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वन्यजीव/चीता: घर आया तेज धावक परदेसी

विलुप्त होने के दशकों बाद अफ्रीकी प्रजाति के चीतों को कूनो के मनोरम जंगल में छोड़ा गया, मगर कई सवाल भी खड़े
कूनो में आए नए मेहमान

गजब की अनोखी 120 किलोमीटर प्रति घंटा रफ्तार से लंबी-लंबी छलांग भरने वाले चीतों की भारत के जंगलों में वापसी हो चुकी है। दिलचस्प बात यह है कि चीतों की वापसी उस क्षेत्र के जंगल में हुई है जिसका उल्लेख प्राचीन काल में भी घने जंगल के रूप में मिलता है। कूनो में बहुतायत में पाए जाने वाले करधई के पेड़ मानसून वर्षा के आगमन से पहले ही वातावरण में मौजूद नमी से हरे हो जाते हैं। कई मायने में यह कूनो की सच्ची भावना का प्रतिनिधित्व भी करता है- कभी भी हार न मानने का जज्बा और कठिनाई में भी जीवित रहने की क्षमता और अंतत: कई चुनौतियों के बावजूद बढ़ने की क्षमता ही इस जंगल की असली कहानी है। ग्वालियर रियासत के 1902 के एक राजपत्र में जिक्र है कि मुगल सम्राट अकबर ने 1564 में मालवा क्षेत्र से लौटते समय शिवपुरी के पास के जंगलों में हाथियों के एक बड़े झुंड को बंधक बना लिया था। विख्यात इतिहासकार अबुल फजल ने भी इस तथ्य का उल्लेख किया है कि इस क्षेत्र में एशियाई सिंह पाए जाते थे। इस क्षेत्र में 1872 में गुना शहर के पास एशियाई सिंह के शिकार का अंतिम उल्लेख भी पाया जाता है।

आखिर विलुप्ति के लगभग 75 साल बाद आठ चीतों को कूनो नेशनल पार्क में ही क्यों बसाया गया, इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है। बात 1994 की है जब अफ्रीका के सिरेन्जटी राष्ट्रीय उद्यान में केनाइन डिस्टेम्पर नामक महामारी फैल गई। बीमारी के चलते लगभग 2,500 शेरों में से 30 प्रतिशत की मौत हो गई थी। इसी के चलते गुजरात के गिर वनक्षेत्र में विचरण करने वाले बब्बर शेरों का खयाल आया और उन्हें बचाने के बारे में एक सोच ने जन्म लिया। 1996 में एशियाई शेरों को बचाने का फैसला किया गया। बात उन्हें कहीं और भी बसाने की आई तो कूनो के खैर और सलाई की बहुतायत वाले अनूठे जंगल, विशाल घास के मैदानों में दर्जनों की संख्या में घास चरते हुए वन्यजीव और खास तौर पर करधई के पेड़ की मौजूदगी के चलते इसे सबसे उपयुक्त माना गया।

आखिर कूनो की सिफारिश देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआइआइ) ने कर दी। इसी के तहत 20 साल में लागू होने वाली तीन चरणों की योजना बनाई गई। योजना के मुताबिक शेरों को यहां बसाने से पहले तय किया गया कि 1995-2000 के दौरान कूनो के इलाके और जंगल को विकसित किया जाए। इसके चलते 24 गांव विस्थापित किए गए। उनमें से कुछ गांव गुर्जर बहुल थे जिनकी आजीविका गाय और भैंस के दूध से होने वाली कमाई से चलती थी। योजना के दूसरे चरण में 2001-2005 के बीच यहां गुजरात के गिर से शेर लाने की योजना बनाई गई। तीसरे चरण में 2006-2015 के बीच उनकी संख्या बढ़ाने की अवधि तय की गई। इन तैयारियों के बीच गुजरात सरकार ने मध्य प्रदेश को शेर देने में रुचि लेनी छोड़ दी। इसके चलते केंद्र सरकार ने 2009 में प्रोजेक्ट चीता की नींव रखी। एनटीसीए की 19वीं बैठक के दौरान पर्यावरण मंत्रालय ने ‘भारत में चीता की आमद की कार्ययोजना’ बनाई। अब इस महत्वाकांक्षी परियोजना के तहत चीते लाए जा रहे हैं। उद्देश्य यह है कि इस प्रजाति को भारत के अपने ऐतिहासिक निवास-स्थल में फिर से स्थापित किया जाए। इस कार्ययोजना के तहत नामीबिया से 50 अफ्रीकी चीते अगले पांच वर्षों में भारत लाए जाएंगे।

