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आवरण कथा/परिचर्चा: “दलित हर देश और समाज में हैं”

भारतीय विद्वान डॉ. सूरज येंग्ड़े और उनके मेंटॉर अफ्रीकी-अमेरिकी दार्शनिक और बौद्धिक प्रो. कॉर्नेल वेस्ट एक लंबी दलित-अश्वेत एकजुटता की परंपरा से आते हैं। यहां दोनों ने भावी आजादी, इसके संभावित आकार, ढांचे और रंग पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। आउटलुक के सुनील मेनन के साथ वीडियो चर्चा में बी.आर. आंबेडकर और डू बॉयस जैसे राजनीतिक विचारकों के संबंधों के परिप्रेक्ष्य में हमने उन्हें अश्वेत जीवन के महत्व (ब्लैक लाइफ मैटर्स) और दलित जीवन के महत्व पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया था। चर्चा के मुख्य अंश डॉ. येंग्ड़े और प्रो. वेस्ट के बीच वार्ता के रूप में प्रस्तुत हैं -
डॉ. सूरज येंग्ड़े,  प्रो. कॉर्नेल वेस्ट

सूरज येंग्ड़ेः  प्रोफेसर वेस्ट, आप प्रिंसटन में हैं और मैं कैंब्रिज, मैसाचुसेट्स में। इन दोनों संस्थानों की अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक पूंजी है। आज के ध्रुवीकरण के संदर्भ में हम इस विषय पर कैसे चर्चा करेंगे, खासकर अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड आंदोलन और भारत में दलित आंदोलन के सामने आए संकट को देखते हुए?

 कॉर्नेल वेस्टः  आज हम अमेरिका के एक ऐसे अनोखे ऐतिहासिक क्षण में हैं जहां आध्यात्मिक और नैतिक पतन हो रहा है। हम इतने निचले स्तर पर पहुंच गए हैं की इसकी लोकतांत्रिक परंपरा के श्रेष्ठ गुणों को हासिल नहीं कर पा रहे। दूसरी तरफ चीनी साम्राज्य है जो अस्पष्ट लेकिन दमनकारी है। वह अपना आर्थिक प्रभुत्व बढ़ा रहा है और महामारी की बेशुमार मुश्किलों के बीच खुद को खड़ा करने की कोशिश कर रहा है। भारत और रूस संभलने की कोशिश कर रहे हैं। ब्राजील भी कुछ वैसा ही कर रहा है। इंग्लैंड और फ्रांस अहम तो हैं, लेकिन अनेक मामलों में उनकी मौजूदगी मामूली है। इसलिए मौलिक बदलाव चुनिंदा देशों में ही हो रहे हैं। यहां दमन और आधिपत्य के साथ प्रतिरोध और आलोचना भी है। आप इसे दलित भाइयों और बहनों की समृद्ध विरासत के नजरिए से देखते हैं।

 सूरज येंग्ड़ेः  आज 21वीं सदी में हम 100 साल बाद आंबेडकर और डू बॉयस की राजनीति को फिर से गुंजायमान देख रहे हैं। यह कोई संयोग नहीं कि आंबेडकर और डू बॉयस में अनेक समानताएं थीं। एक तरफ अमेरिका में नागरिक अधिकार का आंदोलन है तो दूसरी तरफ भारत में दलितों का भूमि अधिकार का आंदोलन। भारत में दलित सबसे भूमिहीन हैं। यहां 77 फीसदी दलितों के पास कोई जमीन नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो वे भारत में स्थायी रूप से रिफ्यूजी की तरह हैं। यह नए विनियोग का युग है, जहां नव उदारवादी संगठन अंतर्राष्ट्रीय नामों से विकास की राजनीति करते हैं। गरीबों और शोषितों की दुनिया से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। गरीब जो फसल उगाते हैं, अगर उससे उनका ही पेट न भरे तो फसल उगाने के लिए उनके कर्ज लेने का कोई मतलब नहीं है।

