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वायरस के वक्त सदमा

महामारी हमारी जिंदगी में उथल-पुथल मचाने के साथ ऐसे जख्म दे रही है जिसे ठीक होने में वर्षों लगेंगे
घर वापसीः काम-धंधे बंद होने पर गांव लौटने को मजबूर श्रमिक

सदमा वह घाव है जो देह से आत्मा में जख्म उतार देता है। उसके साथ कलंक और लांछन की छायाएं डोलती आती हैं। अमूमन वह ज्यादातर आपदाओं के पीछे-पीछे आता है और उसे बाद का असर समझा जाता है। कोरोना वायरस महामारी का सदमा भी ऐसा ही है।

आज भारत खुद को एक मध्यवर्गीय समाज के रूप में देखता है, इसलिए वह मध्यवर्गीय नजरिए से ही कदम बढ़ाता है। लॉकडाउन की पूरी अवधारणा एक अनुशासनात्मक कार्रवाई की तरह अपनाई गई, जैसे जिंदगी को एक टाइमटेबल में ढालने की कोशिश हो। यह एक मानसिकता और जीवन-ढर्रा है। टाइमटेबल ठहर जाए तो मध्यवर्ग अपनी कैद में सिमट जाता है और उसके तय रोजनामचे थम जाते हैं। लॉकडाउन में उच्च मध्यवर्ग को बोरियत, तन्हाई, बेचैनी, खालीपन और हां, घर से काम का एहसास हुआ। फिर भी, मध्यवर्गीय मानसिकता हाशिए पर गुजर-बसर करने वालों, प्रवासी मजदूरों, बंजारों के प्रति पूरी तरह बेरुखी दिखाती रही, जिन्हें कोरोना वायरस के नतीजे से आया सदमा सबसे पहले लगा। 

इस अनौपचारिक समाज का सदमा देशव्यापी लॉकडाउन के ऐलान के पल ही गहरा हो गया, जब मजदूरों को अपनी नागरिकता और वजूद बेगाना लगने लगा। प्रवासी मजदूरों ने पाया कि वे हाशिए पर बैठे संदिग्ध और बेकार हैं। इस बेगानेपन के झटके से वे भूख और अपमान सहने को अभिशप्त हो गए। उनके साथ जीवाणुओं के झुंड जैसा बर्ताव किया गया और सरहदों पर उन पर केमिकल का छिड़काव किया गया। अलबत्ता, जिंदगी के इस स्याह पक्ष से मध्यवर्गीय सैलानी भी मुकाबिल हुए, जब वे सरहद की ओर भागे तो वह बंद हो चुकी थी, सामने खड़ी पुलिस प्रवासी और अप्रवासी के फर्क से नावाकिफ थी। अचानक भारत का आम आदमी दुश्चिंता और अकेलेपन के खौफ में घिर गया, उसे लगा कि घर वापसी के कोई मायने नहीं हैं। प्रवासी किसी अजीबोगरीब जीव की तरह चौखटे पर घिरा था, जिसे अफसरशाही पहचानने से ही इनकार कर रही थी। अपना राशन कार्ड घर छोड़ आए बिहारी प्रवासी मजदूरों ने खुद को भूख से लाचार पाया। अफसोस! बड़े अफसाने में उनकी बेचैनी और डर का कहीं जिक्र तक नहीं है, इससे मानसिक संताप और बढ़ने लगा है। इस बेआबरू बर्ताव में उन्होंने यह भी पाया कि देश के अफसाने में उनकी कोई जगह नहीं। वे कोरोना कथा के ब्लैकहोल और ब्लैकबॉक्स थे। प्रवासियों को एहसास हुआ कि कुछ आपदाएं दूसरों से कुछ ज्यादा ही अलग हैं। मसलन, चक्रवात और बाढ़ की विभीषिकाओं में कमोवेश एक जैसी प्रतिक्रिया और अफसाने उभर कर आते हैं लेकिन कोरोना वायरस में जिंदगी को राहत पहुंचाने वाले मिथक बेहद थोड़े हैं।

