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प्रथम दृष्टि: नेतृत्व की अहमियत

विपक्ष को दीर्घकालीन रणनीति बनानी होगी। भविष्य में उन्हें एकजुट होकर ऐसा नेतृत्व प्रदान करना होगा, जो मोदी-योगी की जोड़ी के ठोस विकल्प के रूप में जनता का विश्वास जीत सके
तमाम दुश्वारियों, सत्ता विरोधी लहर के बाद भी जिताया यूपी

शहसवार मैदान-ए-जंग में गिरकर फिर उठते हैं तो विपरीत परिस्थितियों में आखिरी दम तक जूझने की इच्छाशक्ति का इजहार होता है। उनका यही जुझारूपन अक्सर हारी हुई बाजी पलट देता है। लेकिन, जब कोई शहसवार बार-बार पटखनी खाए तो उसकी काबिलियत पर सवाल खड़े होना लाजिमी है। पांच राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश में हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में विपक्ष की स्थिति उसी शहसवार की तरह दिखी, जो बार-बार गिरने के बावजूद अपनी पराजय से कोई सबक नहीं लेता है।

चुनाव परिणाम आने तक भाजपा विरोधियों और कई राजनीतिक टिप्पणीकारों को लग रहा था कि केसरिया दल की कम से कम उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में तो वापसी नहीं होगी। गोवा और मणिपुर में भी उसके विपक्ष में बैठने का पूर्वानुमान था और पंजाब में तो उसके सत्ता में काबिज होने की भविष्यवाणी पार्टी के अपने कार्यकर्ता भी नहीं कर रहे थे। लेकिन भाजपा न सिर्फ गोवा और मणिपुर में सरकार बनाने में सफल हुई बल्कि उसने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी शानदार सफलता दर्ज की। हालांकि विपक्ष की उम्मीदों का आधार यह नहीं था कि उसने अपने आपको मतदाताओं के समक्ष एक मजबूत विकल्प के रूप में पेश किया था, बल्कि उसका मानना था कि जनता स्वयं भाजपा सरकारों को नकार देगी। किसान आंदोलन, कोविड महामारी के दौरान दिखी मानवीय त्रासदी, महंगाई, पलायन, बेरोजगारी और बिगड़ती कानून-व्यवस्था जैसे मुद्दों पर आस लगा कर उसे ऐसा लगा कि सभी प्रदेशों, खासकर उत्तर प्रदेश में जबरदस्त सत्ता-विरोधी लहर होगी। जाहिर है, विपक्ष भाजपा की किश्ती को अपने ही भार से डूबते हुए देखने को किनारे पर तैयार बैठा था। लेकिन, पंजाब को छोड़कर बाकी चार राज्यों में भाजपा की जीत को रोकने में वह कामयाब नहीं हो सका। आखिर वजहें क्या रहीं?

चुनाव परिणाम की घोषणा के बाद राजनीतिक विश्लेषक भाजपा के जीत की पोस्टमॉर्टेम रिपोर्ट बनाने में जुट गए हैं। बहुकोणीय मुकाबले में एकजुटता का अभाव विपक्ष की हार का मुख्य कारण समझा जा रहा है। इसमें शक नहीं कि कई विधानसभा क्षेत्रों में मतों का अंतर इतना कम रहा कि भाजपा-विरोधी मतों के विभाजन होने का खामियाजा विपक्ष को उठाना पड़ा। भले ही इस चुनाव में भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच सीधी टक्कर दिखी लेकिन कांग्रेस, बसपा और कई छोटी पार्टियों के मैदान में होने का उनके प्रदर्शन पर प्रतिकूल असर दिखा। इसके बावजूद यह कहना महज अनुमान से अधिक कुछ नहीं होगा कि भाजपा सत्ता वापसी करने में असफल होती, अगर उसके विरोधी इस बार एकजुट होते। आखिरकार उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनावों में उसे मुख्य विपक्षी पार्टियों के गठबंधन का सामना करने के बावजूद शानदार जीत मिली थी।

दरअसल, भाजपा और उसके विरोधी दलों के बीच जो सबसे बड़ा फासला दिखता है, वह है नेतृत्व का। भाजपा को केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ का नेतृत्व हासिल है, जिनकी व्यक्तिगत छवि ऐसे नेताओं के रूप में हैं जो अपनी पार्टी की नीतियों के अनुसार कोई भी निर्णय लेने में नहीं हिचकते। इसके विपरीत, विपक्ष में ऐसे नेताओं का अभाव दिखता है। कांग्रेस के राहुल गांधी और प्रियंका गांधी अपने दल को उत्तर प्रदेश में पुनर्जीवित करने में इस बार भी असफल रहे। पार्टी शीर्ष स्तर पर भी नेतृत्व के सवाल से जूझ रही है, जहां नेहरू-गांधी परिवार के एकाधिकार को चुनौती देने वालों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन जब विकल्प ढूंढ़ने की बारी आती है तो सिर्फ सिफर नजर आता है।

जहां तक बसपा प्रमुख मायावती का सवाल है, उनकी घटती सक्रियता के कारण उनका जनाधार लगातार खिसक रहा है। दलितों की एक बड़ी लीडर का अचानक इस कदर अप्रासंगिक हो जाना आश्चर्यजनक है। इस चुनाव में उनकी पार्टी के प्रदर्शन को देखकर यह विश्वास करना कठिन है कि कुछ वर्ष पूर्व तक उन्हें गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा फ्रंट के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जा रहा था।

समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव जरूर इस चुनाव में भाजपा को सबसे मजबूत चुनौती देते दिखे लेकिन मोदी-योगी की डबल इंजन की सरकार का ब्रेक लगाने में वे भी चूक गए। दरअसल, उत्तर प्रदेश की सत्ता गंवाने के बाद से हर चुनाव में उनकी रणनीति बदलती रही है। 2017 में उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया तो 2019 में बसपा के साथ। इस बार उन्होंने दोनों पार्टियों से दूरियां बनाईं और कुछ छोटे दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। लेकिन उनकी यह रणनीति भी कारगर नहीं हुई। उन्हें दीर्घकालीन रणनीति बनानी पड़ेगी। विपक्ष के नेताओं को यह भी समझना होना कि चुनाव के समय तात्कालिक मुद्दे जो भी हों, निर्णायक नेतृत्व की अहमियत है। भविष्य में उन्हें एकजुट होकर ऐसा नेतृत्व प्रदान करना होगा, जो मोदी-योगी की जोड़ी के ठोस विकल्प के रूप में जनता का विश्वास जीत सके। कभी-कभी जब युद्ध के मैदान में लड़ाई कांटे की होती है तो अंतिम फैसला सेनापति की काबिलियत और रणनीति के आधार पर ही होती है। इस बार के चुनाव परिणामों से कम से कम यही लगता है।

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