कॉर्नेल वेस्टः  यह सही है। मेरे विचार से आंबेडकर और डू बॉयस की बौद्धिक महानता और उनकी आध्यात्मिक तथा नैतिक महानता साथ-साथ चलती है। बौद्धिक महानता वह है जब आप सच बोलते हैं, कमजोर वर्ग की परेशानियों को महसूस करते हैं। नैतिक महानता आपको पीड़ितों के साथ एकजुट करती है। इसके लिए साहस और जोखिम लेने की जरूरत पड़ती है। आंबेडकर और बॉयस ने काफी जोखिम लिया। आध्यात्मिक महानता एक बेहतर विश्व के विजन और कल्पनाशीलता से जुड़ी है। हम दोनों ने साथ काम किया, संघर्ष किया, पढ़ाया। मैंने आपकी पुस्तक कास्ट मैटर्स की प्रस्तावना लिखी। मेरी पुस्तक रेस मैटर्स के साथ देखा जाए तो आंबेडकर और बॉयस की विरासत यहां झलकती है। हमें जाति, नस्ल और रंग से जुड़ी किसी भी बात को पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के संदर्भ में जोड़ कर देखना होगा।

सूरज येंग्ड़ेः  कास्ट मैटर्स की प्रस्तावना में आपने लिखा है कि 21वीं सदी में गांधी हमारे उतने करीब नहीं जितने आंबेडकर और बॉयस हैं। शुरुआत में अश्वेत-दलित एकजुटता सही प्रतीत हुई, लेकिन आज मुद्दे भले वही रहें लेकिन नजरिया बदल गया है। आज दलित बस्ती से निकले मुझ जैसे अधिक से अधिक लोग शिक्षण और उन संस्थानों में आना चाहते हैं जहां आप अधिकारसंपन्न हो सकते हैं। इसी से अधिकार का सवाल भी उत्पन्न होता है कि हम इसका इस्तेमाल कैसे करते हैं। आंबेडकर ने राजनीतिक अधिकार के महत्व पर जोर दिया है। वे बड़े स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जब तक आपके पास राजनीतिक अधिकार नहीं है, तब तक आप आवश्यक बदलाव नहीं ला सकते।

कॉर्नेल वेस्टः  मेरे विचार से दलित भाइयों और बहनों की दुर्दशा एवं अवस्था को समझे बिना सत्य की बौद्धिक तलाश, अच्छाई की आध्यात्मिक तलाश या संवेदना की नैतिक तलाश नहीं हो सकती। यह ठीक उसी तरह है जैसे अमेरिका में अश्वेतों की दुर्दशा को समझे बिना सत्य, अच्छाई और सौंदर्य की बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक तलाश पूरी नहीं हो सकती। इसका मतलब यह है कि हमें अमेरिका और भारत के अतीत और वर्तमान में प्रभुत्व के स्रोतों के बारे में स्पष्ट होना पड़ेगा। आपको ब्रिटिश साम्राज्य, उसका विरोध, परभक्षी पूंजीवाद और नव साम्राज्यवाद के बारे में कहना पड़ेगा। आपको पितृसत्ता की बात बतानी पड़ेगी। आपको हर उस प्रभुत्व की बात कहनी पड़ेगी जो दलितों के सम्मानजनक जीवन में बाधक है। तभी हम अपने पूर्वजों के कष्ट और उनके प्रतिरोध को सही साबित कर सकेंगे।

सूरज येंग्ड़ेः  प्रोफेसर वेस्ट, आप मार्क्सवाद की भाषा बोलते हैं इसलिए लोग आपको मार्क्सवादी विचारक कह सकते हैं। अगर मैं भी उसी भाषा का इस्तेमाल करूं, कामगार वर्ग की एकजुटता या गरीबों के संघर्ष की बात कहूं, तो मुझे भी मार्क्सवादी विचारक कहा जाता है और उसकी तीखी प्रतिक्रिया भी होती है। तब यह बात गौण हो जाती है कि आप वास्तव में मार्क्सवादी हैं या नहीं। आप इस संवाद को कैसे देखते हैं? मैं यहां आंबेडकर का भी जिक्र करना चाहूंगा। वे मार्क्स के कटु आलोचक थे, क्योंकि वे हिंसा का इस्तेमाल करने की मार्क्सवादी विचारधारा से असहमत थे। इसलिए उन्होंने मार्क्स के विपरीत बुद्ध को रखा। वे कहते थे कि दोनों गरीबी और कष्ट के उन्मूलन की बात कहते हैं। उसी तरह आप भी ईसा मसीह की तरफ देखते हैं।