कूनो में छोड़े चीते

अपने जन्मदिन पर नरेंद्र मोदी ने जंगल में अफ्रीकी चीतों को छोड़ा

 ‘प्रोजेक्ट चीता’ के तहत नामीबिया से लाए गए पांच मादा और तीन नर चीतों को कूनो नेशनल पार्क में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो रिलीज पॉइंट से छोड़ा। उन्होंने कहा कि कूनो नेशनल पार्क में चीतों को छोड़ने का कदम देश के वन्यजीवन और प्राकृतिक वास को पुनर्जीवित करने और उसमें विविधता लाने के प्रयासों का हिस्सा है। कूनो नेशनल पार्क के डायरेक्टर का कहना है कि चीतों की वापसी से भारत में खुले जंगलों और घास के मैदानों की पारिस्थितिकी को बहाल करने में मदद मिलेगी। कूनो नेशनल पार्क के डायरेक्टर पी.के. वर्मा ने आउटलुक को बताया, ‘‘चीते जैव-विविधता के संरक्षण में मदद करेंगे।’’

यहां पहुंचे चीतों की निगरानी और देखरेख का काम सतपुड़ा टाइगर रिजर्व से आए दो प्रशिक्षित हाथी कर रहे हैं। जानकार कहते हैं कि इन हाथियों की मदद से दुर्गम स्थान या बारिश के पानी से भरे हुए स्थानों में भी आसानी से पहुंचा जा सकेगा। दुनिया में यह पहला मौका है जब बड़े मांसाहारी जंगली जानवरों को एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में लाकर वहां के जंगल में छोड़ा गया है।

शौक का शिकार

सबसे तेज

चीता को जमीन पर सबसे तेज दौड़ने वाला जानवर माना जाता है। 120 किलोमीटर प्रति घंटे (75 मील प्रति घंटे) की गति से स्प्रिंट करने की क्षमता रखने वाला यह जानवर 97 किलोमीटर प्रति घंटे (60 मील प्रति घंटे) की गति से बड़ी ही आसानी से विचरण कर सकता है। अपनी इस रफ्तार को तीन सेकंड से भी कम समय में हासिल कर पाने के कारण चीता अधिकतर स्पोर्ट्स कारों के मुकाबले भी तेज दौड़ता है। कम समय में तेज रफ्तार से चीता अपने शिकार का पीछा करता और पकड़ता है। चीता का सिर छोटा, शरीर छरहरा और पैर लंबे होते हैं। उसके पीले-भूरे रंग के शरीर पर काले धब्बे होते हैं।

भारत में चीता

भारत में आखिरी बार चीता 1948 में देखा गया था। 1952 में उन्हें विलुप्त प्रजाति घोषित कर दिया गया था। भले ही आजादी से पहले अंग्रेजों और भारतीय राजा-महाराजाओं के शौक ने आज की तारीख में चीता को भारतीय सरजमीं से विलुप्त कर दिया है, लेकिन भारत में उनकी उपस्थिति पुरातन काल से रही है। केंद्रीय पर्यावरण, वन व जलवायु मंत्रालय के मुताबिक, चीते का उल्लेख वेदों और पुराणों में भी मिलता है।

पैनी नजर

चीता कंजर्वेशन फंड की रिपोर्ट कहती है कि उनकी आंखों की रोशनी तेज होती है। वे सुबह से शाम के बीच ही पहाड़ी पर चढ़कर शिकार को देखते हैं। चीते की आंखों के नीचे से मुंह तक एक लाइन जाती है, जो सूरज की रोशनी की चकाचौंध को घटाने का काम करती है। इसलिए दूसरे जानवरों के मुकाबले वे बिना बाधा के तेज धूप में भी दूर तक आसानी से देख पाते हैं।

विलुप्ति का खतरा

आज के परिदृश्य में चीतों को जलवायु परिवर्तन, मनुष्यों द्वारा शिकार,मुक्त विचरण के लिए खुले घास के मैदानों के विनाश के चलते विलुप्त होने के दबाव का सामना करना पड़ रहा है। जानकारों का कहना है कि चीतों में प्रजनन की सफलता की दर काफी कम होती है, जिसका अर्थ यह है कि एक प्रजाति के रूप में वे हमेशा प्रजनन करने में कई बार सक्षम नहीं हो पाते हैं।

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