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30 नवंबर 2020 · NOV 30 , 2020

उत्तराखंड: सौ साल बाद बेघर करने का फरमान

सुप्रीम कोर्ट के 1995 के निर्णय के आधार पर जिला कलेक्टर ने जमीन पर सरकारी नियंत्रण का नोटिस जारी किया, इससे लोग परेशान
कलेक्टर के फैसले के खिलाफ बाजपुर में प्रदर्शन करते लोग

ऊधमसिंह नगर जिले के बीस गांवों के पांच हजार से ज्यादा परिवारों के सिर पर एक सौ साल बाद बेघर होने का खतरा मंडरा रहा है। ऐसा सुप्रीम कोर्ट के 25 साल पुराने एक आदेश पर जिला कलेक्टर के अमल करने की वजह से हो रहा है। लीज होल्डर और सरकार के बीच चल रही इस कानूनी लड़ाई में ज्यादा परेशान वे लोग हैं, जिन्होंने लीज पर जमीन लेकर घर वगैरह बनवा लिए हैं। ये लोग मदद के लिए इधर-उधर भटकने के साथ ही आंदोलन की राह पर हैं। अहम बात यह है कि यह इलाका उत्तराखंड सरकार के एक कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य का निर्वाचन क्षेत्र है तो दूसरे कैबिनेट मंत्री अरविंद पांडेय का गृह क्षेत्र है।

जमीन की यह अनोखी कहानी, बाजपुर क्षेत्र के पांच हजार लोगों के गले का फंदा बनती नजर आ रही है। इस कहानी से जुड़ा हर पात्र जीवन भर की कमाई अपने हाथों से दूर जाता देख ठगा सा महसूस कर रहा है। हालांकि मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का कहना है कि यह प्रकरण सरकार के संज्ञान में है। मुख्य सचिव को समस्या का विधिक समाधान तलाशने के निर्देश दिए गए हैं। किसानों और आम नागरिकों के हितों का सरकार को पूरा ख्याल है, जल्द ही सभी को राहत दी जाएगी।

इस कहानी की शुरुआत 25 अगस्त 1920 में स्व. लाला खुशीराम से शुरू होती है। तत्कालीन ब्रिटिश काल में क्राउन ग्रांट एक्ट (बाद में इसे गवर्मेंट ग्रांट एक्ट 1895 कहा गया) के तहत 4,805 एकड़ भूमि 93 साल की लीज पर दी गई। यह भूमि खास तौर पर कृषि कार्यों के लिए तमाम शर्तों के साथ दी गई थी।

वरिष्ठ प्रशासनिक सूत्रों ने बताया कि 1926 में लाला खुशीराम की मृत्यु के बाद इस लीज पर उनके वारिस का नाम दर्ज हो गया। आजादी के बाद वर्ष 1955-56 में देश में पहला बंदोबस्त लागू हुआ। इसी के तहत यह समूची लीज भूमि तत्कालीन टेनेंसी एक्ट के तहत विभिन्न श्रेणियों में लीज होल्डर के नाम राजस्व अभिलेखों में दर्ज कर दी गई।

उत्तर प्रदेश राजकीय आस्थान ठेकेदार विनाश अधिनियम 1958 के तहत 30 जून 1966 को जारी एक अधिसूचना (संख्या 1-5 (1) 65-1 जीए) के जरिए तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने नैनीताल जनपद के सभी 35 ग्रामों में दी गई जमीन की लीज समाप्त कर दी।

इस एक्ट में तमाम खामियां पाए जाने पर उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। 25 अक्टूबर 1967 को जी.एस. चूड़ामणि की ओर से दाखिल रिट याचिका पर निर्णय देते हुए कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार के उक्त अधिनियम को अधिकार से परे बताया और निरस्त कर दिया। लेकिन यूपी सरकार ने वर्ष 1970 में उत्तर प्रदेश गवर्मेंट इस्टेट ठेकेदारी विनाश (रि इनेक्टमेंट ऐंड वेलिडेशन) एक्ट 1970 पारित कर उक्त अधिनियम को फिर से प्रभावी बना दिया। मामला फिर सुप्रीम कोर्ट गया तो उसने 20 अप्रैल 1995 को राज्य सरकार के फैसले को सही ठहरा दिया।

वर्ष 1995 के सुप्रीम कोर्ट आदेश में हर विषय को स्पष्ट कर दिया गया था। राजस्व विभाग स्थित सूत्रों के अनुसार निर्णय में साफ कहा गया था कि लीज होल्डर को भूमि हस्तांतरण का अधिकार नहीं था। कोर्ट का कहना था कि 1966 में ठेकेदारी उन्मूलन एक्ट के खारिज होने के बाद इस पर दोबारा एक्ट लाने की शासन को आवश्यकता नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने लीज को निरस्त कर दिया।

