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“महामारी को सरकार ने महात्रासदी में बदला”

भूकंप, सूनामी, बाढ़, चक्रवात तमाम आपदाएं आईं लेकिन गरीबों की ऐसी दुर्दशा कभी नहीं हुई। इसलिए इतनी बड़ी आपदा में सेना की मदद क्यों न ली जाए?
यशवंत सिन्हा

पहले चंद्रशेखर सरकार और फिर अटलबिहारी वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री और फिर विदेश मंत्री जैसा अहम जिम्मा संभाल चुके 83 वर्षीय यशवंत सिन्हा 2014 के बाद से ही दलगत राजनीति से बाहर हैं लेकिन बतौर सार्वजनिक शख्सियत वे आज भी सक्रिय हैं। हाल में लॉकडाउन के दौरान गरीब और प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा के खिलाफ उन्होंने राजघाट पर लगभग 11 घंटे का धरना और गिरफ्तारी दी। उनकी मांग है कि मजदूरों को उनके घर ससम्मान पहुंचाने के लिए सेना की मदद ली जाए। इस त्रासद दौर की घटनाओं, सरकारी कदमों, राहत पैकेज जैसे तमाम मुद्दों पर उनसे हरिमोहन मिश्र ने बातचीत की। प्रमुख अंशः

लॉकडाउन में समूचे देश में गरीब, मजदूरों के अपने गांव-घर के सफर पर पैदल ही निकल पड़ने की त्रासदी दिख रही है। आपने उन्हें घर पहुंचाने के लिए सेना लगाने की मांग की है। इसके पीछे क्या तर्क है?

तर्क सीधा और साधारण-सा है कि जब-जब कोई आपदा आई है, राहत कार्य के लिए सेना की मदद ली जाती है। देश के कानून में प्रावधान है कि किसी जिले में भी गंभीर समस्या पैदा हो जाती है तो जिलाधिकारी पास के कैंटोनमेंट से सेना को मदद के लिए बुला सकता है। मुझे लगता है और बहुत सारे लोगों को लगता है कि देश में इतने बड़े पैमाने पर एक हिस्से से दूसरे हिस्से में लोगों का पलायन 1947 के बाद नहीं देखा गया। यह 24 मार्च को लॉकडाउन शुरू होने के साथ ही शुरू हो गया था। उसके बाद अप्रैल-मई दो महीने होने जा रहे हैं और लोग तमाम तकलीफें झेलकर सड़कों पर भूखेे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करने पर मजबूर हैं। बूढ़े, बच्चे, महिलाएं सभी यह त्रासदी झेल रही हैं। सरकार ने लॉकडाउन लगाने के पहले यह सोचा ही नहीं कि पूरे देश को बंद कर देने से कितनी तरह की तकलीफें हो सकती हैं। सबसे पहले यह ध्यान में आना चाहिए था कि जो करोड़ों लोग रोजी-रोटी की तलाश में अपने प्रदेश से दूसरे प्रदेशों में गए हैं, उनका क्या होगा। यह कोई छुपी बात नहीं है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे तमाम राज्यों के लोग उन प्रदेशों में जाते हैं, जो कुछ विकसित हैं। ऐसे में सारे उद्योग-धंधे बंद हो गए और वे भूखों मरने को मजबूर हो गए, तो बड़े शहरों, औद्योगिक केंद्रोंं वगैरह से पलायन शुरू हुआ। यह समस्या जब सामने आ गई तो 60 दिनों में भी कोई समुचित इंतजाम नहीं किया गया। भारतीय रेल की क्षमता रोजाना तीन करोड़ लोगों को गंतव्य तक पहुंचाने की है। अब कुछ हजार या एक-दो लाख लोगों को एक दिन में ले जाया रहा है तो जितनी बड़ी संख्या है, उसके मुकाबले यह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। इसलिए मैंने कहा कि देश की प्रशासनिक मशीनरी इसका हल नहीं निकाल पा रही है, तो सेना से कहा जाए कि वह गरीब मजदूरों को ससम्मान उनके घर पहुंचाए। मैं ससम्मान पर जोर दे रहा हूं क्योंकि उनके साथ अन्याय हो रहा है, उन पर लाठियां बरसाई जा रही हैं, सेनिटाइजर की बौछार की गई, वे औने-पौने दाम देकर ट्रकों, बसों, टेंपू में अपने गांव जाने को मजबूर हैं, यमुना रात में पार कर रहे हैं, क्योंकि पुलिस उन पर डंडा चला रही है। गरीबों की ऐसी दुर्दशा आजादी के बाद कभी भी नहीं देखी गई। भूकंप आए, सूनामी आई, बाढ़, चक्रवात तमाम तरह की आपदाओं से हम निपट चुके हैं लेकिन ऐसी विपत्ति आज तक नहीं आई। इसलिए इतनी बड़ी आपदा में सेना, अर्द्घसैनिक बलों को क्यों न बुलाया जाए? फिर, हाल में सेना के हेलिकॉप्टर से फूल बरसाए गए, नौसेना के बेड़े में बत्तियां जलाई गईं, अस्पतालों में सेना के जवानों ने स्वास्थ्यकर्मियों को सम्मानित किया। अच्छा किया लेकिन इतनी बड़ी त्रासदी का भी तो समाधान कीजिए। मैं 60 साल के अपने प्रशासनिक और राजनैतिक अनुभव के आधार पर कह रहा हूं कि सेना के हवाले किया जाए, तो 24-48 घंटे के भीतर इसका समाधान हो सकता है।

