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गांधी कथा में असहमति

असहमति का आदर गांधी के लिए अपने विचारों पर दृढ़ता जैसा ही अहम था
जननायकः गांधी की गिरफ्तारी का एक नजारा, 1932 की एक पेंटिंग

अगर मानवता को आगे बढ़ना है तो गांधी ही रास्ता हैं। उन्होंने मानवता के उन विचारों को जिया जिससे विश्व में शांति और समरसता हो। हम जोखिम उठाकर ही उनकी उपेक्षा कर सकते हैं        -मार्टिन लूथर किंग जूनियर

 

गांधी के आलोचक, उनसे असहमति रखने वाले और विरोधी मेरे अध्ययन के बड़े विषय नहीं रहे हैं। यह सही है कि मैंने सरदार पटेल और राजाजी का कुछ विस्तार से अध्ययन किया है और ये दोनों गांधी से अक्सर असहमति रखने वाले उनके सहयोगी थे। मैंने अपनी किताब अंडरस्टैंडिंग द मुस्लिम माइंड के लिए जिन्ना का अध्ययन किया था, जो कुछ समय के लिए गांधी के सहयोगी थे, लेकिन लंबे समय तक विरोधी बने रहे। जबकि गफ्फार खान, जिनकी मैंने जीवनी लिखी है,  ताउम्र गांधी से रत्ती भर भी असहमति न रखने वाले सहयोगी बन रहे।

बहरहाल, गांधी को काफी करीब से देखने पर मुझे उनकी कहानी में असहमति के कई कतरे नजर आते हैं, जिसे वे माला की तरह धारण करते थे।

लंदन (1888-91) में अपनी पढ़ाई के दौरान गांधी वेजेटेरियन सोसायटी से जुड़े थे। इस सोसायटी के दो प्रख्यात महानुभावों अल्फ्रेड हिल्स और डॉ. थॉमस एलिन्सन के बीच एलिन्सन की बुक फॉर मैरिड विमेन को लेकर विवाद पैदा हो गया। किताब में कृत्रिम गर्भनिरोध की वकालत की गई थी। गांधी ने डॉक्टर को सोसायटी से निकालने की हिल्स की सोच का विरोध किया।

बकौल गांधी, ‘डॉ. एलिन्सन पहली ही लड़ाई हार गए थे,’ तो, ऐसे में गांधी खुद को ‘हारने वाले के साथ’ खड़ा पाए।

भारत छोड़ोः 1942 में मुंबई अधिवेशन में असहमत-सहमत कांग्रेस नेताओं के साथ

कुछ साल बाद, गांधी के दक्षिण अफ्रीका दौरे में, उनके एक नौजवान गोरा सहयोगी साइमंड्स ‘अक्सर मजाक में यह हिदायत दिया करता था कि ‘यदि गांधी को ...कभी भी बहुमत मिला’ तो वह अपना समर्थन वापस ले लेगा।’ 1906 में जब गांधी दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों की ओर से लंदन गए, तो साइमंड्स उन्हें वहां मिला। उसने गांधी के डिक्टेशन लिए, अनगिनत पत्र टाइप किए, उन पर टिकट चिपकाए और लिफाफे पोस्ट किए।

गांधी के शब्दों में, उसने ‘बिना कुछ लिए दिन-रात हमारे लिए काफी मेहनत की।’ कुछ ही समय बाद साइमंड्स की अचानक मृत्यु हो गई। कोई यह कह सकता है कि वह गांधी की असहमति के धागे में पिरोया प्यारा नगीना था।

1915 में भारत लौटने पर गांधी को न केवल असहमति, बल्कि विरोध का भी अंदाजा था। इंदुलाल याज्ञिक नाम के एक युवा गुजराती (जो उनका सहयोगी बना, लेकिन अक्सर उनकी आलोचना किया करता था) ने उनसे पूछा कि क्या वे भारत में सविनय अवज्ञा का भविष्य देखते हैं। गांधी ने जवाब दिया (1915 में) कि समय के साथ सविनय अवज्ञा का समर्थन बढ़ेगा लेकिन मैं यह भी देखता हूं कि ऐसा समय आ सकता है, जब सिद्धांतों पर अड़े रहने के कारण मुझे बड़ी संख्या में लोग बाहर फेंक देंगे- और ऐसा भी हो सकता है कि मुझे रोटी के टुकड़े के लिए दर-दर भटकना पड़े।

