नेपाल और दक्षिण एशिया के संदर्भ में लोकतांत्रिक विरोध की परंपरा पुरानी है। समय–समय पर यहां जनता सड़कों पर उतरती रही है। इसने लोकतंत्र की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाई है। मेरे अपने अनुभव और अवलोकन में यह साफ दिखता है कि हमारे समाज में लोकतांत्रिक चेतना अपेक्षाकृत मजबूत रही है। यही कारण है कि बार–बार हम यहां आंदोलनों और जनविरोध की आवाज देखते हैं।
नेपाल के आंदोलनों की शृंखला को देखें, तो हर दशक में युवाओं की सक्रिय भागीदारी नजर आती है। 1990 का आंदोलन शांति पर आधारित था और उसे राजनैतिक दलों ने मिलकर आगे बढ़ाया। समाजवादी और वामपंथी धारा एक साथ आई और उसने लोकतंत्र को नई दिशा दी। 1996 से शुरू हुआ माओवादी आंदोलन हिंसक था, लेकिन उसका भी असर अंततः 2006 के जनआंदोलन द्वितीय तक पहुंचा। वह आंदोलन भी राजनैतिक दलों की अगुआई में हुआ और उसने नेपाल की राजनीति को बदल दिया। इन दो आंदोलनों के बीच का अंतर यही था कि पहला अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण था और दूसरे ने हिंसक दौर को समाप्त करते हुए लोकतंत्र को स्थिरता की ओर ले जाया।
1979 में जब पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो की हत्या हुई, तब नेपाल में भी युवाओं ने सड़कों पर उतरकर विरोध दर्ज किया। यह विरोध हिंसक भी हुआ क्योंकि उस समय की सत्ता ने उसे कठोरता से दबाने की कोशिश की। उसके नतीजे में तत्कालीन पंचायती शासन को यह विकल्प देना पड़ा कि या तो यह व्यवस्था जारी रहे या बहुदलीय लोकतंत्र लागू हो। उसके बाद, जनमत संग्रह हुआ लेकिन लोकतंत्र को हारा हुआ घोषित किया गया और एक दशक तक वही व्यवस्था जारी रही।
यहां यह स्पष्ट है कि युवाओं ने बिना किसी राजनैतिक दल की सक्रिय लामबंदी के साथ स्वतःस्फूर्त होकर सड़क पर उतरने की ताकत दिखाई। यह आंदोलन पूरी तरह युवाओं ने शुरू हुआ। इसमें अलग–अलग तरह की चिंताएं, शिकायतें, असंतोष और गुस्सा शामिल थे। विविध मुद्दों ने मिलकर एक साझा आवाज तैयार की। यही विविधता उसकी ताकत बनी। युवाओं ने उसे गति दी और देखते ही देखते यह पूरे देश में फैल गया।
अब सवाल यह है कि डिजिटल युग में इन आंदोलनों की प्रकृति कैसी हो गई है। पहले जब हम विरोध करते थे, तो सूचना फैलाने के साधन सीमित थे। आज तकनीक ने स्थिति बदल दी है। अब सोशल मीडिया पर एक हैशटैग या एक वायरल वीडियो पूरे समाज को तुरंत जोड़ देती है। युवाओं के लिए सोशल मीडिया ऐसा मंच बन चुका है जहां वे अपनी नाराजगी और गुस्से को तुरंत साझा कर सकते हैं। पुराने दौर में आंदोलन को आकार लेने में समय लगता था।
तकनीक के कारण एक और बदलाव आया है। डिजिटल माध्यमों ने नेताओं की जिंदगी को पारदर्शी बना दिया है। नेता चुनाव के समय कहते हैं कि वे जनता की सेवा के लिए हैं, लेकिन जनता तुरंत देख लेती है कि उनके बच्चे किन स्कूलों में पढ़ते हैं, कौन-सी गाड़ी चलाते हैं, कौन-से बैग लेकर चलते हैं।
युवा इन तस्वीरों की अपनी सामाजिक-आर्थिक हकीकत से तुलना करते हैं। वे देखते हैं कि एक ओर देश में गरीबी और बेरोजगारी है, वहीं नेता ऐशो-आराम का जीवन जी रहे हैं। इस पारदर्शिता और सामाजिक असमानता के बीच का विरोधाभास युवाओं के गुस्से को और भड़काता है। नेपाल में यही हुआ।
दक्षिण एशिया की बात करें, तो यहां अब भी सामंती मानसिकता मौजूद है। बड़ी गाड़ियां, सुरक्षाकर्मी और आलीशान मकान सत्ता का प्रतीक माने जाते हैं। लेकिन नई पीढ़ी इस मानसिकता से परिचित नहीं है। वे पश्चिमी समाजों से तुलना करते हैं, जहां सामंतवाद इतिहास बन चुका है। इसीलिए उनका गुस्सा और बढ़ जाता है। फिर भी, डिजिटल संदर्भ को केवल साधन भर मानना चाहिए। आंदोलन की आत्मा वही रहती है, सिर्फ उसे व्यक्त करने के माध्यम बदलते जाते हैं। 1990 के दशक में आंदोलन में शामिल युवाओं की बेचैनी और आज के युवाओं की बेचैनी अलग नहीं है। फर्क सिर्फ यह है कि आज उनके हाथों में तकनीक है। नेपाल में युवाओं के विरोध का चरित्र दिखाता है कि वे केवल राजनैतिक दलों पर निर्भर नहीं हैं। जब वे असंतुष्ट होते हैं तो खुद सड़क पर उतर आते हैं। यही उनकी ताकत है। ।
युवाओं का विरोध अक्सर ज्यादा तीव्र और कभी–कभी हिंसक भी हो जाता है। इसका कारण उनका गुस्सा और अधीरता होती है। वे बदलाव तुरंत चाहते हैं और जब सत्ता उन्हें दबाने की कोशिश करती है तो प्रतिक्रिया और भी उग्र हो जाती है। यही ऊर्जा अंततः राजनैतिक परिवर्तन का कारण बनती है।
नेपाल की लोकतांत्रिक यात्रा इस बात का प्रमाण है कि युवाओं की शक्ति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे हर दौर में विरोध और बदलाव के केंद्र में रहे हैं। आने वाले समय में भी जब तक असंतोष और शिकायतें रहेंगी, तब तक यह परंपरा जारी रहेगी। बस माध्यम बदलते रहेंगे, लेकिन युवाओं की आवाज और ऊर्जा हमेशा समाज को हिलाने की क्षमता रखेगी।
(लेखक भारत-नेपाल संबंधों के विशेषज्ञ और राजनीतिक समाजशास्त्री हैं। विचार निजी हैं।)