तो, क्या सरकार ने कोविड महामारी की रोकथाम के लिए जो लॉकडाउन की रणनीति अपनाई, वह ज्यादा बड़ी त्रासदी साबित हुई?

हां, बिलकुल। सरकार को बिना सोचे-समझे कदम उठाने की आदत-सी पड़ गई है। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री को रात आठ बजे ऐलान करना बेहद पसंद है और अचानक बिना मोहलत दिए फरमान जारी कर देते हैं। सोचिए, आज कहीं नोटबंदी की बात होती है। उसके जितने भी उद्देश्य बताए गए, सब बुरी तरह फेल हो गए। इसके विपरीत उससे छोटे उद्योग-धंधों की कमर टूट गई। आज किसी भी समझदार आदमी के लिए उसका मखौल उड़ाने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। इसलिए सरकार ने उसे नजर से ओझल कर दिया। उसके बाद बिना सोचे-समझे जीएसटी लाई गई। उससे कितनी तकलीफ हुई ग्राहकों, व्यापारियों को यह सभी जानते हैं। फिर, लॉकडाउन का ऐलान चार घंटे की मोहलत पर कर दिया गया। अगर किसी अवर सचिव से ही पूछा जाता कि लॉकडाउन से क्या-क्या दिक्कतें आ सकती हैं तो वह बता देता। इसमें कोई रॉकेट साइंस नहीं है। जो दिक्कतें आने वाली थीं, उसका पहले से इंतजाम कर लिया जाता। सरकार के पास बहुत वक्त था, क्योंकि भारत में पहला कोरोना का मामला विदेश से आया 30 जनवरी को केरल में। तब से पूरी फरवरी और मार्च के तीन हफ्ते निकल गए। तब जाकर सरकार ने लॉकडाउन सहित कुछ कदम उठाए। पहले सरकार के कदम न उठाने के कई राजनैतिक कारण हैं जिसकी चर्चा मैं आज नहीं कर रहा हूं। सब जानते हैं उसे। 23 मार्च को संसद का सत्र खत्म किया गया और 24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा की गई। ऐसा लगता है कि सरकार में जितने लोग बैठे हैं, या तो उनसे चर्चा नहीं होती है या उनकी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती। यह सरकार की कार्यशैली पर बहुत बड़ा सवाल है। इसमें मैं यह भी जोड़ना चाहूंगा कि जब संक्रमण के मामले 350 थे तब लॉकडाउन लगा दिया गया और चार बार बढ़ाया गया। अब जब मामले 1,20,000 से ऊपर पहुंच गए हैं तब लॉकडाउन खोल रहे हैं। जब मजदूर थे तो सारे उद्योग-धंधे बंद कर दिए। अब मजदूर चले गए तो कह रहे हैं कि उद्योग-धंधे चालू करो। सोच क्या है इसके पीछे? मैं तो बिलकुल आश्चर्यचकित हूं, हैरान हूं कि आखिर देश में हो क्या रहा है।

बिहार में शुरुआती दौर में पहुंचे तकरीबन एक लाख लोगों में संक्रमण निगेटिव पाया गया था और अब पहुंचने वालों में एक-चौथाई पॉजिटिव मामले मिल रहे हैं। तो, ऐसा लगता है कि बीमारी भी फैलती जा रही है।

बिलकुल फैला लिया है। कहावत है कि न खुदा मिला, न बिसाले सनम, वही स्थिति हो गई आज भारत सरकार की। मैंने अपने लेखों और इंटरव्यू में कहा है कि केंद्र को राज्य सरकारों से तालमेल कायम करके यह करना चाहिए था कि जो गरीब, मजदूर जहां हैं, वहीं रुकें। खाना-पानी, पैसे और चिकित्सा की व्यवस्था कर दी जाती तो वे रुक सकते थे। लेकिन सरकार खर्च करने को तैयार नहीं है, राज्यों से तालमेल बनाकर कुछ करने को तैयार नहीं है। मजदूर जब लाचार हो गया, भूखे मरने की नौबत आ गई, तब न अपनी खोली से निकला।

गरीब मजदूरों की आशंकाएं भी शायद सही साबित होती लग रही हैं कि तीन-चार महीने से पहले लॉकडाउन नहीं खुलने वाला है?