अमूमन जिंदगी और चहल-पहल से भरी-पूरी झुग्गी बस्तियां पूरी तरह वीरान हो गईं। लॉकडाउन शुरू हुआ तो छोटी-छोटी दुकानों, खोमचों और ढाबों पर पुलिस की दबिश पड़ी। रोजाना कमाने-खाने वालों के हाथ कोई रोजगार नहीं था। उन्हें बस रोज-ब-रोज नए नजारे खुलने का इंतजार था। बेरोजगारी, भूख और अनिश्चय ही अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का खौफ बन गया। चेन्नै की एक झुग्गी बस्ती में एक औरत ने मुझे बताया, “घरों में बर्तन-भाड़े के काम में लगी कुछेक औरतों का काम तो चालू है लेकिन हमारे मर्दों का क्या, जिनके पास इधर-उधर मंडराने और इंतजार करने के सिवा कुछ नहीं है।” इंतजार वह सदमा है जिसे अमीर-उमरा समझ ही नहीं सकते। इंतजार आपकी पहचान, भरोसे को तोड़ देता है और काबिलियत पर सवाल खड़ा कर देता है। इंतजार चुपचाप खालीपन लाता है क्योंकि वह बेवजूद बनाता चलता है। झुग्गी बस्तियां इंतजार और अनिश्चय के सदमे में फंसी हैं, मगर मीडिया में उनकी जगह नामालूम-सी है। वह तो कॉरपोरेट अफसरान के घर से काम करने के जश्न में मस्त है।

जिसे आज नागरिक जीवन कहा जाता है, वह डरावने अनिश्चय के दुश्चक्र में फंस गया है। लॉकडाउन हाब्स नीति (16वीं सदी के ब्रिटिश दार्शनिक थॉमस हाब्स मनुष्य की प्राकृतिक अवस्था के हिमायती थे, जिसमें हर कोई अपने वजूद के लिए दूसरे से लड़ता-भिड़ता है) जमीन पर उतार लाता है, कुछ निरंकुश सत्ता के दायरे खींचता है, जिनमें पुलिस और क्लर्क गश्त लगाते हैं। पुलिस तमाम चुनौतियों से ऐसे निपटती है, गोया सभी कानून-व्यवस्था की समस्याएं हों, जिसमें हर कोई सिद्धांतत: संदिग्ध होता है। वह बिना सोचे-समझे लाठी भांज देती है, उन पर भी, जो सरकारी जिम्मेदारियां निभाकर लौट रहे होते हैं। पुलिसवालों के इस डरावने अजनबीपन से बचा-खुचा मकान मालिकों ने मरीजों, डॉक्टरों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए एक अस्पृश्यता का ताना-बाना बुनकर पूरा कर दिया है। मकान मालिकों को पूरा यकीन हो गया कि ये संक्रमण के वाहक हैं और उन्हें दूर रखना चाहिए। लिहाजा, डॉक्टरों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सामने अजीब विडंबना पैदा हो गई है। दुखद यह है कि शहर में ये त्रासदियां और निरंकुशता के तौर-तरीके सुर्खियों से गायब हैं।

सही कहें तो अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का जो सदमा सुर्खियों से गायब और अनकहा है, उसके झटके अब मध्यवर्ग को भी लगने लगे हैं। इसमें वक्त एक अहम किरदार है क्योंकि वक्त की पाबंदी का रोजनामचा या टाइमटेबल ही तो मध्यवर्ग को पहचान और स्थायित्व देता है।