कुछ ही साल बाद गांधी के अभियान को वाकई भारी जनसमर्थन मिलने लगा। 1919 में अभिव्यक्ति पर पाबंदी जड़ने वाले रौलट एक्ट के खिलाफ सत्याग्रह और 1920-22 के असहयोग आंदोलन में लोगों की व्यापक भागीदारी देखी गई, जो हिंदू-मुस्लिम साझेदारी की भी गवाह बनी। असहयोग आंदोलन की चिंगारी की वजह जालियांवाला कांड सहित पंजाब में ब्रिटिश ज्यादती और मध्य-पूर्व (पश्चिम एशिया) यानी अरब जगत में ब्रिटिश नीतियां बनी थीं।

इसके साथ असहमति भी उभरी। मई 1921 में, टैगोर ने गांधी से आग्रह किया कि वे सिर्फ भारतीयों को ही एकजुट करने के अभियान के बदले पश्चिम और पूरब के मेल की कोशिश भी करें। उन्होंने ‘अपने लोगों में दूसरों के प्रति अलगाव की गहन चेतना’ के प्रति नाखुशी जाहिर की। टैगोर की समालोचना पर गांधी की प्रसिद्ध प्रतिक्रिया आई:

यंग इंडिया, 1 जून 1921:  मुझे आशा है कि मैं महान कवि की ही तरह खुली हवा का बड़ा समर्थक हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरा घर चारों ओर दीवारों से घिरा हो और खिड़कियां बंद रहें। मैं चाहता हूं कि धरती की हर संस्कृति की हवाएं मेरे घर में यथासंभव खुलकर बहें। लेकिन मैं यह भी नहीं चाहता कि हवा के किसी झोंके से मेरे पैर ही उखड़ जाएं। (गांधी वाङ्गमय, 20: 159).

सच्चाई चाहे जो हो, समूचे भारत में एक विचारोत्तेजक और खुली बहस चल पड़ी थी, जब पूरे भारत में असहयोग आंदोलन का ज्वार उफान पर था। लाखों लोग गिरफ्तार हुए, जो ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध और उसके कानून को अहिंसक तरीके से तोड़ रहे थे।

हालांकि, कमजोर पड़ता ज्वार, अनुशासनहीनता की वजह से, फौरन उतर गया जब गांधी ने असहयोग आंदोलन को मुल्तवी कर दिया। उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में गुस्साई भीड़ ने ब्रिटिश साम्राज्य की भारतीय पुलिस के 22 लोगों को मार डाला था।

इसके बाद हिंदू-मुस्लिम आरोप-प्रत्यारोप का खेल शुरू हो गया और ध्रुवीकरण की दिशा में एक लहर चल पड़ी। फिर भी अजमल खान, एम.ए. अंसारी, अबुल कलाम आजाद,  अब्दुल गफ्फार खान और जाकिर हुसैन जैसे मुस्लिम नेता गांधी और कांग्रेस के साथ बने रहे।

दो साल जेल में रहने के बाद गांधी 1924 में रिहा हुए तो दोनों ओर से उन्हें आलोचना सुनने को मिली। हिंदुओं का आरोप था कि ब्रिटिश साम्राज्य की मध्य-पूर्व नीतियों की वजह से नाराज मुसलमानों के पक्ष में गांधी जी के खड़े होने से ‘मौलवियों’ की प्रतिष्ठा बढ़ गई, जिन्होंने अब ‘हिंदुओं के खिलाफ एक तरह का जेहाद’ छेड़ दिया। मुसलमानों की शिकायत थी कि हिंदुओं ने चुपचाप ब्रिटिश राज की अदालतों, कॉलेजों और काउंसिल में लौटकर मुसलमानों के साथ धोखा किया, जबकि मुसलमान उससे बाहर ही बने रहे।

