमी बनी रहती है।

सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के सीईओ यतीश राजावत का कहना है कि देश के कुल निजी स्कूलों में 75 से 80 फीसदी भागीदारी छोटे और बजट स्कूलों की है, जिनमें नौ करोड़ से अधिक छात्र शिक्षा हासिल करते हैं। सरकार द्वारा अभिभावकों पर फीस के लिए दबाव न डालने, केवल ट्यूशन फीस लेने और अपने सभी कर्मचारियों को वेतन देते रहने के आदेश के कारण बजट स्कूलों के सामने बड़ी समस्या पैदा हो गई है। इससे स्कूलों के दिवालिया होने का खतरा पैदा हो गया है। इसकी सबसे अधिक मार छात्रों पर ही पड़ेगी क्योंकि तब उनके पास गुणवत्तायुक्त शिक्षा तो छोड़िए, किसी प्रकार की शिक्षा हासिल करने का कोई चारा नहीं रह जाएगा, क्योंकि सरकारी स्कूलों की इतनी क्षमता नहीं है कि वे सभी बच्चों को दाखिला दे सकें।

सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त और नामी एलीट स्कूलों के पास फंड और संसाधनों की वैसी किल्लत नहीं है और उनके लिए इस कठिन दौर से निकलना चुनौतीपूर्ण तो है पर असंभव नहीं। लेकिन छोटे शहरों, गांवों और शहरीकृत गांवों के गली-मोहल्लों में कम संसाधनों के साथ संचालित होने वाले बजट स्कूल, जिन्हें किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलती है, उनके लिए यह भारी संकट की घड़ी है। इस कारण इन गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में पढ़ने वाले देश के लगभग नौ करोड़ छात्र-छात्राओं के भविष्य पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं। लॉकडाउन की स्थिति में बड़े और महंगे स्कूल ऑनलाइन कक्षाएं संचालित कर रहे हैं, पाठ्य सामग्री आदि ऑनलाइन उपलब्ध करा रहे हैं और फीस भी ऑनलाइन ले रहे हैं। लेकिन छोटे और कम फीस वाले स्कूलों के सामने तमाम चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं।

मासिक फीस

कोविड-19 संक्रमण के कारण पूरा देश लॉकडाउन में है। इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव बजट स्कूलों पर ही देखने को मिल रहा है। इन स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र मुख्यतः गरीब और निम्न आय वर्ग से आते हैं। ये छात्र अपने परिवार की पहली पीढ़ी होते हैं जो स्कूल जा रहे होते हैं। इनके अभिभावक दिहाड़ी मजदूर, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, छोटे दुकानदार आदि होते हैं, जिनकी औसत वार्षिक आय एक लाख से ढाई लाख रुपये के बीच होती है। लॉकडाउन के कारण इनकी आय बुरी तरह प्रभावित हुई है। किसी को नहीं पता कि यह दौर कितना लंबा चलेगा। इसलिए सभी जितना अधिक हो सके बचत करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके अलावा इनमें से अधिकांश इंटरनेट सेवी नहीं होते और ऑनलाइन लेनदेन को लेकर सहज महसूस नहीं करते हैं। 80 फीसदी से अधिक अभिभावक फीस नकद ही जमा कराते हैं। लॉकडाउन के कारण स्कूल बंद हैं और फीस संकलन नहीं हो पा रहा है। इसके अलावा फीस के लिए दबाव न बनाने के सरकारी फरमान के कारण अभिभावक फीस जमा नहीं करा रहे हैं।

मुनि इंटरनेशनल स्कूल के संचालक अशोक ठाकुर का कहना है कि निहित स्वार्थों के तहत विभिन्न संस्थाओं द्वारा अभिभावकों के बीच यह भ्रम पैदा कर दिया गया है कि सरकार ने स्कूलों को फीस न लेने का आदेश जारी किया है। इसके अलावा अभिभावक यह भी सोचते हैं कि उनका बच्चा जब स्कूल जा ही नहीं रहा है तो फीस किस बात की दी जाए!

