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न्यायिक पारदर्शिता तो महज छलावा

संवेदनशील मामलों में मीडिया को रिपोर्टिंग से रोकने और सरकार से बंद लिफाफे में जवाब हासिल करने के बढ़ते चलन ने खुली अदालत के सिद्घांत को बेमानी बनाया, आरटीआइ के तहत सूचनाओं पर भी कई बंदिशें
खुली सुनवाईः चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ए टेल ऑफ टू सिटीज में वर्णित अदालती दृश्य का चित्रांकन, रेखांकनः फ्रेड बर्नार्ड

अस्सी के दशक की शुरुआत में ही सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत बोलने की आजादी के मौलिक अधिकार में ‘खुली सरकार’ की अवधारणा भी नत्थी कर दी थी। इसमें यह तर्क निहित था कि सरकार के कामकाज की जानकारी के बगैर उसके खिलाफ बोलने की आजादी के अधिकार का असलियत में इस्तेमाल संभव ही नहीं है। आखिरकार 2005 में सूचना का अधिकार कानून के प्रभावी होने के बाद सरकार के कामकाज के दरवाजे धीरे-धीरे खुलने शुरू हुए, क्योंकि लोग लाखों आरटीआइ आवेदनों के जरिए सरकार से जवाब और दस्तावेज मांगने लगे। दुर्भाग्य से, भारतीय न्यायपालिका के बारे में ऐसा नहीं है।

न्यायपालिका के दो पक्ष हैं। एक, अदालतें, जहां सुनवाई होती है, और दूसरे, वह विशाल नौकरशाही तंत्र, जो अदालतों के संचालन के लिए जिम्मेदार है। और ये दोनों ही किसी भी पारदर्शिता के समान रूप से विरोधी हैं।

खुली अदालतोंका सिद्धांत

परंपरा से कोर्ट रूम की कार्यवाही हमेशा से लोगों के लिए खुली रही है। न्यायपालिका में जनता का भरोसा बनाए रखने के लिए खुली अदालतों का सिद्धांत महत्वपूर्ण है। प्रसिद्ध दार्शनिक जेरेमी बेंथम ने खुली अदालतों के महत्व को कुछ इस प्रकार जाहिर किया है, “गोपनीयता के अंधेरे में, तमाम तरह के क्षुद्र स्वार्थ और बुरी नीयतें खुलकर खेलती हैं। प्रचार-प्रसार के अनुपात में ही न्यायिक अन्याय पर अंकुश लग सकता है। जहां प्रचार या सूचना का प्रसार न हो, वहां न्याय भी नहीं हो सकता है। प्रचार ही न्याय की आत्मा है। इसी से जांच-पड़ताल के खिलाफ आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। इससे मुकदमे की सुनवाई के दौरान जज खुद सतर्क रहते हैं।”

पिछले दशक में, खुले न्यायालयों के सिद्धांत पर न्यायपालिका की ओर से ही सबसे अधिक हमले हुए हैं। यह कई तरह से होता है। पहला तो यही कि कई हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट अपने कोर्टरूमों में आम आदमी के प्रवेश पर सुरक्षा का हवाला देकर रोक लगा देते हैं। फिर, जो आम आदमी और वादी-प्रतिवादी अदालती कार्यवाही देखना चाहता है, उसके लिए खास तरह के पास बनवाने को कहा जाता है, जिसके लिए आवेदन करना होता है और उसके लिए कई तरह के पहचान पत्रों की अनावश्यक मांग करके समूचे मामले को पेचीदा बना दिया जाता है। इससे आम आदमी अदालतों में जाने से हतोत्साहित होता है। खुली अदालतों के सिद्धांत पर दूसरा हमला संवेदनशील मामलों में न्यायिक कार्यवाही की रिपोर्टिंग से रोकने वाले आदेशों के चलन से हुआ है। मसलन, इलाहाबाद हाइकोर्ट ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट के नफरत भरे बयानों के मामलों में अदालती सुनवाई की रिपोर्टिंग करने से मीडिया पर रोक लगा दी थी। इसी तरह बॉम्बे हाइकोर्ट ने भी सोहराबुद्दीन हत्या के मामले में मीडिया के हो-हल्ले के बाद रिपोर्टिंग पर रोक लगा दी थी। खुली अदालतों के सिद्धांत पर तीसरा हमला सुप्रीम कोर्ट का राफेल या एनआरसी जैसे संवेदनशील मामलों में सरकार से सीलबंद लिफाफे में जवाब मंजूर करना है। जब न्यायिक निर्णयों के आधार बनने वाले सुबूत या दलीलों को दूसरे पक्ष को मुहैया नहीं कराया जाए तो अदालती कार्यवाही की वैधता ही सवालों के घेरे में आ जाती है।