मोदी जी ने लॉकडाउन शुरू करते वक्त कहा था कि महाभारत 18 दिनों में खत्म हुआ, यह 21 दिनों में खत्म होगा। नासमझी का आलम तो यह है कि जब संक्रमण फैल गया तो रेल, हवाई जहाज चला रहे हैं। इससे तो नए-नए इलाकों में लोगों में बड़ी संख्या में संक्रमण का खतरा बढ़ गया है।

सरकार ने हाल में बड़े राहत पैकेज का ऐलान किया, जिसे जीडीपी का 10 प्रतिशत बताया गया जबकि लगभग 40 स्वतंत्र संस्थाओं, समूहों ने उसे वास्तव में 1 प्रतिशत के आसपास ही बताया। आपकी राय क्या है?

मेरी भी वही राय है। मैं वित्त मंत्री महोदया के पांच दिनों के सीरियल को बड़ी तन्मयता से देखता-सुनता रहा। निराशा तीन-चार कारणों से हुई। सरकार ने दूसरों यानी बैंकों-वित्तीय संस्थानों के कंधों पर बंदूक रखकर चलाया, अपने ऊपर बहुत कम बोझ लिया। दूसरे, उन्होंने विश्व, अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा वगैरह की तमाम बातें कीं। लेकिन धरातल पर जो समस्या है, उसके बारे में बहुत कम बात की। तीसरे, उन्होंने जीडीपी के 1 प्रतिशत के आसपास यानी तकरीबन 2 लाख करोड़ रुपये के जो ऐलान किए, उसमें 40,000 करोड़ रुपये मनरेगा में अतिरिक्त आवंटन का है। उसके अलावा किसी मद में 2000 करोड़ रुपये, किसी में 2,500 करोड़ रुपये, किसी में 3000 करोड़ रुपये सरकारी बजट से जा रहा है। बाकी सारा का सारा कर्ज की शक्ल में उपलब्ध कराया जाना है। लेकिन कर्ज तो चुकाना पड़ता है। उद्योग-धंधे वाले उत्पादन शुरू करने के लिए ही कर्ज लेंगे, लेकिन आज की स्थिति में उत्पादन कैसे होगा। जो इलाके रेड या कंटेनमेंट जोन में हैं, उन्हीं में देश की जीडीपी की करीब 60 फीसदी हिस्सेदारी है। अगर ये इलाके बंद हैं तो कहां उत्पादन होगा, कहां बिकेगा। इसलिए सरकार जो बिना सोचे-समझे आदेश जारी कर दे रही है, उसका कोई मतलब नहीं है। जैसे पहले आदेश जारी किया कि किसी की तनख्वाह नहीं कटेगी, लेकिन अब आदेश वापस ले लिया गया। छोटे उद्योग-धंधे तो बंदी से ध्वस्त हो गए। इसलिए यह जिम्मेदारी सरकार को अपने कंधे पर लेनी चाहिए थी। उनके यहां पैसा पहुंचाना चाहिए था। हमारे यहां 10 करोड़ टन अनाज का भंडार है, उसे लोगों तक मुहैया कराना चाहिए था। वाजपेयी सरकार के दौरान सूखा पड़ा और कई राज्यों में दुर्भिक्ष जैसी स्थिति पैदा हुई, तो राज्यों को उदारता से अनाज मुहैया कराया गया, ताकि वे वितरित कर सकें। फूड फॉर वर्क कार्यक्रम चले। 2002 में मानसून कम आया और 40 लाख टन अनाज कम उपजा। लेकिन इन सब उपायों से दाम नहीं बढ़े। इसलिए सरकार के पास तो सब उपाय है। सरकार चाहे तो बहुत कुछ कर सकती है। क्यों नहीं ये लोग कर रहे हैं, ये मेरी समझ से परे है। 

सरकार ने गरीबों को जो राहत राशि और पीडीएस में अतिरिक्त अनाज देने का ऐलान किया है। उस पर आपकी राय क्या है?

