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ओली की ऐसी क्यों बोली

नेपाली प्रधानमंत्री के भारत विरोधी तेवर का राज उनकी घरेलू परेशानियां या भारत की नेपाल नीति की नाकामी
नेपाल में चीन की राजदूत हुया यांकी के साथ प्रधानमंत्री के.पी. ओली

सहसा विश्वास नहीं होता कि नेपाल या कहें कि वहां के प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली (के.पी. ओली) की बोली ऐसे बदल जाएगी। आखिर नेपाल हमारा पड़ोसी देश भर नहीं, उससे हमारे “रोटी-बेटी” के संबंध रहे हैं, जैसा कि हमारे रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह हाल ही में कह चुके हैं। लेकिन विडंबना देखिए, नेपाल के इस नए तेवर में राजनाथ सिंह की भी एक भूमिका है। उन्होंने इस साल 8 मई को उत्तराखंड से कालापानी-लिपुलेख के जरिए कैलाश मानसरोवर के एक्सप्रेस वे का उद्घाटन किया तो नेपाल के मौजूदा गरम तेवरों की शुरुआत हुई। उसने न सिर्फ कालापानी-लिपुलेख पर अपना दावा किया, बल्कि अपनी संसद में एकमत से उसे अपने नए नक्शे में शामिल करने का प्रस्ताव पारित किया। ओली की बोली लगातार तीखी होती गई। मार्क्सवाद में यकीन करने वाले ओली को हिंदू अस्मिता की भी याद आ गई। उन्होंने दावा कर दिया कि राम की अयोध्या भी नेपाल में है। यह सब तब हो रहा था जब लद्दाख की गलवन नदी घाटी में चीनी सेना और हमारे जवान आमने-सामने थे। इससे कई सवाल बेहद महत्वपूर्ण हो उठे। क्या यह हमारी नेपाल नीति की नाकामी है? क्या नेपाल चीन के उकसावे में ऐसा कर रहा है? क्या ओली अपनी पार्टी में मिल रही चुनौती और घरेलू नाकामियों से ध्यान हटाने के लिए भारत-विरोधी रुख अपना रहे हैं?

नेपाल हमारे लिए इतना अहम है कि किसी भी सवाल को खारिज नहीं किया जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि पिछले कुछ साल से नेपाल की नाराजगी बढ़ती गई है। हालांकि 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की काठमांडू यात्रा के दौरान ऐसी फिजा तैयार हुई थी कि वहां भारत की जय-जय होने लगी थी। उसके बाद नेपाल के नए गणतांत्रिक संविधान से तराई में बसने वाले मधेसी लोगों में असंतोष भड़का, जिनके साथ सीमाई इलाकों में भारत के लोगों के साथ सामाजिक और शादी-ब्याह के रिश्ते हैं। मधेसी आंदोलन शुरू हुआ तो भारत ने सीमा पर नाकेबंदी कर दी, जिससे वहां जरूरी सामान की आपूर्ति रुक गई। ऐसे दौर में चीन ने नेपाल की ओर हाथ बढ़ाया और वहां से सभी जरूरी सामान की आपूर्ति होने लगी। तब ओली प्रधानमंत्री थे। चौतरफा विरोध से ओली को इस्तीफा देना पड़ा। संविधान लागू होने के बाद हुए चुनाव-प्रचार के दौरान ओली ने भारत की नाकेबंदी को मुद्दा बनाया और कहा कि वे सामान आपूर्ति के लिए एक पक्ष पर निर्भर नहीं रहेंगे। उसके बाद हुए चुनावों में ओली अपनी पार्टी को भारी बहुमत से जिताने में कामयाब हुए। उधर, नेपाल में चीन की पैठ लगातार बढ़ती गई और ओली उसकी ओर झुकते गए। उसके बाद भी भारत की नेपाल नीति में कोई फेरबदल नहीं हुआ और नेपाल की शिकायत बनी रही कि भारत बड़े भाई जैसा बर्ताव कर रहा है।

लेकिन ओली का संकट इधर कुछ समय से घरेलू भी है, खासकर उनके भारत विरोधी तीखे रुख के बाद उन्हें अपनी ही नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में सहयोगी पुष्प कमल दहल प्रचंड से चुनौती मिल रही है। प्रचंड का रुख पहले भले चीन की ओर नरम था, लेकिन अब वे भारत से संबंध बुरी तरह खराब कर लेने के लिए ओली को दोषी ठहरा रहे हैं और उनके इस्तीफे पर अड़े हैं। ऐसे ही हालात में चीन की अहम पहल शुरू हुई। नेपाल में चीन की राजदूत हुया यांकी ने बीच-बचाव किया। यांकी के हस्तक्षेप से ओली को जरूर कुछ मोहलत मिल गई,  लेकिन अभी कोई पुख्ता रास्ता नहीं निकल पाया है।

इस बीच ओली ने एक नया राग छेड़ दिया। उन्होंने कहा, “अयोध्या को लेकर तीखी बहस जारी है। दरअसल अयोध्या ठोरी में है, जो पश्चिम में नेपाल के बीरगंज के पास है। दशरथ के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने वाले ऋषि भी रीदी (नेपाल) के थे। इसलिए राम भारतीय नहीं थे, न जन्मस्थान (अयोध्या) भारत में था। हमें सांस्कृतिक रूप से दबाया गया, तथ्य बदले गए। हम आज भी यही मानते हैं कि सीता का विवाह एक भारतीय राजकुमार के साथ हुआ था लेकिन ऐसा नहीं है। अयोध्या बीरगंज के पास एक गांव है।” उनका यह दावा भारत के खिलाफ है या अपनी पार्टी में मिल रही चुनौतियों के खिलाफ, यह तो समय ही बताएगा लेकिन भारत के लिए जरूरी है कि नेपाल चीन की गोद में पूरी तरह न जाए।

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