जवाब में गांधी ने मुसलमानों से आग्रह किया कि वे पंडित मालवीय, लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद जैसे हिंदू नेताओं को दुश्मन न समझें। हिंदुओं को भी मौलाना मुहम्मद अली और उनके बड़े भाई शौकत अली जैसे मुस्लिम नेताओं के बारे में यही सलाह दी।

गांधी ने पाया कि हर तरफ के नेताओं ने कई मौकों पर नासमझी भरी बातें कीं। इसलिए उन्होंने लोगों से कहा कि नेताओं से पूरी समझदारी भरी बातों की ही उम्मीद न करें। अली बंधु ‘गलतियों से ऊपर नहीं थे’। फिर भी, गांधी ने कहा, ‘मैं खुद दोषों से भरा हूं, इसलिए मैं उनकी दोस्ती बनाए रखने से मुकरा नहीं।’ (गांधी वाङ्गमय, 24: 147)।

अपनी मृत्यु से एक साल पहले 1927 में लाला लाजपत राय ने घनश्याम दास बिड़ला को एक पत्र में गांधी के बारे में लिखा था:

महात्मा गांधी शिष्टाचार सीखने के लिहाज से सबसे अच्छे व्यक्ति हैं। दुनिया में कुछ भी संपूर्ण नहीं होता है, लेकिन उनके शिष्टाचार में लगभग पूर्णता है। वे महान हैं, हम सभी से कुछ ऊंचे हैं, वे दोस्तों और सहकर्मियों के प्रति अपने व्यवहार को लेकर बहुत संजीदा हैं।

लाला लाजपत राय की इस बात में गांधी की असहमति का आदर करने की फितरत का भी महत्व हो सकता है।

1936 और 1937 में, गांधी एक तात्कालिक सवाल के लिए समाजवाद जैसे दीर्घकालिक लक्ष्य के मुद्दों पर तीखे, सार्वजनिक हुए मतभेदों को फिलहाल टालने के लिए नेहरू, पटेल, राजगोपालाचारी, आजाद और प्रसाद जैसे नेताओं को राजी करने में सफल रहे। यह तात्कालिक सवाल था कि: क्या कांग्रेस को केंद्र में ब्रिटिश हुकूमत की सरकार के अधीन प्रांतीय सरकारें संभालनी चाहिए? इस पर भी असहमतियां थीं मगर एकजुटता भी बनी और अधिकांश प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें बनीं।

लेकिन 1939 की शुरुआत में गांधी का जादू साफ-साफ नाकाम होने लगा। तब यूरोप में युद्ध के बादल मंडराने लगे थे, साल भर पहले गांधी के समर्थन से कांग्रेस अध्यक्ष बने सुभाष बोस ने दोबारा अध्यक्ष का चुनाव न लड़ने की गांधी की सलाह नहीं मानी। बोस दोबारा चुनाव लड़े और प्रांतीय सरकारों से कांग्रेस के हटने का भी आह्वान कर दिया।

वे तेलुगु प्रांत के पट्टाभि सीतारमैया को हराकर दोबारा चुने गए, जबकि सीतारमैया को गांधी का समर्थन हासिल था। कांग्रेस बंट गई। हालांकि, अधिकांश पार्टी गांधी के साथ बनी रही, जबकि बोस और उनके अनुयायियों ने कांग्रेस छोड़कर फॉरवर्ड ब्लॉक बना ली।

कांग्रेस से बोस की विदाई से गांधी की असहमति के धागे में एक अप्रिय गांठ पड़ गई। अध्यक्ष पद का चुनाव जीते बोस को अपनी योजना के हिसाब से पार्टी न चलाने देना काफी हद तक लोकतांत्रिक नहीं था। दूसरी ओर, 1939 में मुश्किल विकल्प चुनने को मजबूर कांग्रेस ने बोस के साथ जाने के बदले गांधी को चुनकर शायद अधिक दूरदर्शिता का परिचय दिया हो सकता है, क्योंकि तब लोकतंत्र बनाम फासीवाद का वैचारिक युद्ध दूसरे विश्व युद्ध का रूप ले रहा था।