दूसरी ओर, लीज होल्डर परिवारों का कहना है कि वे उच्चतम न्यायालय तक सिर्फ मुआवजे को लेकर गए थे। उन्होंने बताया कि लीज होल्डर को भूमि अपने पास रखने के साथ सब-लीज करने का भी अधिकार था। जब लीज होल्डर को भूमिधरी अधिकार मिले तो सब-लीज होल्डर को भी स्वतः उक्त अधिकार मिल गए। इस अधिकार के तहत उन्होंने अपनी भूमि को निजी मान कर आगे बेचना शुरू किया। लोग जमीन बेचते रहे और खरीदारों के नाम सरकारी अभिलेखों में दर्ज होते रहे।

आज हालात ये हैं कि लीज की इस जमीन पर हजारों घर, फार्म हाउस, दुकानें आदि बनीं हुई हैं। कहीं सैकड़ों एकड़ जमीन पर फसलें लहलहा रही हैं। सैकड़ों लोगों ने इसी जमीन को गिरवी रखकर बैंकों से कर्ज ले रखा है। इतना ही नहीं, सरकार ने भी लोगों से इसी जमीन को उद्योगों के लिए खरीदा और उद्यमियों को खुद ही बेचा। इस जमीन पर कई बड़े उद्योग भी लग चुके हैं।

सुप्रीम कोर्ट के 1995 में दिए गए निर्णय के 25 साल बाद ऊधमसिंह नगर के जिला कलक्टर ने लीज पर दी गई उक्त भूमि को राज्य सरकार में निहित किए जाने के लिए अधिनियम के प्रावधानों के तहत नोटिस जारी कर दिए हैं। साथ ही इस जमीन की खरीद-फरोख्त पर भी रोक लगा दी है।

राज्य सरकार और लीज होल्डर के बीच चल रही कानूनी लड़ाई के बीच आम नागरिक अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। हजारों पीड़ित लीज होल्डर राजस्व प्रशासन से प्रकृतिक न्याय की गुहार लगा रहे हैं। इन लोगों का कहना है कि उन्होंने नियम-कायदे के अनुसार ही जमीन खरीदी और स्टांप डयूटी देकर रजिस्ट्री कराई। यही नहीं, नियम के अनुसार 45 दिनों तक आपत्ति दर्ज कराने का समय देकर, दाखिल खारिज करवा भू-राजस्व अभिलेखों में नाम दर्ज कराया। अगर कुछ गलत हो रहा था तो सबसे पहले राजस्व विभाग को ही आपत्ति उठानी चाहिए थी।

यह बात भी विचारणीय है कि जब 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दे दिया था तब उसे राजस्व विभाग ने क्यों लागू नहीं किया। अब 25 साल बाद अनजाने में हजारो लोग अपने जीवन भर की कमाई और संपत्ति से बेदखल कर दिए जाते हैं तो उसका जिम्मेदार कौन होगा।

जिला कलक्टर के आदेश से इलाके में हड़कंप मचा है। लोग जनप्रतिनिधियों से गुहार कर रहे हैं तो आंदोलन की राह भी पकड़ रहे हैं। मुख्यमंत्री से प्रतिनिधिमंडल मिल रहे हैं। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इस समस्या का हल निकालने का आश्वासन भी दिया है, लेकिन दो माह में कोई समाधान नहीं तलाशा जा सका है। जानकारों का कहना है कि कलक्टर ने यह आदेश सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर दिया है, लिहाजा राज्य सरकार के स्तर से आसानी से कुछ हो पाना संभव नहीं है। सरकार को सुप्रीम कोर्ट में ही जाना होगा या फिर अध्यादेश लाकर कोर्ट के फैसले को बेअसर करना होगा। अहम बात यह भी है कि यह इलाका सूबे के कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य का निर्वाचन क्षेत्र है तो एक अन्य कैबिनेट मंत्री अरविंद पांडेय का गृह और कर्मक्षेत्र। ऐसे में प्रभावित लोग इन्हीं मंत्रियों के चक्कर काट रहे हैं।

इस मामले में यशपाल आर्य ने आउटलुक से बातचीत में कहा कि फिलहाल यह मामला राजस्व परिषद में पहुंच गया है। उनके साथ कई प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री से मिल चुके हैं। उन्होंने खुद ही मुख्यमंत्री से बात की है। मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया है कि इस समस्या का समाधान निकाला जाएगा और प्रभावितों के हितों की रक्षा की जाएगी। आर्य ने कहा, उनकी कोशिश है कि किसी भी व्यक्ति की जमीन न छिने। कैबिनेट मंत्री अरविंद पांडेय ने कहा कि सरकार के स्तर पर इस समस्या का समाधान निकालने की कोशिशें चल रही हैं। मंत्रियों के आश्वासन अपनी जगह, फिलहाल तो लोगों की सांसें अटकी हुई हैं कि उनका आशियाना रहेगा या उजड़ेगा।

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