स्कूलों के खर्चों में वृद्धि होना

देश में कोरोना वायरस के संक्रमण में तेजी आते ही आनन-फानन में सभी स्कूलों, कार्यालयों, दुकानों आदि को बंद करने का आदेश जारी कर दिया गया। सबकुछ इतनी जल्दी हुआ कि स्कूलों के फर्नीचर, तकनीकी उपकरणों, फाइलों आदि को संभाल कर रखने का मौका ही नहीं मिला। किसी को अनुमान नहीं था कि लॉकडाउन का दौर इतना लंबा चलेगा। अभी तक स्कूलों को खोलने की अनुमति नहीं मिली है। इससे मेंटिनेंस का खर्च काफी बढ़ने की आशंका है। इसके अलावा स्कूलों को अपने सभी शिक्षकों और अन्य कर्मचारियों को वेतन पूर्ववत देना ही है। सरकार का आदेश है कि किसी भी कर्मचारी का वेतन न रोका जाए न उसमें कटौती की जाए। स्कूलों को बिजली, पानी, प्रॉपर्टी टैक्स, भवन का किराया, स्कूल वाहन की ईएमआई आदि का पूर्व की भांति ही भुगतान करना है।

सरप्लस फंड का न होना

बजट स्कूलों के पास सरप्लस फंड का प्रावधान न के बराबर होता है। उनके सामने भविष्य की योजनाओं के लिए फंड एकत्रित करने की बड़ी समस्या होती है। प्रतिवर्ष नए दाखिलों के दौरान प्राप्त होने वाले दाखिला शुल्क आदि से कुछ खर्चों का समायोजन होता है। लेकिन इस बार दाखिले अब तक नहीं हुए हैं, इसलिए समस्या और बढ़ गई है। प्राइवेट लैंड पब्लिक स्कूल्स एसोसिएशन के प्रेसिडेंट प्रेमचंद देसवाल का कहना है कि जिस प्रकार रिजर्व बैंक सभी बैंकों की तरलता का एक हिस्सा अपने पास रिजर्व रखता है, उसी प्रकार सरकार सभी स्कूलों से प्रति छात्र 8-10 रुपये की फिक्स डिपॉजिट रिजर्व सुनिश्चित कराती है। इस रिजर्व का उद्देश्य भी जरूरत के समय स्टॉफ को वेतन आदि सुनिश्चित कराना होता है। इस फंड को इस्तेमाल करने का यह आदर्श समय है। सरकार को स्कूलों को इसकी अनुमति देनी चाहिए।

आनलाइन शिक्षा में परेशानी

बजट स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश छात्रों के अभिभावकों के पास इंटरनेटयुक्त स्मार्टफोन नहीं हैं। बजट स्कूलों के अखिल भारतीय संगठन, नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स अलायंस (निसा) के अनुसार, इन छात्रों के परिवार में औसतन दो से तीन बच्चे होते हैं। महज 20 से 25 फीसदी अभिभावकों के पास इंटरनेट कनेक्शनयुक्त स्मार्टफोन हैं। हालांकि, ऐसे छात्रों और अभिभावकों के लिए एडटेक कंपनियां समाधान भी ला रही हैं।

बजट स्कूल कैसे कर रहे हैं चुनौतियों का सामनाः

बजट स्कूलों ने इस समस्या का एक समाधान ढूंढ़ निकाला है। ऑनलाइन क्लास के लिए संसाधनविहीन स्कूलों ने व्हाट्सऐप को अपना सहारा बनाया है। लाइव कक्षाओं की जगह स्कूलों ने व्हाट्सऐप पर पाठ्य सामग्री रिकॉर्ड कर भेजना शुरू किया है। होमवर्क भी व्हाट्सऐप पर ही मंगाया जाता है। इससे छात्रों के पास अपनी सुविधा के हिसाब से पढ़ाई करने और कोई प्वाइंट समझ में न आने पर रिपीट कर बार-बार देखने का विकल्प मिलता है।

निसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुलभूषण शर्मा बताते हैं कि अचानक उत्पन्न हुई परिस्थिति के कारण स्कूलों को अपने संसाधन अपग्रेड करने का मौका नहीं मिल सका। मल्टी यूजर फैसिलिटी वाले ऐप काफी महंगे होने के कारण भी बजट स्कूल उनका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। कुलभूषण शर्मा बताते हैं कि उनकी बात माइक्रोसॉफ्ट और अन्य सॉफ्टवेयर निर्माता कंपनियों के साथ चल रही है। वह कहते हैं, “कंपनियां बजट स्कूलों के लिए कम कीमत पर सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराने को राजी हो गई हैं। उम्मीद है कि जल्दी ही हम भी बेहतर तरीके से ऑनलाइन क्लास चला पाएंगे। इसके अतिरिक्त टॉप पैरेंट ऐप जैसे कुछ फ्री ऐप की मदद से भी शिक्षा प्रदान की जा रही है।”

अभिभावक ऐप से बच्चों को सिखा सकते हैं रचनात्मक गतिविधियां

सेंटर फॉर स्क्वायर फाउंडेशन में एसोसियेट डायरेक्टर राहुल अहलुवालिया ने बताया, “शिक्षा का क्षेत्र वर्तमान में काफी चुनौतियों से गुजर रहा है। फिर चाहे वो सरकारी स्कूल हो या प्राइवेट। शिक्षा में व्यवधान उत्पन्न हुआ है। इससे छात्रों के सीखने की प्रक्रिया और उनके समग्र विकास को नुकसान पहुंचेगा। ऑनलाइन लर्निंग शिक्षा इसके दुष्परिणामों को कम करने का एक प्रभावशाली तरीका है। छात्रों तक पाठ्य सामग्री की पहुंच और ऑनलाइन पढ़ाई को पूरा करने में एडटेक संसाधन काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन ऑनलाइन पढ़ाई के लिए कुछ मूलभूत टूल्स की आवश्यकता होती है जो बजट प्राइवेट स्कूलों के पास उपलब्ध नहीं होते। ऐसा संभव है कि ऑनलाइन पढ़ाई के लिए बजट प्राइवेट स्कूलों के अभिभावकों की पहुंच स्मार्ट फोन और इंटरनेट तक न हो। हम एंड्रॉयड फोन आधारित निशुल्क मोबाइल ऐप ‘टॉप पैरेंट’ के माध्यम से बुनियादी शिक्षा से संबंधित समस्याओं का समाधान साझा कर रहे हैं। हिन्दी में उपलब्ध इस ऐप के माध्यम से अभिभावक अपने तीन से आठ वर्ष के बच्चों को रचनात्मक गतिविधियों में शामिल करने के आसान तरीके सिखा सकते हैं।”

उन्होंने बताया कि हमने ‘टिक टैक लर्न’ नाम से हिंदी, अंग्रेजी, तेलगु, ओड़िया और मराठी भाषा में यूट्यूब चैनल शुरू किए हैं। इन चैनलों पर गणित और विज्ञान विषय के उच्च गुणवत्ता वाले डिजिटल संसाधन उपलब्ध हैं और ये चैनल कक्षा एक से 10वीं तक के विद्यार्थियों के लिए निःशुल्क ओपन सोर्स लाइब्रेरी का काम करते हैं। इसके साथ ही हम विभिन्न सेवा-प्रदाताओं जिनके पास स्कूलों के लिए ऑनलाइन संसाधनों को मजबूत करने में सहायता करने के लिए मुफ्त समाधान हैं, उनको एक साथ लाने और उनके बीच बेहतर तालमेल की ओर भी काम कर रहे है। 

एजुकेशन स्टार्टअप कर रहे हैं छात्रों की मदद

एडफिना के सीएफओ रौनक सिंघवी के अनुसार, कोविड19 संक्रमण के प्रसार के कारण स्कूलों के बंद होने से देश की पूरे शिक्षा तंत्र के समक्ष कई प्रकार की चुनौतियां उत्पन्न हो गई हैं। हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि नोटबंदी के बाद जिस प्रकार के अवसर तकनीकि के माध्यम से लेनदेन की सुविधा प्रदान करने वाली कंपनियों के सामने उत्पन्न हुए थे, कुछ वैसे ही संभावनाएं तकनीकि के माध्यम से शिक्षा प्रदान करने वाली कंपनियों को भी प्राप्त हो सकती है। असली चुनौती यही है कि शिक्षक कितनी जल्दी नई तकनीकि को आत्मसात करते हैं और कितने रचनात्मक तरीके से वर्चुअल कक्षाओं का संचालन करते हैं। यह देखना सुखद है कि कई अध्यापक पहल करते हुए व्हाट्सऐप, वीडियो कांफ्रेंसिंग और ऑनलाइन लर्निंग मैनेजमेंट सिस्टम के माध्यम से छात्रों से जुड़े हुए हैं। हालांकि, छात्रों का एक वर्ग ऐसा भी है जिसके पास ऑनलाइन कक्षाओं का लाभ उठाने के लिए इंटरनेट युक्त आवश्यक डिजिटल उपकरणों का अभाव है। ऐसे छात्रों के लिए कुछ एजुकेशन स्टार्टअप्स सामने आए हैं और ब्रॉडकास्ट, वॉयस कॉल, एसएमएस आदि के माध्यम से सहायता प्रदान कर रहे हैं।

