भारत के प्रति पश्चिमी देशों के पूर्वाग्रह का इतिहास नया नहीं है। वहां सदियों तक भारत की छवि ‘सपेरों के देश’ के रूप में बनी रही। बीसवीं सदी में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में हुए क्रांतिकारी परिवर्तन की बदौलत विकसित देशों ने अभूतपूर्व प्रगति की, लेकिन उस दौरान भी भारत के प्रति उनकी धारणा नहीं बदली। भारत उनकी नजरों में तीसरी दुनिया का आर्थिक रूप से कमजोर देश ही बना रहा है। वैसे तो प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बीच और उसके बाद ब्रिटेन के साम्राज्यवादी हुकूमत के खिलाफ गांधी के ऐतिहासिक अहिंसक आंदोलन और स्वतंत्रता उपरांत देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था के सुचारू रूप से लागू होने की वजह से भारत के प्रति नजरिए में बदलाव दिखा था। लेकिन, भारत तकनीक के क्षेत्र में कभी पाश्चात्य देशों की बराबरी कर सकेगा, यह उम्मीद किसी को नहीं थी। आज भारत इस कसौटी पर किसी भी विकसित देश से मुकाबला कर सकता है और उसकी गणना आर्थिक रूप से मजबूत मुल्कों में होती है।
दरअसल आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में छात्रों को उच्चस्तरीय तकनीकी शिक्षा देने के लिए इंजीनियरिंग और मेडिकल के पढ़ाई के लिए उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना की गई। उन्हीं संस्थानों से उत्तीर्ण होकर भारत से सैकड़ों डॉक्टर और इंजिनियर देश से निकलकर अमेरिका और यूरोपीय देशों में काम करने गए, जहां उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। नब्बे के दशक में जब इंटरनेट क्रांति का प्रादुर्भाव हुआ तो तब भारत को दुनिया भर में तकनीकी रूप से दक्ष युवाओं का देश समझा जाने लगा। इंटरनेट युग में भारतीय युवाओं ने दुनिया भर, खासकर अमेरिका में डिजिटल क्रांति लाने में महती भूमिका निभाई। अगले दो दशकों में भारत के कंप्यूटर इंजीनियरों का ऐसा बोलबाला रहा कि उन्होंने गूगल और माइक्रोसॉफ्ट सहित कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सर्वोच्च पद को भी सुशोभित किया। जाहिर है, अमेरिका जैसे प्रजातांत्रिक देश में बिना मेधा के ऐसा संभव नहीं हो सकता था। यह ‘गठबंधन’ दोनों देशों के लिए ‘विन-विन सिचुएशन” यानी दोहरे फायदे का सौदा साबित हुआ। भारतीय युवाओं ने अपनी प्रतिभा और कौशल के बल पर डिजिटल युग में अमेरिका की अर्थव्यवस्था को और सुदृढ़ करने में योगदान दिया, तो अमेरिका यहां के युवाओं को बेहतरीन अवसर देने वाला अग्रणी देश बना। हर वर्ष गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, अमेजन जैसी अमेरिकी कंपनियां बेहतरीन भारतीय युवाओं को अपने यहां नौकरी करने का अवसर देने लगीं और आज भी देती हैं। लेकिन क्या अब स्थितियां बदलने वाली हैं? क्या भारतीय छात्रों और युवाओं के ‘ग्रेट अमेरिकन ड्रीम’ के अंत की शुरुआत हो रही है?
दरअसल पिछले सप्ताह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने हर नए एच-1बी वीजा की फीस बढ़ाकर एक लाख डॉलर कर दी है, जो पहले से कई गुना अधिक है। इसी वीजा के आधार पर अधिकतर भारतीय युवा अमेरिकी कंपनियों में काम करने का अवसर पाते हैं। ट्रम्प प्रशासन के इस निर्णय से आशंका जताई जा रही है कि इसका सबसे अधिक खामियाजा भारतीय युवाओं को ही भुगतना पड़ेगा, क्योंकि 71 फीसदी वीजा उन्हें ही मिलता है। विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिकी कंपनियों के लिए अब यह मुमकिन नहीं होगा कि वे उतनी संख्या में भारतीय युवाओं को नौकरी दे सकें, जितना वे पहले दिया करती थीं।
ट्रम्प का कहना है कि उन्होंने यह कदम इसलिए उठाया, ताकि अमेरिकी युवाओं को ज्यादा से ज्यादा नौकरियां मिल सकें और अमेरिकी कंपनियां भारत या दूसरे देशों से सिर्फ उन्हीं कुशल लोगों को इस वीजा के माध्यम से नौकरियां दें, जो उनके अपने देश में उपलब्ध न हों। इसमें दो मत नहीं है कि ट्रम्प के इस कदम के पीछे उनकी अपनी राजनीति है। पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका और कुछ अन्य देशों में आवाज उठी कि वहां के युवाओं की नौकरियां छीन कर विदेशियों को दी जा रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका भी बेरोजगारी का दंश झेल रहा है लेकिन क्या ट्रम्प के इस कदम से उसका समाधान हो पाएगा? क्या बड़ी टेक कंपनियां अमेरिकी युवाओं को वे तमाम नौकरियां दे पाएंगी, जिन्हें पहले एच1-बी वीजा के माध्यम से दिया जाता था? ट्रम्प को इसकी उम्मीद है, लेकिन यह कहना फिलहाल मुश्किल है।
हालांकि इतना तय है कि ट्रम्प तकनीक में महारत हासिल करने वाले भारतीय युवाओं पर पाबंदियां लगाकर अमेरिका का ही नुकसान करेंगे, चाहे आर्थिक क्षेत्र हो या तकनीकी। अमेरिका के दरवाजे बंद होने से भारतीय छात्रों के लिए सारे विकल्प खत्म नहीं हो जाएंगे। डिजिटल युग में जिन भारतीय युवाओं ने अपनी प्रतिभा के बल पर बड़ा मुकाम हासिल किया, उन्हें दरकिनार करना अमेरिकी इंडस्ट्री के हित में नहीं है। इसलिए ट्रम्प को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।