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अलगाव की खाई हुई चौड़ी

सुरक्षा की खातिर पीड़ित अपने समुदाय की बहुलता वाले इलाकों की तलाश में, मुहल्लों के बीच बढ़ी बाड़बंदी
राहत के इंतजामः मुस्तफाबाद ईदगाह में राहत शिविर

बहुत कुछ आंकड़े बताते हैं और ज्यादा कुछ अनजाना रह जाता है। जो अनजाना रह जाता है, वही सामाजिक संरचना में लंबे समय तक असर पैदा करता है। फिर, आंकड़ों पर भी संदेह की गुंजाइश बनी रहे तो खौफ का आलम बेपनाह हो जाता है। लगभग डेढ़ पखवाड़े बाद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली के दंगे ने 53 जिंदगियां लील लीं और 200 लोग जख्मी हुए, तकरीबन 300 मकान-दुकानों को खाक कर दिया गया और लगभग इतने ही मकानों को लूट लिया गया। लेकिन राहत कार्य में लगे कई एनजीओ इस बात की ताकीद करते हैं कि कई लाशें बेशिनाख्त पड़ी हुई हैं जिनकी संख्या नहीं बताई जा रही है इसलिए मौत का आंकड़ा 70-75 तक हो सकता है। इसका एक संकेतःब्रजपुरी-भगीरथी विहार वाले नाले से बड़ी संख्या में मोटरसाइकिलें निकलीं। इन पर कुछ सवार तो शिकार हुए ही हो सकते हैं। फिर, केंद्र और यहां तक कि राज्य की सरकारी मशीनरी और पुलिस की एक हद तक ‌निष्क्रियता भी अनिश्चय का माहौल पैदा कर रही है। ये हालात लोगों को अपनी बिरादरी के सुरक्षित इलाकों की ओर ढकेल रहे हैं।

लिहाजा, शिव विहार, चांदबाग, भजनपुरा, मुस्तफाबाद, खजूरी खास जैसी मिली-जुली आबादी वाली कॉलोनियों में अलग-अलग समुदायों की बहुलता वाले इलाकों में लोहे के गेट लगाए जाने लगे हैं, ताकि एक हद तक सुरक्षा का इंतजाम किया जा सके। 23 और 24 फरवरी से शुरू और करीब चार दिनों तक चली खूंरेजी में बाहरी दंगाइयों के तबाही मचाने के मद्देनजर ये लोहे के मजबूत गेट रोकथाम के प्रयास हैं। यह भी जाहिर हो चुका है कि इन तीन-चार दिनों में पुलिस को करीब 13,000 कॉल किए गए और मदद न के बाराबर मिली। कुछ मामलों में पुलिस की भूमिका भी संदिग्‍ध रही है। ये सभी मसले अविश्वास की खाई को इतनी चौड़ी कर चुके हैं कि अब घेटोकरण यानी अपने-अपने समुदाय के बीच सिमट कर रहने की प्रक्रिया शुरू हो गई है।

डर इतना गहरा है कि राहत शिविरों से दंगा-पीड़ित अपने घरों को जाने की सोच ही नहीं पा रहे हैं। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के चांदबाग की रहने वाली सईदा बेगम हों या फिर शिव विहार की रेहाना बेगम और उनके पति मोहम्मद खलील, वे अब ऐसे इलाकों में रहने के लिए जाना चाहते हैं जहां वे अपने संप्रदाय के लोगों के बीच सुरक्षित महसूस कर सकें।

सईदा बेगम बताती हैं कि वे कमरा किराए पर लेना चाहती हैं। लेकिन वे ऐसी किसी जगह किराए पर नहीं रहना चाहतीं, जहां भविष्य में कोई खतरा हो। वे कहती हैं कि अब वे मुस्लिमों की बस्ती में ही घर लेंगी। रेहाना बेगम और उनके पति खलील का घर दंगाइयों ने पूरी तरह जला दिया। मोहम्मद खलील रिक्शा चलाकर परिवार चलाते थे। वे अपने घर वापस नहीं जाना चाहते। अब वे किसी दूसरी जगह मकान किराए पर लेने की कोशिश करेंगे। लालबाग की मंडी के पास पंचर जोड़ने की दुकान चलाने वाले मुन्ने खां की दुकान दंगाइयों ने 24 फरवरी के तड़के लूट ली थी। अब मुस्तफाबाद की ईदगाह में बनाए गए राहत शिविर में बैठे 78 वर्षीय बुजुर्गवार मुन्ने खां भय के कारण अपने घर भी नहीं जा सके। वे बताते हैं कि उनका एक बेटा, बेटे की पत्नी, तीन बेटियां और तीन नातिनें हैं। उनका बेटा हलवाई की दुकान पर नौकरी करता है। दंगाई रात में आए और दुकान का ताला तोड़कर सामान लूट ले गए। उनकी दुकान और घर दोनों किराए पर थे। अपने भविष्य के बारे में अभी वे अनिश्चित दिखाई देते हैं।

