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विमर्श: लोकतंत्र और विचार-स्वतंत्रता

विचार-स्वातंत्र्य की जिस परंपरा का सम्राट कुछ नहीं बिगाड़ पाए, आज की व्यवस्था में उस पर हो रहे हमले
विचार स्वतंत्रता पर हमला

भारत की सभ्यता और संस्कृति का इतिहास हजारों साल पुराना है। इन सहस्राब्दियों के दौरान यहां एक विशिष्ट बौद्धिक संस्कृति भी विकसित हुई जिसका प्रतिफलन दर्शन, साहित्य, समाज और संस्कृति संबंधी वैविध्यपूर्ण चिंतन में देखा जा सकता है। बहुलतावाद भारतीयता का मूलमंत्र है और विचारों का आदान-प्रदान उसे बनाए रखने का माध्यम। उपनिषदों ने हमें सीख दी है कि अनेक विचारों के बीच अंत:क्रिया यानी संवाद होने की प्रक्रिया में ही ज्ञान का विकास एवं विस्तार होता है। प्राचीन सूक्ति भी है कि विभिन्न वादों के बीच से ही तत्वबोध अर्थात सत्य जन्म लेता है—‘वादे वादे जायते तत्वबोध:।’ दर्शन के ग्रंथों में लेखक पहले जिस मत का खंडन करता है, उसका स्पष्ट एवं प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करता था। इसे ‘पूर्वपक्ष’ कहा जाता था। पूर्वपक्ष को स्थापित करने बाद ही लेखक उसके खंडन के लिए तर्क एवं प्रमाण देकर अपने मत की प्रतिष्ठा करता था।

भारत के इतिहास में न जाने कितने प्रभुताशाली शासक आए और गए, लेकिन इस बौद्धिक परंपरा का उच्छेद नहीं हुआ। मुगल सम्राट अकबर जैन और हिंदू विद्वानों और ईसाई जेसुइट पादरियों के बीच इस प्रकार के शास्त्रार्थ आयोजित कराते रहते थे। लेकिन अब स्थिति बहुत बदल गई है। बौद्धिक ईमानदारी और विचार-स्वातंत्र्य की जिस परंपरा का सम्राट और सामंत कुछ नहीं बिगाड़ पाए, आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में उस पर हर तरफ से हमले हो रहे हैं। इसके मूल में यह भावना है कि जो कुछ भी हमें रास नहीं आता, उसे मिट जाना चाहिए। इस बिंदु पर सभी दलों के बीच अद्भुत एवं अपूर्व एकता है। सभी विरोधी विचार के प्रति नितांत असहिष्णु हैं। ऐसे में केवल नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) ही इस बहुलतावादी बौद्धिक विमर्श की परंपरा को बचाने में दिलचस्पी ले सकता है।

किसी भी विचार को प्रतिबंध लगाकर नष्ट नहीं किया जा सकता। उसे केवल वैचारिक चुनौती देकर और विचार के स्तर पर गलत सिद्ध करके ही परास्त किया जा सकता है। जिस विचार को हम नापसंद करते हैं, उस पर प्रतिबंध लगाकर और उसे मानने वालों का दमन करके उसे नष्ट करने की कोशिश करना फासिस्ट प्रवृत्ति का द्योतक है। यह सही है कि संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को असीमित नहीं माना गया है और उसमें परिस्थितियों के अनुसार विवेकसम्मत कटौती करने का प्रावधान रखा गया है, लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि संविधान निर्माताओं को विश्वास था कि ऐसा असाधारण स्थितियों में ही किया जाएगा, और वह भी कभी-कभार। लेकिन इन संवैधानिक  प्रावधानों का उद्देश्य मनमाने ढंग से अभिव्यक्ति की आजादी को ही समाप्त करना नहीं था। दुर्भाग्य से, पिछले सात दशकों से अधिक समय से यही हो रहा है। और, इस मामले में कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी या कोई और दल, कोई किसी से कम नहीं है।

सलमान रुश्दी के उपन्यास द सैटेनिक वर्सेज पर प्रतिबंध लगाने वाला भारत पहला देश था, तब प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। तब तक पाकिस्तान ने भी उस पर प्रतिबंध नहीं लगाया था। इससे पहले भी और बाद में भी अनेक प्रतिबंध लगे। कुछ सरकार की ओर से और कुछ जोर-जबरदस्ती के जरिये अपनी राय औरों पर थोपने वाले संगठनों की ओर से। गांधीवादी संगठन भी इनमें शामिल हो गए और गोडसे पर आधारित नाटक के मंचन को रोकने के लिए आंदोलन करने लगे। हिंदुत्ववादी शक्तियां तो हर समय अपने विरोधियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराने और लोगों को आतंकित करके अपनी बात मनवाने पर तुली रहती ही हैं। इन्हीं के कारण मकबूल फिदा हुसैन जैसे शीर्षस्थ चित्रकार को देश छोड़ना पड़ा और बहादुरशाह जफर की तरह ही उन्हें भी अपने देश यानी ‘कू-ए-यार’ में कब्र के लिए दो गज जमीन नहीं मिल पाई। जब कपिल सिब्बल केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री थे, तब दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से ए.के. रामानुजन का बहुप्रशंसित निबंध 300 रामायण हटा दिया गया था। उसी तर्ज पर कुछ दिनों पहले महाश्वेता देवी जैसी देश की शीर्षस्थ लेखिका के साथ-साथ दो दलित लेखिकाओं की कृतियां भी पाठ्यक्रम से हटा दी गईं। इन कदमों का लेखकों, बुद्धिजीवियों, शिक्षकों और छात्रों की ओर से जोरदार विरोध किया गया लेकिन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।

अब एक और दिलचस्प मामला सामने आ रहा है। लेकिन यह पाठ्यक्रम से किसी की कृति हटाने का नहीं, शामिल किए जाने का विरोध है। केरल के कन्नूर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में हिंदुत्व की अवधारणा के संस्थापक विनायक दामोदर सावरकर और उसे अपनाकर और अधिक विकसित करने वाले माधवराव सदाशिव गोलवलकर की पुस्तकों को वहां शामिल किया गया है, ताकि छात्र उनके विचारों से परिचित हो सकें। इन विचारों का महत्व निर्विवाद है क्योंकि इनके मानने वाले ही केंद्र एवं कई राज्यों में सरकार चला रहे हैं। लेकिन कांग्रेस, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, भाकपा और माकपा के नेता इन पुस्तकों को शामिल करने का विरोध कर रहे हैं क्योंकि वे हिंदुत्व की विचारधारा के खिलाफ हैं। विश्वविद्यालय के कुलपति गोपीनाथ रवींद्रन एक सम्मानित

इतिहासकार हैं, जिनका मानना है कि छात्रों को सभी विचारों का अध्ययन करना चाहिए। लेकिन आजकल के असहिष्णु माहौल में उनके इस पूर्णत: विवेकसम्मत निर्णय पर भी हमले हो रहे हैं। क्या गांधी, नेहरू, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस और भीमराव आंबेडकर जैसी विभूतियों ने ऐसे ही भारत की कल्पना की थी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)

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