अगस्त 1942 में मुंबई कांग्रेस अधिवेशन में गांधी के ‘भारत छोड़ो’ आह्वान को भारी समर्थन मिला, तो सोवियत संघ के प्रति सहानुभूति रखने वाले 13 कांग्रेसियों के छोटे समूह ने इसके खिलाफ मतदान किया। गांधी ने मतदान के बाद असहमति रखने वाले लोगों की बात से शुरुआत की। उन्होंने कहा, “मैं इस प्रस्ताव के खिलाफ मतदान करने वाले 13 साथियों को बधाई देता हूं।” (गांधी वाङ्गमय, 76: 384)।

तीन साल बाद जब जर्मनी और जापान की हार हुई तो भारत छोड़ो आंदोलन के हजारों सेनानियों को जेल से रिहाई मिली। आजादी अब कुछ समय की बात थी (और देश विभाजन भी)। फरवरी 1946 में जब अति-उत्साही देशभक्तों ने जोर देकर कहा कि सड़क पर चलते हर आदमी को ‘जय हिंद’ का नारा लगाना चाहिए, तो गांधी ने इस पर तुरंत आपत्ति जताई और कहा,

एक भी व्यक्ति को ‘जय हिंद’ या कोई भी लोकप्रिय नारा लगाने को मजबूर किया जाता है, तो भारत के लाखों बेजुबानों के संदर्भ में वह स्वराज की ताबूत में एक कील साबित होगा। (गांधी वाङ्गमय, 83: 171)

राष्ट्रीय स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं थी। जैसा कि गांधी ने पाया, हर भारतीय को स्वतंत्र होना था, असहमति जाहिर करने को आजाद होना है। राम नाम का जाप करने वाले गांधी ने आजादी से दो महीने पहले कहाः

अगर कोई मेरे पास आए और कहे कि, ‘रामनामा जपो, वरना यह तलवार देख लो!’ तब मैं  खुलकर कहूंगा मैं तलवार की नोक पर रामनामा का जाप नहीं करूंगा... अगर कोई मेरे पास आए और तलवार की नोंक पर मुझसे कलमा पढ़ने को कहे, तो मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा। मैं जान देकर भी अपने विचारों की रक्षा करूंगा। (दिल्ली, 16 जून 1947; गांधी वाङ्गमय, 88: 162-63)

आजादी से कुछ समय पहले त्रावणकोर के महाराजा चितिराय तिरुनल (वह रियासत जो केरल के लिए दक्षिणी आधारशिला की तरह थी) और उनका दीवान त्रावणकोर को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करने की सोच रहे थे।

कानून में पारंगत दीवान सी.पी. रामास्वामी अय्यर (1879-1966) देश के सबसे तेज बुद्धि शख्सियतों में एक थे। तीन दशक पहले, जब एनी बेसेंट अध्यक्ष थीं, तो वे कांग्रेस के महासचिव थे। गांधी के सहयोगी से अधिक आलोचक रहे रामास्वामी मद्रास और दिल्ली में बतौर मेंबर ऑफ लॉ ब्रिटिश सरकार की काउंसिल से जुड़ गए।

1936 में त्रावणकोर के महाराजा ने राज्य के मंदिरों के दरवाजे सदियों के बहिष्कृत दलितों के लिए खोल दिए। महाराजा के इस फैसले को गांधी सहित व्यापक प्रशंसा मिली। उस वक्त अय्यर को त्रावणकोर का दीवान बने अधिक समय नहीं हुआ था।

