Advertisement

नए राज्य/दो दशक/उत्तराखंड: विकास जमीन नहीं छूता

रोजगार और जमीनी योजनाओं के अभाव में लगभग 1,100 गांव आबादी विहीन, दोहन से पहाड़ हुए खोखले
दोबरा-चांथी पुल

उत्तर प्रदेश से अलग होकर 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य बना था। जाहिर है, उम्र के लिहाज से यह प्रदेश अब बालिग हो चुका है। उस वक्त माना गया था कि छोटे राज्य बनने से विकास की गति को रफ्तार मिलेगी। लेकिन बीस साल का सफर यह दर्शाने के लिए काफी है कि यहां जमीनी हकीकत से ज्यादा जुमलों पर काम किया गया है। मौजूदा त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने जनभावनाओं के अनुरूप गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया है,  लेकिन गैरसैंण में स्थायी राजधानी का मसला कोई भी सरकार हल नहीं कर सकी है।

राज्य गठन के वक्त उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था तकरीबन साढ़े चौदह हजार करोड़ रुपये की थी। अब यह ढाई लाख करोड़ के पार पहुंचने जा रही है। प्रति व्यक्ति सालाना आय पंद्रह हजार रुपये से बढ़कर दो लाख रुपये हो गई है। प्रदेश का सालाना बजट शुरू में महज चार हजार करोड़ रुपये का था, अब यह पचास हजार करोड़ के आंकड़े को पार कर रहा है। उत्तराखंड की विकास गति अन्य छोटे राज्यों की तुलना में बेहतर मानी जा सकती है। प्रदेश की औसत विकास दर 10 प्रतिशत रही है, जो छह-सात प्रतिशत की राष्ट्रीय विकास दर की तुलना में ज्यादा है।

उत्तराखंड के दो दशक के सफर को तरक्की के आईने में देखें तो कुछ सकून महसूस हो सकता है। लेकिन यह सुकून उस वक्त काफूर हो जाता है जब राज्य के अलग-अलग हिस्सों से स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में कभी किसी युवा की अकाल मौत तो कभी जच्चा-बच्चा की जान जाने की खबर आती है। विकास की इस रफ्तार पर सकून का तो तब कोई कारण नहीं रह जाता जब पता चलता है कि बेहतर शिक्षा व्यवस्था न होने के कारण तीस फीसदी से अधिक लोग अपने घर और गांव से पलायन कर रहे हैं। इस तरक्की पर उस वक्त भी यकीन नहीं होता, जब बेरोजगारी से जूझते और अवसाद से घिरे युवाओं की भीड़ से सामना होता है। प्रति व्यक्ति सालाना आय के बड़े आंकड़े उस वक्त बेमानी हो जाते हैं जब कर्ज में डूबे किसान या व्यापारी की आत्महत्या की खबर आती है।

अब तक की सरकारों ने राज्य को विकास के पथ पर आगे ले जाने के लिए अपनी-अपनी तरह से कोशिशें की हैं, फिर भी यहां की लगभग 66.6 फीसदी ग्रामीण आबादी को पूरी राहत नहीं मिल सकी है। दुर्गम पर्वतीय और जंगल क्षेत्रों में रहने वाले पर्वतीय मूल के लोगों तक बिजली, सड़क, पानी, बेहतर स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा पहुंचाना एक बड़ी चुनौती है। पिछड़े पर्वतीय अंचलों का विकास आज भी चुनौती बना हुआ है।

राज्य के आंदोलनकारियों और शहीदों के सपने आज भी सपने ही हैं। 20 वर्ष की यात्रा में पांच सरकारें और नौ मुख्यमंत्री भी पहाड़ी लोगों के भरोसे को पूरी तरह से जीत नहीं पाए। अब तक की सरकारों ने इसे कभी ऊर्जा प्रदेश नाम दिया तो कभी आयुष तो कभी पर्यटन प्रदेश का, लेकिन हकीकत में इस दिशा में जमीन पर कोई काम नहीं किया गया।

टिहरी झील से बिजली पैदा हो रही है और पर्यटन बढ़ने की बात की जा रही है। इस झील के आसपास बने गांवों के पुनर्वास का काम 1998 से ही शुरू हो गया था। बहुत-से लोगों को बसाया भी गया। लेकिन अब भी करीब 45 ऐसे गांव हैं जो टिहरी बांध का खमियाजा भुगत रहे हैं। पुनर्वास का इंतजार 20 वर्ष से अधिक का हो चुका है। केंद्र की चारधाम सड़क परियोजना से राज्य सरकार बेहद उत्साहित है। उम्मीद है कि पहाड़ों को काट कर बनाई जा रही चौड़ी सड़कों से गुजर कर पर्यटक यहां का सौंदर्य देखने आएंगे। केदारनाथ-बदरीनाथ समेत चार धामों की पूरे साल यात्रा की जा सकेगी। लेकिन हिमालय प्रेमी इसे विकास का नहीं, विनाश का प्रतीक मानते हैं। हिमालयी जल स्रोत पहले ही सूख रहे थे। बेतरतीब पहाड़ काटने और मलबा उड़ेलने से सैकड़ों जलस्रोत खत्म हो गए। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन पहाड़ के लिए लाइफ लाइन साबित होने वाली है। इसे 2024 तक पूरा करने का लक्ष्य है। लेकिन काम की गति के मद्देनजर शायद ही वक्त पर पूरा हो सके।