एक गृहिणी का दर्द है कि लोगों के पास उसके डर को सुनने की फुर्सत ही नहीं। उन्होंने मुझसे कहा कि उन्हें यह दुख साल रहा है कि कोई उनसे अनजाने में संक्रमण का शिकार न हो जाए। उन्होंने यह भी बताया कि उनका यह खौफ अफवाहों और सड़क से आ रही खबरों से कई गुना बढ़ गया है। एक तो यही कि एक शख्स को भीड़ सिर्फ इसलिए बुरी तरह धराशायी कर देती है क्योंकि वह लगातार खांस रहा था। सामान्य खांसी कभी रोजाना की आई-गई हुआ करती थी, लेकिन अब वह डरावनी और मनहूस बन गई है। गृहिणी ने यह भी बताया कि बुजुर्ग लोग बेहद घबराए-से हैं क्योंकि उन्हें चुन-चुनकर अलग किया जा रहा है। एक 70 साल के बुजुर्ग ने कहा, “मैं चट्टान की तरह मजबूत महसूस किया करता था लेकिन अब लोग मुझे संदेह की नजर से देखते हैं।” बदतर तो यह कि खासकर कमजोर याददाश्त के शिकार बुजुर्ग अब खुद को लुप्तप्राय जैसे पा रहे हैं। वे दूसरों की मौजूदगी में शर्मिंदा महसूस करने लगे हैं, गोया वक्त अब उनके साथ नहीं है।

हालांकि जिसमें सब शामिल हैं, वह हकीकत यह है कि कोरोना वायरस ने मौत, देश के शहरों में मौत के सिलसिले का एक वातावरण तैयार कर दिया है। किसी एक की मौत तो चलती है मगर मौत का सिलसिला एक अलग तरह का खौफ और लाचारी पैदा करता है। यह महामारी का ऐसा सबब है जिससे सामान्य जीवन थम गया है। रोज-ब-रोज मौत के सिलसिले को मौसम की खबरों जैसा बेरुखी से परोसा जा रहा है, अखबार उस दिन के आंकड़े चस्पा भर कर देते हैं। घातक शब्द नियतिवाद में एक जादुई अर्थ पा जाता है। लोग लाचार, असहाय-से महसूस करने लगे हैं कि वायरस एक-एक कर सभी को निगल जा सकता है। मौत का सिलसिला गहरा सदमा  पैदा करता है और हमारे समाज में इसे समझने के अफसाने या मिथक मामूली ही हैं।

बेगानापन, हिंसा, वजूद न होना, बेरुखी का माहौल और अनिश्चितता ऐसे जख्म देती है, जो दिखता तो नहीं मगर निपट वास्तविक होता है, जिसकी टीस आदमी को कुछ कमतर आदमी जैसा महसूस कराती है। हमारे देश में मानसिक सदमे और संताप पर गंभीर रुख अख्तियार करने की व्यवस्था की दरकार है। हम सदमे को चिकित्सा शास्‍त्र और मनोविज्ञान के नजरिए से देखते हैं, जैसे वह हमारी जिंदगी में हिंसा का हिस्सा हो और उसके प्रति प्रोफेशनल रुख अपनाते हैं। सदमा अकेलेपन और तन्हाई से ज्यादा घातक है। उसके टीसते घाव को समाज के मरहम की दरकार है। सहानुभूति रखने वाले समाज और मेल-मुलाकात, बातचीत से ही उसका इलाज संभव है। हमारा समाज उनका दर्द सुनना फिर शुरू करे। त्रासदी यह है कि सदमा अभी भी वर्जित, छुपाने-दबाने जैसा माना जाता है। आशा यही है कि वायरस इन सारे अफसानों को बेपरदा कर देगा। लोकतंत्र में मजदूरों, गृहिणियों, मरीजों के दुख-दर्द पर मरहम रखने की दरकार है, जैसे वोटरों और उपभोक्ताओं को तवज्जो दी जाती है।

(लेखक प्रखर समाज-विज्ञानी, वैकल्पिक विचारों और परिकल्पना से संबंधित प्रतिष्ठित बौद्धिक समूह कंपोस्ट हीप (उर्वर टोली) के सदस्य हैं)

 

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देश के अफसाने में प्रवासी मजदूरों के दुख-दर्द और खौफ का कहीं जिक्र तक नहीं है, इससे मानसिक संताप और बढ़ जाता है

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