जन धन खातों में तीन महीने तक 500 रुपये डालने का ऐलान किया तो उसका दृश्य टीवी पर हम सबने देखा। हमारे यहां जो थोड़ी-बहुत मीडिया की स्वतंत्रता बची है, उसमें कभी-कभी ऐसा दिख जाता है। पैसा निकालने के लिए बैंकों के आगे महिलाएं लाइन में लगीं, लेकिन उनका नंबर आया तो पता चला कि जन धन खाता बंद या डोरमेंट हो चुका है। उन्हें निराश होकर लौटना पड़ा। मेरा मानना है कि एक महीने में 500 रुपये बहुत कम है, 5,000 रुपये क्यों नहीं। (नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्‍त्री) अभिजीत बनर्जी ने कहा कि 7,500 रुपये देना चाहिए, उन्हें अनाज मुहैया कराया जाना चाहिए। 

प्रतिरोधः गरीबों की दुर्दशा के खिलाफ राजघाट पर धरने पर बैठे यशवंत सिन्हा

एमएसएमई पैकेज पर क्या राय है?‍

उस 3-4 लाख करोड़ रुपये के पैकेज में कर्ज उपलब्‍ध कराने का मामला है। उसमें ब्याज कम नहीं है, बस एक ही रियायत है कि 12 महीने का मोरेटोरियम है। असल में कर्ज भी दे रहे हैं तो वह सस्ता होना चाहिए। इसके अलावा उसकी परिभाषा को बदला है। उसकी सच्चाई यह है कि जून 2019 में यू.के. सिन्हा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इसकी सिफारिश की थी। उसके बाद जुलाई और फरवरी में दो बजट आए लेकिन कोई जिक्र नहीं था। अब कोरोना काल में उसकी कुछ बातें मानी हैं। हालांकि मैं बता दूं कि एमएसएमई को एक इकाई मानना सही नहीं है। करीब छह करोड़ ऐसी इकाइयां हैं जिनमें 99 फीसदी कुटीर या उससे कुछ बड़ी इकाइयां हैं, सिर्फ एक फीसदी ही छोटे या मझोले उद्योग हैं। तो, 99 फीसदी के पास पूंजी बहुत थोड़ी होती है, रोज कमाने-खाने जैसी स्थिति ही होती है। आज उनका सरकार पर पांच लाख करोड़ रुपये (जैसा हाल में एमएसएमई मंत्री नितिन गडकरी ने माना भी) बकाया है तो क्यों सरकार उन्हें उनकी देय रकम नहीं देती है।

इसमें कुछ निजीकरण के प्रस्तावों का भी ऐलान किया गया है, उन पर आपकी राय?

एक तो अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में कुछ ऐलान किया है, जिसका आम आदमी से कोई लेनादेना नहीं है, बल्कि आज के दौर में तो यह जले पर नमक छिड़कने जैसा है। दूसरे, अरुण जेटली के बजट की कई घोषणाओं को रिसाइकिल करके दोबारा ऐलान कर दिया गया। तीसरे, कह दिया गया कि राज्यों के कानून बदल देंगे। राज्यों के कानून केंद्र कैसे बदल देगा? जैसे, कृषि उपज विपणन मंडी समितियों के कानून तो राज्यों के हैं। वह राज्य सरकारों की आमदनी का एक स्रोत है। जरूरी जिंस प्रबंधन कानून (एस्मा) की एक धारा-7 में बदलाव की बात है, कि व्यापारी कितना स्टॉक रख सकता है, लेकिन इसमें बदलाव होता रहता है।

अब केंद्र मानो राज्यों पर जिम्मेदारी छोड़ रहा है, इसे आप कैसे देखते हैं?

मुझे यह मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी की सोची-समझी रणनीति लगती है कि जब दुर्दशा बढ़ने की आशंका है, तो सब कुछ राज्यों पर डालकर हाथ झाड़ लिया जाए। खासकर विपक्षी पार्टियों की जहां सरकारें हैं महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब, राजस्‍थान वगैरह में उन्हें निशाने पर लिया जाए। बंगाल में चुनाव भी होने हैं। इस संकट काल में भी भाजपा को राजनीति सूझती है!

लेकिन विपक्ष भी खुलकर बाहर नहीं निकल रहा है। विपक्षी पार्टियों के इस रवैए पर आप क्या सोचते हैं?

सरकार से मेरी जितनी निराशा है, उससे ज्यादा निराशा विपक्षी दलों से है। महाराष्ट्र में भाजपा प्रदर्शन कर सकती है तो विपक्षी दल क्यों नहीं निकल रहे हैं? कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने बस विपक्षी दलों की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग कर ली और एक बयान जारी कर दिया। तो, क्या इससे जिम्मेदारी समाप्त हो गई। उनको तो आज सड़कों पर होना चाहिए।

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मुझे यह मोदी सरकार और भाजपा की सोची-समझी रणनीति लगती है कि जब दुर्दशा बढ़ने की आशंका है तो सब कुछ राज्यों पर डालकर हाथ झाड़ लिया जाए

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