मुस्तफाबाद की ईदगाह में लगाए गए राहत शिविर में करीब 1,500 दंगा पीड़ित रह रहे हैं। अधिकांश बेहद गरीब तबके के हैं और रोजाना कमाकर अपना जीवन यापन करते रहे हैं। यहां रह रहे ज्यादातर लोग किराए के मकानों में रहते थे। अधिकांश की दुकानें भी किराए पर ही थीं। या फिर वे ई-रिक्शा, ऑटो रिक्शा और ठेला चलाकर अपना भरण-पोषण करते रहे हैं। दुकान और घर में लूट, आगजनी और हिंसा के कारण अब अधिकांश लोग अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं हैं।

भय का माहौल सिर्फ राहत शिविरों में रह रहे लोगों में ही नहीं है। दिल्ली के कई इलाकों में फल बेचने वाले नहीं दिखाई दे रहे हैं। जब एक फल वाले से इसके बारे में पूछा तो पता चला कि फल बेचने वाले ज्यादातर दुकानदार अल्पसंख्यक समुदाय के हैं। दंगे के बाद उन्हें परिवार की चिंता सता रही है। वे मकान बदलने के लिए प्रयास कर रहे हैं और अपने समुदाय के लोगों के बीच ही मकान लेना चाहते हैं। इसी वजह से वे फिलहाल दुकान नहीं लगा रहे हैं। हेयर ड्रेसिंग वाली दुकानों पर भी कारीगरों की कमी इसी वजह से दिखाई दे रही है। आइपी एक्सटेंशन में जब एक हेयर ड्रेसर के यहां कारीगर न देखकर पूछा तो पता चला कि ज्यादातर कारीगर घर बदलने की वजह से काम पर नहीं आ रहे।

इन खौफजदा लोगों की मकान की तलाश से कई मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में किराए और खरीद के लिए मकानों की मांग बढ़ गई है। ओखला क्षेत्र के जोगा बाई एक्सटेंशन के प्रॉपर्टी डीलर उजैर खान भी शहर में हो रहे इस बदलाव की ओर संकेत करते हैं। खान के मुताबिक, सिर्फ दंगा पीड़ित ही नहीं बल्कि दूसरे लोग भी ओखला, जामियानगर, शाहीन बाग, जाकिर नगर जैसे क्षेत्रों में मकान किराए पर लेने और खरीदने के लिए आ रहे हैं। इस वजह से मकानों का किराया करीब 10-15 फीसदी बढ़ गया है। खरीद के लिए मकानों की कीमत भी बढ़ाकर बोली जा रही है। हालांकि उनका कहना है कि इस पूरे मुस्लिम बहुल क्षेत्र में मकानों और फ्लैटों की भारी कमी है। आज छोटे से कमरे के लिए भी लोकेशन के अनुसार 4,000 से 6,000 रुपये मासिक किराए की मांग की जा रही है। इसी क्षेत्र के एक अन्य प्रॉपर्टी ब्रोकर अलाउद्दीन के अनुसार पिछले करीब आठ-दस दिनों में किराए के मकानों की मांग बढ़ गई है। सबसे ज्यादा मांग एक-दो कमरे वाले सस्ते मकानों की है। खरीद-फरोख्त की पूछताछ तो बढ़ी है लेकिन दंगा प्रभावित क्षेत्रों में मकान बेचना, इस समय बेहद मुश्किल है।

