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प्रथम दृष्टि : खस्ताहाल स्कूल

आज सरकारी स्कूलों में सिर्फ उनके बच्चे पढ़ते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति निजी विद्यालयों की फीस भरने लायक नहीं। ऐसे में सरकारी स्कूलों की जर्जर हालत भला कैसे सुधरेगी? पटना हाइकोर्ट का सवाल नीति-नियंताओं के सामने खड़ी चुनौती है
सरकारी स्कूल

बिहार में शिक्षा विभाग के लिए एक नई मुसीबत आन पड़ी है। एक मामले की सुनवाई के दौरान पटना हाइकोर्ट ने उसे यह बताने को कहा है कि राज्य में कितने सरकारी अधिकारियों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। देखा जाए तो ऐसे आंकड़े इकठ्ठा करना कोई टेढ़ी खीर नहीं है। मुश्किल तो तब होती जब यह पूछा जाता कि सरकारी महकमों में उच्च पदों पर आसीन कितने नौकरशाहों के बेटे-बेटियां निजी संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करते हैं। उसमें जरूर थोड़ी मेहनत करनी पड़ती। बहरहाल, फिलहाल पूरा महकमा बड़ी संजीदगी से आंकड़े जुटाने में लगा है, ताकि अगली सुनवाई के दौरान न्यायालय को तथ्यों से अवगत कराया जा सके। राज्य के सभी जिलाधीशों और पुलिस अधीक्षकों को इस संबंध में पत्र लिखा गया है। जल्द ही हम जान पाएंगे कि आज के दौर में कितने अधिकारियों की सरकारी विद्यालयों में आस्था बरकरार है। ऐसे अधिकारियों की संख्या उंगली पर गिनने लायक भी मिल जाए तो यह सुखद आश्चर्य से कम न होगा। यही कारण है कि हाइकोर्ट का आदेश शिक्षा विभाग के लिए मुसीबत का सबब बन गया है। इन आकड़ों से बहुत कुछ स्पष्ट होने की उम्मीद है।

बिहार सहित कई प्रदेशों में सरकारी विद्यालयों की स्थिति सर्वविदित है। इस तथ्य से भी सब वाकिफ हैं कि बड़े सरकारी अधिकारी क्या, उनके महकमे का अदना कर्मचारी भी अपने बच्चों के भविष्य की संभावनाएं निजी संस्थानों में तलाशता है। आम तौर पर ऐसा समझा जाता है कि सरकारी स्कूलों में सिर्फ उनके बच्चे पढ़ते हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि वे निजी विद्यालयों की फीस भर सकें। आज जब देश के किसी कोने से किसी जिलाधीश के बच्चे के सरकारी स्कूल में पढ़ने की खबर आती है तो उसके लिए तारीफों के पुल बंधने लगते हैं, मानो उसने आदर्शवाद और त्याग का एक उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया है। लेकिन, अगर कोई अधिकारी अपने बच्चे का निजी संस्थान में दाखिला कराता है तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता, भले ही वे उस तंत्र का हिस्सा हैं जिसकी बदौलत सरकारी स्कूलों की ऐसी हालत हुई। इसके लिए उनसे कम जिम्मेदार उनके सियासी आका नहीं रहे हैं।

अगर महाराष्ट्र और दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर प्रदेशों में आज सरकारी स्कूलों की स्थिति दयनीय है। उनमें अधिकतर के पास न तो पर्याप्त संसाधन हैं, न ही शिक्षक। विद्यालयों में शौचालयों की बात तो दूर, उनके भवन तक जर्जर हैं। कई सरकारी विद्यालयों को वह भी नसीब नहीं और उनके शिक्षक खुले आसमान में बच्चों को पढ़ाने को मजबूर हैं। लेकिन हमेशा ऐसी स्थिति नहीं थी। अस्सी के दशक तक आम तौर पर सरकारी विद्यालयों की स्थिति बेहतर थी और उस समय तक वे उच्चाधिकारियों के बच्चों की भी पहली पसंद थे। हर जिले में कम से एक सरकारी स्कूल तो होता ही था, जिसकी गिनती राज्य के बेहतरीन शिक्षण संस्थानों में होती थी। उन विद्यालयों के पास अच्छे भवन, खेल के बड़े मैदान, सभी उपकरणों से लैस विज्ञान की प्रयोगशालाएं और खासकर उच्च कोटि के प्रतिभाशाली अध्यापक हुआ करते थे। अविभाजित बिहार के नेतरहाट विद्यालय के ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। लेकिन धीरे-धीरे न सिर्फ सरकारी स्कूलों, बल्कि संपूर्ण शिक्षा क्षेत्र के प्रति सरकारी उदासीनता के कारण उनका पतन होता गया। फिर भी हर वर्ष देश भर में लाखों छात्र सरकारी विद्यालयों में दाखिला लेते हैं।

गौरतलब यह भी है कि हर निजी विद्यालय में छात्रों को उत्कृष्ट शिक्षा प्रदान नहीं की जाती है। उनमें से अधिकतर के लिए स्कूल चलाना ऐसा व्यवसाय है, जिसमें नुकसान की आशंका बिलकुल नहीं है। इसका मूल कारण यह है कि आम लोगों को भले ही अन्य खर्चों में कटौती करनी पड़े, वे बच्चों की पढ़ाई में कोई समझौता नहीं करना चाहते। यही वजह है कि जैसे-जैसे सरकारी स्कूलों की हालत जर्जर होने लगी, वैसे-वैसे शिक्षा का बाजारीकरण बढ़ता गया, हर गली-चौराहे में निजी विद्यालय खुलने लगे और सरकारी स्कूलों का भी हाल सरकारी अस्पतालों जैसा हो गया।

शिक्षा और स्वास्थ्य जिंदगी की दो मूलभूत सुविधाएं हैं, जिन्हें अपने नागरिकों को मुहैया कराना हर कल्याणकारी राज्य का दायित्व है। लेकिन यही वे दो क्षेत्र हैं, जहां सरकारी तंत्र की सबसे बड़ी विफलता पिछले कुछ दशकों में देखने को मिली। हर सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह सरकारी विद्यालयों को आधारभूत संरचना के अतिरिक्त हर वह सुविधा मुहैया कराए, जिससे उनमें दाखिला लेने के लिए समाज के हर तबके के छात्रों में होड़ मची रहे। हाल के वर्षों में दिल्ली में सरकारी स्कूलों के कायापलट होने से यह उम्मीद तो बंधी है कि राजनैतिक इच्छाशक्ति से परिस्थितियां बदली जा सकती हैं। अगर हर राज्य में हुक्मरान इस दिशा में गंभीर प्रयास करें तो किसी न्यायालय को यह जानने की जरूरत ही नहीं होगी कि सरकारी विद्यालयों में कितने सरकारी अधिकारियों के बच्चे पढ़ते हैं।

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