हमारे निवेशक संगठन ग्रे मैटर्स कैपिटल ने एक ब्लॉग और मेलर सीरीज शुरू की है, जिसका नाम है 'टेक्नोलॉजीज फॉर स्कूल रिसीलियंस' है। यह सीरीज भारतीय स्कूल फाइनेंस कंपनी के माध्यम से बजट प्राइवेट स्कूलों के बीच वितरित की जाती है। हमारी शिक्षा वित्त पहल- एडफिना, निजी स्कूलों की फीस जमा करने और प्रवेशों का प्रबंधन करने में मदद करने के लिए एडफिना स्कूल इएक्सेल नामक एक प्रौद्योगिकी मंच विकसित कर रही है। हमारी योजना जल्द से जल्द कैरियर काउंसलिंग, स्कॉलरशिप्स, कन्टेंट, टेस्ट प्रेपरेशन आदि की सेवाएं प्रदान करने की भी है जिससे कि छात्र शिक्षा से संबंधित गुणवत्ता युक्त सेवाएं सस्ती कीमत पर प्राप्त कर सकें।

अंग्रेजी भाषा के साथ सशक्तीकरण का लक्ष्य

सेंटर फॉर सिविल सोसायटी में स्पोकन इंग्लिश प्रोजेक्ट से जुड़े रोहन जोशी ने बताया कि निम्न आय वर्ग के बीच सीमित पहुंच के बावजूद, मोबाइल एडटेक कंपनियों में इस वर्ग के छात्रों तक ऑनलाइन शिक्षा पहुंचाने की अथाह संभावनाएं हैं। हमारा ‘इंग्लिश बोलो’ प्रोजेक्ट इन्हीं संभावनाओं के आधार पर निम्न आय वर्ग के परिवारों के तीसरी से छठी कक्षा के 10 लाख छात्रों के अंग्रेजी भाषा के साथ सशक्तीकरण के लक्ष्य के साथ काम कर रहा है। इसके लिए जानेमाने मोबाइल ऐप्लिकेशंस की सहायता ली जा रही है। हमारा प्रयास उन्हें यह सुविधा निःशुल्क प्रदान करने की है। वर्तमान समय की प्राथमिकताएं निश्चित रूप से तत्काल राहत और सहयोग है लेकिन ऐसे समुदायों के भविष्य के लिए निवेश का जारी रहना अत्यंत आवश्यक है। अपने प्रोजेक्ट के माध्यम से हम निम्न आय वर्ग के छात्रों के बीच अच्छी शिक्षा और बेहतर भविष्य की उम्मीद जीवित रखना चाहते हैं।

(लेखक सेंटर फॉर सिविल सोसायटी में एसोसिएट डायरेक्टर हैं)

-------------------------------------------------

देश भर के बजट स्कूलों में नौ करोड़ छात्र पढ़ते हैं, इन दिनों फीस न मिलने से इन स्कूलों के दिवालिया होने का खतरा

यतीश राजावत

सीईओ, सेंटर फॉर सिविल सोसायटी

------------------------------------------------

मल्टी यूजर ऐप महंगे, स्कूल इनका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे। कंपनियां कम कीमत पर सॉफ्टवेयर देने को राजी, इससे ऑनलाइन क्लास बेहतर होगी

कुलभूषण शर्मा

राष्ट्रीय अध्यक्ष, निसा

Advertisement
Advertisement
Advertisement