दरअसल, उत्तर-पूर्वी दिल्ली में आबादी का घनत्व बहुत ज्यादा है। लेकिन यहां अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की बस्तियां जैसे जाफराबाद, मुस्तफाबाद चारों ओर से बहुसंख्यक समुदाय से घिरी हैं। यहां अल्पसंख्यकों की आबादी करीब 29.3 फीसदी है। दंगा पीड़ित अब ऐसे इलाकों में जाना सुरक्षित मान रहे हैं, जहां अल्पसंख्यकों की आबादी ज्यादा है। पुरानी दिल्ली के कुछ इलाकों में अल्पसंख्यकों की आबादी अच्छी है। लेकिन वहां जगह की भारी कमी है। इस लिहाज से ओखला क्षेत्र बेहतर है, जहां अल्पसंख्यकों की आबादी करीब 45 फीसदी बताई जाती है। दंगों के बाद एक बात और देखने को मिल रही है कि लोग अल्पसंख्यक बस्तियों में ज्यादा से ज्यादा अंदरूनी इलाकों में मकान लेने की कोशिश कर रहे हैं। इस तरह की प्रवृत्ति समाज में एक नए बंटवारे की आहट दे रही है।

अल्पसंख्यकों के मध्य सुरक्षा को लेकर ये चिंताएं तब हैं जब सरकार और प्रशासन नागरिकों को सुरक्षा देने का पूरा भरोसा दिला रहा है। लोगों को सुरक्षा का एहसास कराने के लिए जाफराबाद, बाबरपुर, मौजपुर, शिव विहार, चांदबाग, यमुना विहार, मुस्तफाबाद क्षेत्रों में कोने-कोने पर पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बल तैनात किए गए हैं। पुलिस ने कई क्षेत्रों में मार्च भी किया। पुलिस तमाम क्षेत्रों में स्थानीय लोगों की बैठकें भी आयोजित कर रही है। 

दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता और उपायुक्त एम.एस. रंधावा का कहना है कि हालात सभी जगह सामान्य हो गए हैं। हम उत्तर-पूर्वी दिल्ली से आने वाली कॉल्स पर तुरंत कदम उठा रहे हैं। लेकिन दंगा प्रभावित क्षेत्रों में वास्तविकता पूरी तरह उलट दिखाई देती है। मुन्ने खां कहते हैं कि जब हमारे घर लुट रहे थे, तब पुलिस कहां थी? हम उनके दावों पर भरोसा नहीं कर सकते।

मुस्तफाबाद मेन रोड के तिराहे पर कार पार्किंग चलाने वाले राहुल परिहार भी कहते हैं कि दोनों समुदायों के बीच खाई बहुत गहरी हो चुकी है। हालांकि पुलिस और सुरक्षा बल तैनात हैं, फिर भी दोनों ही समुदायों के लोग एक-दूसरे के घने इलाकों में जाने से डरते हैं। परिहार को आशंका है कि अगर भविष्य में किसी वजह से चिनगारी भड़की तो हालात और खराब हो सकते हैं।

मुस्तफाबाद की ईदगाह में दिल्ली वक्फ बोर्ड ने दंगा पीड़ितों के लिए राहत शिविर लगाया है। दिल्ली वक्फ बोर्ड के चेयरमैन अमानतुल्लाह खान का कहना है कि यहां लोगों की सभी सुख-सुविधाओं का ख्याल रखा जा रहा है। दंगा पीड़ित जब तक यहां रहना चाहें, रह सकते हैं। वक्फ बोर्ड के अधिकारी बताते हैं कि शिविर में समाजसेवी संस्थाएं और गैर-सरकारी संगठन दवाइयां, खाद्य सामग्री और अन्य जरूरी वस्तुएं ला रहे हैं। यहां करीब 25 संस्थाएं और संगठनों ने मदद की है।

