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प्रथम दृष्टि: टू-मिनट साहित्य!

आज के लेखकों, खासकर युवा वर्ग को इस भ्रम से बाहर निकलना होगा कि किसी तरह किताब छपने मात्र से महान हो जाएंगे
पुस्तक मेले में भीड़ है लेकिन प्रकाशकों की शिकायत पुस्तकें बिकती नहीं

दो वर्ष पहले जब कादंबिनी और नंदन का प्रकाशन बंद हुआ तो सोशल मीडिया पर आंसुओं का सैलाब थमने का नाम नहीं ले रहा था। दुख और क्षोभ जताने वालों की आभासी भीड़ में हर किसी ने व्यथित मन से जताया कि कैसे दोनों हिंदी पत्रिकाएं उनकी जिंदगी का अहम हिस्सा रही थीं। इतनी बड़ी संख्या में आहत प्रशंसकों को देख एकबारगी आश्चर्य हुआ कि दोनों पत्रिकाएं आखिरकार बंद क्यों हो गईं! उन्हें तो बुक स्टाल पर पहुंचते ही प्रबुद्ध पाठक हाथोहाथ उठा लिया करते होंगे। लेकिन, जैसा कि किसी जानकार ने बताया, सच्चाई इसके विपरीत थी। वस्तुस्थिति यही है कि पाठकों की कमी होने के कारण अधिकतर हिंदी पत्रिकाएं बंद हो गईं। मजाकिया मीम और ग्लैमरस तारिकाओं के रील्स के दौर में इससे किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह आम मान्यता बन गई है कि पत्र-पत्रिकाओं, कविता-कहानियों और उपन्यासों के शौकीनों की प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है।

प्रकाशक भी इस बात का रोना रोते हैं कि उनकी किताबें अब बिकती नहीं हैं और जब बिकती ही नहीं, तो लेखकों को रॉयल्टी देने की बात नहीं करनी चाहिए। अगर ऐसा वाकई हो रहा है तो साहित्य के नाम पर लगने वाले मजमों में भारी भीड़ क्यों उमड़ती है और पुस्तक मेलों में किताबें खरीदने वालों की लंबी कतारें आज भी क्यों लगी रहती हैं? यहां तक कि नए प्रकाशकों की संख्या में हर रोज इजाफा हो रहा है। पत्रिकाओं के लिए तो विज्ञापन का टोटा हो सकता है लेकिन उपन्यास या कविता-संग्रह तो हमेशा पाठकों पर ही निर्भर रहे हैं। किसी रश्मिरथी, मैला आंचल या कामायनी की लोकप्रियता किसी प्रकाशक समूह की दरियादिली या किसी कॉरपोरेट घराने के प्रायोजित करने से नहीं बनी। पाठक सिर्फ और सिर्फ उनकी लेखन शैली और कंटेंट के कारण मुरीद हुए। पाठकों की कथित रूप से घटती अभिरुचि और संख्या के पीछे शायद सबसे बड़ी वजह यह है कि आज ऐसी कृतियों और रचनाओं का अभाव है जिन्हें कालांतर में कालजयी कहा जा सके। आज कितनी कृतियां लिखी जा रही हैं, जिन्हें उसी तरह से इतिहास में स्थान मिलेगा जैसा प्रेमचंद और शरत चन्द्र के उपन्यासों को मिला। किसी गोदान की तरह, किसी देवदास की तरह, जिन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी याद करती रहेगी। 

ऐसा नहीं है कि समकालीन रचनाकार प्रयास नहीं कर रहे हैं। पाठकों की संख्या भले ही घट रही हो, इसमें शक नहीं कि लेखकों का समूह बढ़ता जा रहा है। आज स्थापित प्रकाशन संस्थानों से इतर अनेक ऐसे प्रकाशक बाजार में मौजूद हैं जो लेखकों को पारिश्रमिक देने के बजाय उनसे ही उनकी किताब छापने की कीमत वसूलते हैं। जाहिर है, ऐसे लेखकों की कमी नहीं जो इसे अनुचित नहीं समझते। अधिकतर नामी-गिरामी प्रकाशक नए लेखकों के साथ अनमना बर्ताव करते हैं और महीनों तक उनकी पांडुलिपियों को पढ़ने तक की जहमत नहीं उठाते हैं। इसलिए कई नए लेखक ‘सेल्फ-पब्लिशिंग’ प्रकाशन समूहों की ओर रुख करते हैं, जहां संपादन और प्रूफरीडिंग से लेकर आवरण चित्र बनवाने की रेडीमेड सुविधा मौजूद होती है, जो कोई भी लेखक एक निश्चित राशि देकर प्राप्त कर सकता है। कंटेंट क्या है, उसकी गुणवत्ता क्या है, उससे प्रकाशक को कोई मतलब नहीं होता। इस बाजारी व्यवस्था ने लेखकों की एक ऐसी जमात तैयार की है जिसका सपना कोई क्लासिक लिखना नहीं, बल्कि कुछ ऐसा तैयार करना है जिससे वह लेखक के रूप अपने आप को स्थापित कर सके। अगर उनकी कृतियों की सोशल मीडिया पर वाहवाही हो जाए, तो उनके लिए सोने पर सुहागा!

इसका मतलब यह नहीं कि स्व-प्रकाशित होने वाली हर पुस्तक स्तरहीन होती है। उनमें से कई चर्चित भी रही हैं। ऐसी किताबों के कुछ लेखक मशहूर भी हुए और उन्हें बाद में बड़े प्रकाशन समूहों से लिखने के कॉन्ट्रैक्ट भी मिले। फिर भी, अधिकतर ऐसी किताबें गुणवत्ता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हैं। आज ऐसे कथित लेखकों की कमी नहीं है, जो हर दूसरे-तीसरे महीने कोई न कोई नई किताब लिखकर सामने आते हैं, लेकिन सोशल मीडिया में फॉलोअर्स से झूठी-सच्ची शाबाशी मिलना एक बात है, अनजाने पाठकों से प्रशंसा मिलना कुछ और। शायद वे इसी मुगालते में रहते हैं कि उनके नाम से जितनी किताबें प्रकाशित होंगी, वे उतने ही महान होंगे, अधिक से अधिक साहित्य सम्मेलनों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाएंगे और पुस्तक मेलों में स्वरचित, स्वप्रकाशित कृतियों पर अपने हस्ताक्षर अंकित करने के लिए दिन भर मौजूद रहेंगे। आज के लेखकों, खासकर युवा वर्ग को इस भ्रम की दुनिया से बाहर निकलना होगा। अगर उनकी रचनाओं में वाकई दम है तो वे आज भी लोकप्रिय होंगे, जितना पहले के लेखक होते थे। पाठकों को इससे कोई मतलब नहीं है कि उन्हें किस प्रकाशक ने छापा है। यह भी जरूरी नहीं कि किसी लेखक के नाम दर्जनों किताबें हों। एमिली ब्रोंटे सिर्फ ‘वुदरिंग हाइट्स’ लिखकर अंग्रेजी साहित्य में अमर हो गईं और माघ के ‘शिशुपालवध’ ने संस्कृत में उन्हें कालिदास की श्रेणी का रचनाकार बना दिया। डिजिटल युग के लेखकों को यह हमेशा याद रखना होगा।

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