 कॉर्नेल वेस्टः  हर व्यक्ति को अपने आप से सच बोलना चाहिए। कार्ल मार्क्स स्वयं 19वीं सदी के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष पैगंबरों में एक थे, क्योंकि उन्हें कामगार वर्ग पर थोपी गई अनावश्यक सामाजिक दुश्वारियों की चिंता थी। मैंने उनसे यह बात सीखी है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं मार्क्सवादी बन जाता हूं। मैं पूंजीवाद को लेकर चिंतित हूं क्योंकि यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें एक तरफ कामगारों का बड़ा वर्ग है जिनका शोषण किया जाता है, और दूसरी तरफ वह बॉस है जो किसी भी बात के प्रति जवाबदेह नहीं है। यही बात राष्ट्रवाद पर भी लागू होती है। मैं अपनी जड़ों की कमजोरियों का आलोचक हूं, लेकिन मेरी जड़ें ही मुझे दलित भाइयों एवं बहनों, भारत के कामगार वर्ग, हमारे कश्मीरी भाई-बहनों, ब्राजील के भूमिहीन किसानों, रूस के यहूदियों, कनाडा, अमेरिका और लैटिन अमेरिका के मूल निवासियों के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा होने के योग्य बनाती हैं।

सूरज येंग्ड़ेः  अगर हम अमेरिका की बात करें तो वहां अल्पसंख्यकों का एक दक्षिण एशियाई या भारतीय मॉडल है। युवा पीढ़ी अपने नस्ली पालन-पोषण और अश्वेत की समस्या के साथ बड़ी हो रही है। मेरे विचार से उससे बाहर निकलना चाहिए। लेकिन जैसा कि हम देखते हैं, हिंदू समुदाय का रिपब्लिकन को बड़ा समर्थन है। हिंदुत्व 19वीं सदी में आया, उससे पहले ब्राह्मणवाद था। ब्राह्मण श्रेष्ठता के विचार को उन्होंने अपनी परंपराओं से हमेशा आगे बढ़ाया। हमारे यहां करीब 10,000 जातियां हैं, हर जाति में उपजातियां हैं और हर उपजाति के अपने देवता हैं। सबकी पूजा की अपनी विधि है, उनके अपने पूर्वज हैं जिनके सामने वे शीश नवाते हैं। लेकिन अमेरिका में उनके बीच एकजुटता के लिए सिर्फ हिंदू पहचान काफी है। हालांकि वहां भी निजी जीवन में कोई भी जाति दूसरी जाति के तौर-तरीके नहीं अपनाती। उनमें काफी अंतर होता है। लेकिन अब वहां भी अलग-अलग स्तर पर जातिभेद सामने आने लगे हैं। सच तो यह है कि दलितों का शोषण किसी एक देश की बात नहीं। मुझे इसका एहसास दक्षिण अफ्रीका में हुआ। वहां जिन लोगों को गुलाम बनाकर अटलांटिक के पार भेजा गया, वे पश्चिमी अफ्रीका की सबसे नीची जाति के लोग थे। अफ्रीका के ये दलित गुलामों के व्यापार के शिकार बने। इसलिए मैं इस विषय को वैश्विक दलित और वैश्विक ब्राह्मण के रूप में देखता हूं। ब्राह्मण और दलित वर्ग हर समाज में हैं, हम सिर्फ उन्हें अलग-अलग नामों से बुलाते हैं।

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