मुस्तफाबाद की ईदगाह में दिल्ली वक्फ बोर्ड के शिविर के अलावा कहीं शिविर नहीं लगाया गया है। दिल्ली अर्बन शेल्टर इंप्रूवमेंट बोर्ड (डीयूएसआइबी) ने सभी 15 रैनबसेरों को दंगा पीड़ितों के लिए राहत शिविरों में तब्दील करने की बात कही थी लेकिन कोई सुविधा न होने के कारण वहां दंगा पीड़ित नहीं रह पा रहे हैं। हालांकि गैर सरकारी संगठन सादिक मसीह इंडिया के सचिव विनय कुमार स्टीफन का कहना है कि खाने-पीने की व्यवस्था की गई थी लेकिन लोग वहां नहीं आए। उन्होंने माना कि ईदगाह के शिविर जैसी सुरक्षा व्यवस्था न होने से भी लोग रैनबसेरों में नहीं आए। दंगे के वहशीपन ने बहुसंख्यक लोगों को भी दर्द दिया है। शिव विहार तिराहे पर शिव ज्वैलर्स दुकान के मालिक अशोक कुमार की दुकान 25-26 फरवरी की रात दंगाइयों ने उस समय लूट ली जब वे अपने घर चले गए थे। इसी तिराहे पर खाक हो चुकी तीन दुकानों में से एक दुकान के मालिक राजकुमार की भी ऐसी ही कहानी है। राजकुमार ही नहीं, बल्कि उनके दोनों भाइयों का भी कारोबार दंगे में जलकर राख हो गया। राजकुमार और उसके एक भाई की दुकानें थी जबकि तीसरा भाई छोले-कुल्चे का ठेला लगाता था। उनकीं दुकान भी 25-26 फरवरी की रात को दंगाइयों ने आग के हवाले कर दी थी। उसी इलाके के सोनू और उसके दो भाइयों की दुकानें भी दंगे की भेंट चढ़ गईं।

ईदगाह के राहत शिविर में लगाए गए चिकित्सा शिविर में दंगे के कारण शारीरिक बीमारियों के अलावा मानसिक यातना और बदहवासी के शिकार लोगों की बड़ी संख्या है। चिकित्सा शिविर में मरीजों की इलाज कर रहीं डॉ. मालती कहती हैं कि कम से कम 50-60 मरीज ऐसे आए जिन्होंने अपनी आंखों के सामने दंगाइयों को मारते और आगजनी करते देखा। बदहवासी की स्थिति में वे अपनी सुध-बुध खो चुके हैं। बदहवासी के शिकार बच्चों की संख्या भी करीब 30-40 है।

दंगों में आरोपियों की धरपकड़ से भी उनके परिवारों खासकर बच्चों और महिलाओं के सामने गंभीर समस्या पैदा हो गई है। करीब 26 वर्षीया फरहा की जिंदगी में दोहरी मुश्किल आ गई है। उसके चार बच्चे हैं और सबसे छोटा बच्चा महज दो महीने का है। उसके पति दिलशाद को पुलिस ने दंगा करने के आरोप में गिरफ्तार किया है। पति की जमानत के लिए वकील ने फरहा को बुलाया था लेकिन उसकी दिक्कत है कि वह चार बच्चों को लेकर कड़कड़डूमा कोर्ट कैसे पहुंचे? शिविर में ऐसी महिलाएं और भी मिलीं जिनके पति या बेटे को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। शिविर में मौजूद एक वकील मोहम्मद यूनुस का कहना है कि ऐसी महिलाओं को हम कानूनी सलाह देने की कोशिश कर रहे हैं।

दंगे के बाद अब पीड़ित और प्रभावित लोग सिस्टम से परेशान हैं। एक ओर तो उनका सब कुछ लुट चुका है, दूसरी ओर सरकार की ओर से मदद भी नहीं मिल रही है। सरकार दावे तो बड़े-बड़े कर रही है। लेकिन जमीन पर सच्चाई इसके विपरीत दिखाई देती है। लुटे घर की तस्वीर दिखाते हुए सईदा बेगम कहती हैं कि उन्हें अभी तक कोई मदद नहीं मिली है। उनका करीब पांच लाख रुपये का नुकसान हुआ है। रेहाना बेगम और उनके पति मोहम्मद खलील को अभी भी शुरुआती मदद का इंतजार है। मुन्ने खां गुस्से में कहते हैं कि अभी तक उन्हें सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली है। दुकान के लुटने से उन्हें करीब 80,000-90,000 रुपये का नुकसान हुआ है।

राहत के बारे में अशोक कुमार का कहना है कि उनकी ज्वैलरी की दुकान को चार लाख रुपये का नुकसान हुआ है। फार्म भरवाने के बाद भी अभी तक उन्हें कोई मदद नहीं मिली है। उनकी एक दिक्कत यह भी है कि थाने में भीड़ के कारण वे अभी तक एफआइआर भी नहीं करवा पाए हैं। जबकि राजकुमार कहते हैं कि न तो सरकार से कोई मदद मिली और बीमा कंपनी से भी पता नहीं, मदद मिल पाएगी या नहीं। राजकुमार और उनके भाइयों को करीब 10-11 लाख रुपये का नुकसान हुआ है। उन्होंने पेटीएम के जरिये बीमा करवाया था लेकिन उसके भी कागजात दुकान में जल गए। सोनू का कहना है कि उन्होंने सरकारी मदद के लिए एसडीएम ऑफिस के कई चक्कर लगाए लेकिन अभी 25,000 रुपये की भी मदद नहीं मिली है।

