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बंदूक नहीं, अब विकास

नक्सल पर्चे में बस्तर के विकास का मुद्दा उभरा तो छिड़ी बहस
पहल कितनी खरीः नक्सल प्रभावित सुकमा का एक स्कूल

इसे छत्तीसगढ़ की सत्ता में बदलाव का असर कहें या सिमटते आधार का डर, राज्य के बीजापुर इलाके के पामेड़ में मिले एक पर्चे ने नक्सलियों का नया चेहरा सामने लाने का काम किया है। इस पर्चे में नक्सलियों ने बस्तर में शायद पहली बार सरकार से शिक्षकों और डॉक्टरों की तैनाती की मांग की है। पर्चे में कुल 17 मांगें हैं जिनमें किसानों और महिलाओं को लेकर चिंता भी दिखाई पड़ती है। 

अब तक स्कूल की इमारतें ध्वस्त करते रहे नक्सलियों का यह रूप कितना खरा है इसका पता लगाने के लिए पुलिस पर्चे की सत्यता की जांच कर रही है। नक्सल ऑपरेशन के डीआइजी सुंदरराज पी. कहते हैं, “नक्सलियों का बस्तर में विकास की बात करना अच्छा है। लेकिन, जब तक पर्चे की पुष्टि नहीं होती, उनके बदले रुख पर प्रतिक्रिया देनी जल्दबाजी होगी।” पर्चा पामेड़ एरिया कमेटी भाकपा (माओवादी) की तरफ से लिखा और चस्पां किया गया है। बस्तर के आइजी विवेकानंद सिन्हा ने बताया कि अब तक किसी भी नक्सली संगठन ने इस पर्चे का खंडन नहीं किया है। जगदलपुर के वरिष्ठ पत्रकार करीमुद्दीन का मानना है कि यह पर्चा नक्सलियों ने ही जारी किया है, क्योंकि वे समय-समय पर इस तरह की मांगें उठाते रहते हैं। कुछ लोग इसे नक्सलियों की चाल भी बता रहे हैं। जगदलपुर के संजय सिंह ठाकुर का कहना है, “किसी बड़े नक्सल नेता की ओर से यह पर्चा जारी नहीं किया गया है। इसलिए, इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।”

यह पर्चा ऐसे वक्त सामने आया है जब राज्य की सत्ता में बदलाव हुए डेढ़ महीने से ज्यादा का समय हो चुका है। पूर्ववर्ती रमन सिंह सरकार ने छात्रों और शिक्षकों की कमी के चलते बस्तर में 782 स्कूलों को बंद कर दिया था। आदिवासी बच्चों के आवासीय स्कूलों (आश्रमों) की सुविधाओं में कटौती की थी। पर्चे में स्कूल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खोलने, युवाओं को रोजगार देने, पुलिस और सुरक्षा बल के शिविर हटाने तथा पुलिस में स्थानीय आदिवासियों की भर्ती रोकने जैसी मांगें की गई हैं।

भाकपा नेता धर्मराज महापात्र का कहना है कि पर्चे की सत्यता की जगह इसमें उठाए मुद्दों पर विचार किया जाना चाहिए। उन्होंने बताया, “आज बस्तर के आदिवासी अलग-थलग पड़े हैं। उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सुविधाएं और अधिकार देने की जरूरत है।” उल्लेखनीय है कि नक्सलियों का मुकाबला करने के लिए डीआरजी और बस्तरिया बटालियन में बड़ी संख्या में स्थानीय युवक भर्ती किए गए हैं। इस रणनीति से सुरक्षा बलों को माओवादियों पर बढ़त मिली हुई है। दंडकारण्य क्षेत्र में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ों में नक्सलियों को खासा नुकसान उठाना पड़ा है। काडर बेस कम होने से भी नक्सली बैकफुट पर हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि नई सरकार को नक्सली अपने तरीकों में बदलाव करने के लिए तैयार होने का संकेत देने की कोशिश कर रहे हैं।

वैसे भी, भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली नई सरकार ने नक्सलियों को लेकर अभी तक अपना रुख साफ नहीं किया है। पीड़ित आदिवासियों और अन्य लोगों की राय जानने के बाद आगे की रणनीति बनाने की बात कहकर बघेल सरकार ने पिछली सरकार की नक्सल नीति को ही जारी रखा है। लेकिन, डेढ़ महीने में नक्सलियों के खिलाफ कोई बड़ा ऑपरेशन नहीं हुआ है। नक्सली भी छिटपुट घटनाओं तक ही सीमित हैं। हालांकि, बस्तर के आइजी विवेकानंद सिन्हा ऑपरेशन बंद होने की बात को गलत बताते हैं।

जानकारों का कहना है कि फोर्स को सरकार के रुख का इंतजार है। बघेल सरकार ने अब तक नक्सल ऑपरेशन का जिम्मा स्वतंत्र तौर पर किसी अधिकारी को सौंपा भी नहीं है। डीजीपी डीएम अवस्थी ही अतिरिक्त रूप से कमान संभाले हुए हैं। वे आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) के डीजी भी हैं। यानी सुरक्षा से लेकर नक्सलियों से निपटने का काम सरकार ने अवस्थी के जिम्मे ही छोड़ रखा है। 

कहा जा रहा है कि अब लोकसभा चुनाव के बाद ही छत्तीसगढ़ सरकार का रुख साफ होगा। वैसे भी चुनाव के चलते बस्तर को सेंट्रल फोर्स कम ही मिल पाएगी। खैर, तमाम किंतु-परंतु के बावजूद बस्तर के अंदर से विकास की बात उठना एक सकारात्मक संदेश तो है ही। 

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