हालांकि, 11 जून 1947 को अय्यर ने घोषणा की कि ब्रिटेन से सत्ता हस्तांतरण होते ही त्रावणकोर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर देगा। उन्होंने पाकिस्तान के लिए त्रावणकोर का एक एजेंट भी रख दिया, जबकि पाकिस्तान का अभी अस्तित्व में आना बाकी था। महाराजा ने एक महीने बाद 11 जुलाई को रेडियो पर घोषणा की: ‘15 अगस्त, 1947 से... त्रावणकोर अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता फिर से पूर्ण रूप से पा लेगा।’

हालांकि, जल्दी ही हकीकत का एहसास हुआ और 30 जुलाई को महाराजा ने आखिरी ब्रिटिश वायसराय माउंटबेटन को जानकारी दी कि वे भारत में विलय सं‌िध पर हस्ताक्षर करेंगे। पांच दिन पहले 25 जुलाई को किसी ने अय्यर पर चाकू से हमला किया, लेकिन दीवान के मोटे अंगवस्‍त्रम ने उनकी जान बचा ली। 14 अगस्त को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। पांच दिनों बाद उन्होंने त्रावणकोर छोड़ दिया।

आजादी के खुरपेंच से चिंतित गांधी को पहले हमले की कहानी पर भरोसा नहीं हुआ। लेकिन उन्होंने कोलकाता से 27 अगस्त को अय्यर को जो माफीनामे की चिट्ठी लिखी, वह भी असहमति के आदर की उनकी माला में चमकता नग है:

आप मुझे देर से जाहिर की गई इस चिंता के लिए माफ करेंगे... मैं त्रावणकोर के बारे में आपके रवैए से चिंतित था...। जब मैंने आप पर हमले के बारे में सुना, तो मैंने उसे खास तवज्जो नहीं दी। ‘यह मामूली खरोंच ही होगा, शायद कोई रचा हुआ मामला।’ लेकिन कृष्णा हुथीसिंग और मणिबेन ने  हमले की गंभीरता बताकर मेरी आंखें खोल दीं, मैं अपने अविश्वास पर हैरान हूं। इसके लिए मुझे क्षमा करें। (गांधी वाङ्गमय, 89: 96)

*****

जब स्वतंत्रता और विभाजन की बेला करीब आई, तो तीन दशक तक स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई लड़ने वाला बुजुर्ग महज एक अकेले की सेना बनकर रह गया था।

विभाजन के महत्वपूर्ण सवाल पर उनकी सलाह को ठुकरा दिया गया। गफ्फार खान को छोड़कर उनके सभी प्रमुख सहयोगियों- नेहरू, पटेल, सी.आर., प्रसाद, आजाद, कृपलानी- सभी ने विभाजन का समर्थन किया। सबसे अधिक दृढ़ता से समर्थन तो पटेल ने किया। उन्होंने भारत को एक बनाए रखने के लिए गांधी के अंतिम प्रस्ताव को पूरी तरह खारिज कर दिया, कि जिन्ना को रजामंद शर्तों के साथ देश के प्रधानमंत्री पद की पेशकश की जानी चाहिए।

गांधी ने तीस वर्षों तक अपने जिन कनिष्ठ सहयोगियों का मार्गदर्शन किया, उनसे दो-टूक इनकार सुनने के बाद उन्होंने उनकी असहमति के बावजूद उनका साथ दिया। ... वे लोग भारत का राज चलाने वाले थे, न कि वे खुद। वे उन्हें कमजोर नहीं करेंगे।

बहरहाल, वे अपने विचारों पर हमेशा अडिग रहे लेकिन वे यह भी जानते थे कि वे नाकाम नहीं हो सकते। 1909 में ही उन्होंने हिंद स्वराज में लिखा था: ‘कोई भी आदमी खुद को पूरी तरह सही होने का दावा नहीं कर सकता है या यह कि कोई विशेष बात इसलिए गलत है, क्योंकि वह ऐसा मानता है।’

अपवाद ही सही, हालांकि वह असीमित नहीं था, लेकिन गांधी का असहमति का आदर मनुष्य की अपूर्णता को भी एक मायने में स्वीकार करना है।

(लेखक इतिहासकार और प्रोफेसर और महात्मा गांधी के पोते हैं)

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