दंगा पीड़ितों को आर्थिक सहायता न मिलने की तमाम शिकायतों के बावजूद सरकार दावे कर रही है कि इस मामले में अधिकारी तेजी से काम कर रहे हैं। दिल्ली सरकार के राजस्व मंत्री कैलाश गहलोत कहते हैं कि प्रशासन की टीमें नुकसान का आकलन कर रही हैं। करीब 800 शिकायतें मिल चुकी हैं। दंगा पीड़ितों को 25,000 रुपये की शुरुआती आर्थिक सहायता अस्पतालों में जाकर दी गई है। ऐसे करीब 300 लोगों को मदद दी गई है।

बाड़बंदीः करावल नगर में मुहल्ले को अलग करने के लिए लगा गेट

दंगे के बाद प्रभावित लोगों की जिंदगी को सामान्य बनाने के लिए उनके घर-दुकान वगैरह की मरम्मत करना भी बड़ा काम है। दिल्ली वक्फ बोर्ड के चेयरमैन अमानतुल्लाह खान ने दंगों में बर्बाद हुए घरों की मरम्मत के लिए 50 लाख रुपये की मदद देने का ऐलान किया है। उन्होंने बताया कि घरों के अलावा क्षतिग्रस्त मस्जिदों की भी मरम्मत शुरू की जा रही है। क्षतिग्रस्त मकान और घरों की मरम्मत के काम में सादिक मसीह, केयर इंडिया, स्पेयर इंडिया और आइशा जैसे गैर सरकारी संगठन भी आगे आए हैं। लेकिन इस काम में एक-दो महीने का वक्त लग सकता है।

पहले दिल्ली पुलिस पर दंगे के दौरान मूकदर्शक बने रहने के आरोप लगे थे। अब शिकायतें आ रही हैं कि दंगाइयों पर कार्रवाई करने के नाम पर पुलिस निर्दोष लोगों को फंसा रही है। अधिवक्ता इकबाल आरिफ ने कहा कि पुलिस बड़ी संख्या में लोगों को उठा रही है। पुलिस भले ही 200 लोगों को गिरफ्तार करने की बात कह रही है लेकिन उसने कम से कम 2,500 लोगों को पूछताछ के लिए उठाया। आरिफ का कहना है कि पुलिस पहले तो लोगों को पकड़ती है और दंगा की सामान्य धाराएं लगाती है लेकिन बाद में हत्या, हत्या का प्रयास वगैरह की गंभीर धाराएं लगा रही है। 22 फरवरी को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्‍ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का विरोध करने के लिए धरना देने वालों पर भी पुलिस ने दंगा भड़काने का केस (एफआइआर नं. 0048) थाना जाफराबाद में दर्ज किया है। दंगाइयों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के सवाल पर दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता उपायुक्त रंधावा बताते हैं कि अब तक दंगे के मामले में 712 एफआइआर दर्ज की गई हैं और करीब 200 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। उनका कहना है कि पुलिस फेस रिकग्नीशन सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर रही है। इन तस्वीरों को आधार, वोटर आइडी और ड्राइविंग लाइसेंस के डाटा में खंगालकर दोषियों की पहचान की जा रही है। फेस रिकग्नीशन सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल पर भी सवाल उठ रहे हैं। अधिवक्ता आरिफ ने कहा कि पुलिस उन लोगों को भी उठा रही है जिनका फोटो किसी वीडियो में दिख गया। भले ही वह दंगे में शामिल नहीं था, बल्कि किसी कार्य से उस स्थान पर मौजूद था।

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मिली-जुली आबादी वाली कॉलोनियों में अलग-अलग संप्रदायों की बहुलता वाले इलाकों में लोहे के गेट लगाए जाने लगे हैं

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पहले दिल्ली पुलिस पर दंगे के दौरान मूकदर्शक बने रहने के आरोप लगे थे। अब शिकायतें आ रही हैं कि पुलिस निर्दोष लोगों को फंसा रही है

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