पलायन की समस्या पहले से ज्यादा गंभीर हो चुकी है। सरकार ने विधानसभा में स्वीकार किया कि राज्य के लगभग 1,100 गांव आबादी विहीन हो चुके हैं। मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना, सोलर स्वरोजगार योजना जैसी योजनाओं को लेकर त्रिवेंद्र सरकार युवाओं से राज्य में ही रहने की अपील कर रही है। लेकिन लोगों का कहना है कि युवाओं को गांव में रोकने की योजनाएं धरातल पर काम नहीं कर रही हैं। सरकार कहती है कि स्वरोजगार के लिए आसान कर्ज देंगे, लेकिन बैंक तो पूरी औपचारिकता करवा रहे हैं और जमानती भी मांग रहे हैं। जमीन के कागजात गिरवी रखने को कह रहे हैं।

लॉकडाउन के समय गांव आए बहुत से नौजवान कशमकश में हैं कि अपने बंजर खेत जोतें या नौकरी की तलाश में फिर बाहर चले जाएं। पलायन आयोग के अनुसार कोविड महामारी के दौरान उत्तराखंड लौटे पौने चार लाख लोगों में से एक लाख फिर वापस जा चुके हैं। सरकार फसलों को जंगली जानवरों से ही सुरक्षित नहीं कर पाई। बंदरों और सूअरों की समस्या के चलते गांव खाली हो गए।

नीति आयोग की स्वास्थ्य से जुड़ी रिपोर्ट में पांच सबसे खराब राज्यों में उत्तराखंड का नाम शामिल है। एक आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तराखंड स्वास्थ्य के मामले में समान भौगोलिक परिस्थतियों वाले राज्य हिमाचल प्रदेश से काफी पीछे है। हिमाचल के 62 अंकों के मुकाबले उत्तराखंड के मात्र 36 अंक हैं। यह राष्ट्रीय औसत 58 से भी नीचे है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) की ओर से मार्च 2019 तक किए गए सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में बेरोजगारी दर 4.2 है। 2003-04 में यह दर मात्र 2.1 प्रतिशत थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि प्रदेश में किसी न किसी तरह के रोजगार में लगे लोगों की संख्या (वर्क पार्टिसिपेशन) महज 45 प्रतिशत है। राज्य के गठन से अब तक बेरोजगारों की संख्या लगभग 10 गुना बढ़ गई है। हर साल एक लाख से ज्यादा युवा बेरोजगारों की सूची में शामिल हो रहे हैं।

राज्य की आमदनी बढ़ाने के लिए सरकार के पास केवल आबकारी और खनन जैसे स्रोत हैं। बाकी आय के लिए केंद्र सरकार, विश्व बैंक और एडीबी की मदद पर निर्भर रहना पड़ रहा है। राज्य को अपने जरूरी कामों के लिए भी हर साल बाजार से कर्ज लेना पड़ रहा है। पर्यटन, पनबिजली उत्पादन और उद्योग को लेकर बातें तो बहुत हो रही हैं, पर जमीन पर काम ज्यादा नजर नहीं आ रहा है। उद्योगों ने एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा निवेश के करार किए हैं, लेकिन इनकी स्थापना होना बाकी है। पूर्ववर्ती एन.डी. तिवारी की सरकार के समय मैदानी क्षेत्रों में स्थापित सैकड़ों उद्योगों से ही उस दौर में राज्य की आय में खासी बढ़ोतरी हुई थी। उसके बाद से राज्य में उद्योग स्थापना की रफ्तार खासी धीमी है।

उत्तराखंड की राजनीति में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ही प्रभावी हैं। हर पांच साल बाद इन्हीं में से कोई दल सत्ता में आ जाता है। उत्तराखंड के गठन के समय सक्रिय उत्तराखंड क्रांति दल आज राजनीति में हाशिये पर है। विपक्ष में रहने वाली पार्टी चुनाव के वक्त सत्तारूढ़ दल पर घोटालों के आरोप लगाती है और सत्ता में आने पर उन्हें भूल जाती है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों ने एक-दूसरे की सरकारों पर गंभीर आरोप लगाए, लेकिन एक भी मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई। शायद यही वजह है कि उत्तराखंड में ‘मित्र विपक्ष’ की खासी चर्चा रहती है।

उत्तराखंड

Advertisement
Advertisement
Advertisement