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प्रथम दृष्टि: फिर वही सवाल

विपक्ष को नरेन्द्र मोदी और अमित शाह से टक्कर लेनी होगी, लेकिन क्या विपक्ष इस चुनौती के लिए तैयार है?
मोदी-शाह की चुनावी रणनीतियां ही भाजपा का सबसे प्रभावी हथियार हैं

अगले आम चुनाव में दो वर्ष से कम समय शेष है, लेकिन तैयारियों की सुगबुगाहट सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष दोनों खेमों में देखने को मिल रही है। भारतीय जनता पार्टी ने उन लोकसभा क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया है, जो फिलहाल विरोधी दलों के खाते में हैं। पार्टी ने कई राज्यों में नए प्रभारी नियुक्त किए हैं। यानी वह आगामी संसदीय चुनाव को हल्के में नहीं ले रही है। 2014 के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह (जो पहले पार्टी अध्यक्ष और 2019 में केंद्रीय गृह मंत्री बने) के प्रभावी होने के बाद भाजपा की चुनावी रणनीतियां बंदली हैं। चाहे चुनाव राज्यों में हो या राष्ट्रीय स्तर पर, पार्टी तैयारी करने में कोई कसर नहीं छोड़ती, चाहे नतीजे उसके पक्ष में आए या नहीं।

शायद यह 2004 लोकसभा चुनाव में मिली पराजय का नतीजा है, जब पार्टी ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की छवि और उनकी सरकार के किये कार्यों पर भरोसा कर ‘इंडिया शाइनिंग’जैसे स्लोगन का ईजाद किया और अपनी जीत के प्रति आशस्वत दिखी। लेकिन चुनावों के नतीजे उलटे आये और भाजपा अगले दस वर्षों तक सत्ता से बाहर रही। शायद 2004-14 का दशक पार्टी के लिए सबक सीखने का समय साबित हुआ। पार्टी में पुरानी पीढ़ी की जगह नई पीढ़ी को कमान मिली और वह 2014 में सत्ता में फिर से काबिज हुई। अब 2024 में भाजपा लगातार तीसरी बार देश की सत्ता की बागडोर अपने हाथों में रखने के लिए चुनावी समर में उतरेगी। आजाद भारत के इतिहास में कांग्रेस को छोड़कर किसी अन्य दल को यह गौरव प्राप्त नहीं। जाहिर है, भाजपा ने इसके लिए अभी से कमर कस लिया है और सियासत की तमाम अनिश्चितताओं के बावजूद कहा जा सकता है कि इस बार भी वह प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में ही आगे बढ़ेगी। भाजपा अपने आपको कार्यकर्ताओं की पार्टी कहती है, लेकिन आज के दौर में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि राष्ट्रीय स्तर पर मोदी का नेतृत्व और मोदी-शाह की चुनावी रणनीतियां ही उसके सबसे प्रभावी हथियार हैं। विपक्ष को उनसे ही टक्कर लेनी होगी, लेकिन क्या वह इस चुनौती के लिए तैयार है?

हाल के राजनीतिक घटनाक्रम से यह तो पता चलता ही है कि भाजपा-विरोधी दलों ने मोदी-शाह को टक्कर देने के लिए योजनाएं बनानी शुरू कर दी हैं। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ इस दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर पिछले कुछ वर्षों से आरोप लगता रहा है कि वह सियासत की जमीनी हकीकत और जनता से दूर हो गया है। इस यात्रा से पार्टी को आम आदमी से फिर से जुड़ने की उम्मीद है। लेकिन, क्या कांग्रेस अपने बलबूते वापसी की उम्मीद कर सकती है? पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही उसके कई दिग्गज और युवा नेता दूसरी पार्टियों का रुख कर चुके हैं। पार्टी 2024 तक अपनी बदौलत सरकार बनाने की स्थिति में नहीं दिखती। इसलिए उसका मुख्य लक्ष्य सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने का है, ताकि वह गैर-भाजपा दलों के साथ अगली सरकार बना सके, जैसा 2004 और 2009 के आम चुनावों के बाद हुआ। उसका यह भी प्रयास होगा कि कांग्रेस का नेतृत्व तमाम विपक्षी दलों को स्वीकार्य हो। नीतीश कुमार जैसे नेताओं का मानना है कि तमाम विपक्ष को एकजुट करके ही मोदी को सत्ता में वापस आने से रोका जा सकता है। लेकिन, क्या विपक्षी एकता की कोई संभावना निकट भविष्य में दिख रही है या अभी भी यह मरीचिका मात्र है? दरअसल कई राज्यों में भाजपा-विरोधी दलों में आपसी टकराव और कटुता इस कदर है कि उनके साझा मंच पर आने की संभावना क्षीण दिखती है।

हालांकि राजनीति भी क्रिकेट की तरह अनिश्चितताओं का खेल है। अगर जनसंघ और समाजवादी पार्टियां एक साथ आ सकती हैं, वामपंथ के पुरोधा किसी कांग्रेसी सरकार को समर्थन दे सकते हैं और नीतीश कुमार एक नहीं, दो-दो बार लालू प्रसाद यादव के साथ अपने टूटे रिश्ते को बहाल कर सकते हैं तो कुछ भी असंभव नहीं है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसे उदाहरणों की बहुतायत है जब धुर विरोधी दलों ने आपसी रंजिश को दरकिनार कर दिया। 1977 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी को विपक्षी एकता के कारण शिकस्त मिली।

इस बार विपक्षी दल किस हद तक एकजुट हो सकते हैं, यह प्रश्न फिलहाल अनुत्तरित है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या विपक्ष तमाम व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से ऊपर उठकर राहुल गांधी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, शरद पवार या किसी अन्य नेता को चुनाव पूर्व अपने साझा गठबंधन का नेता घोषित कर चुनाव समर में जाने पर आम सहमति बना सकता है? विपक्ष को याद रखना होगा कि उसके सामने चुनौती आसान नहीं है। भाजपा के समक्ष नेतृत्व का कोई संकट नहीं है लेकिन विपक्ष के पास हर बार की तरह यह समस्या इस बार भी बरकरार है कि मोदी-शाह की रणनीतियों का काट ढूंढने वाला इस बार उसका सेनापति कौन होगा? इसका हल वह जितनी जल्दी ढूंढ ले, उसके लिए उतना ही बेहतर होगा।

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