ऐसे समय में जब दुनिया भर के न्यायालय अपनी कार्यवाही का प्रसारण या वेब-स्ट्रीमिंग कर रहे हैं, भारत का सुप्रीम कोर्ट अभी तक संवैधानिक रूप से महत्वपूर्ण मामलों में वेबकास्टिंग की पायलट परियोजना भी शुरू नहीं कर सका है, जिसकी घोषणा पिछले साल स्वप्निल त्रिपाठी मामले में की गई थी। लिहाजा, न्यायपालिका देश की सबसे रहस्यमय संस्थाओं में एक बनी हुई है और शायद यही वजह है कि हमारी समूची न्याय प्रणाली विश्वसनीयता के संकट से जूझ रही है। लोगों के लिए आखिरी आसरे की इस संस्‍था के प्रति विश्वास घटना चिंतनीय है।

प्रशासनिक पारदर्शिता

न्यायपालिका का सार्वजनिक चेहरा तो न्यायाधीश होते हैं लेकिन उनके अलावा हजारों नौकरशाह भी न्याय-तंत्र का हिस्सा हैं जो रजिस्टरी के कर्मचारियों को आदेश देते हैं और रिकॉर्ड रखने, नई फाइलिंग करने के साथ-साथ कोर्टरूम और वित्त व्यवस्था वगैरह का प्रबंधन करते हैं। वे न्यायिक कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जैसे, यदि किसी अदालत में पर्याप्त कर्मचारी नहीं होंगे तो समन देने में देरी होगी और इस देरी से केस में देरी होगी। ये अधिकांश नौकरशाह हाइकोर्ट न्यायाधीशों की कमेटी की निगरानी में काम करते हैं। न्यायपालिका का यह प्रशासनिक पक्ष आरटीआइ अधिनियम के अधीन होने के बावजूद गोपनीयता के आवरण में काम करता है। आरटीआइ कानून में हाइकोर्ट की समूची व्यवस्‍था, कर्मचारियों की संख्या, बजटीय अनुदान और हर तरह के दस्तावेज मुहैया कराने का प्रावधान है। विडंबना ही है कि 24 हाइकोर्ट में से केवल 15 हाइकोर्ट ने ही अपनी वेबसाइटों पर जानकारियों को साझा किया है। इन जानकारियों की गुणवत्ता भी अद्यतन नहीं होती है या हाइकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी जिला न्यायालयों की जानकारी उपलब्ध नहीं होती है।

पारदर्शिता में अड़चन डालने के मामले यही नहीं रुकते, हाइकोर्ट अमूमन आरटीआइ कानून से संबंधित नियम बनाने में लेट-लतीफी बरतते हैं या अलग तरह के नियम बना लेते हैं। मसलन, आरटीआइ अधिनियम के तहत, अधिनियम के प्रावधानों को पूरा करने के लिए हाइकोर्ट के अधिकारी अपने नियमों का एक सेट तैयार कर सकते हैं। हालांकि, हमने शोध में पाया कि हाइकोर्ट इस शक्ति का उपयोग उन नियमों को बनाने के लिए कर रहे थे, जो आरटीआई अधिनियम का पूर्ण उल्लंघन है। जैसे, भले ही अधिनियम स्पष्ट रूप से उन सूचनाओं की श्रेणियों को सूचीबद्ध करता है जो अधिनियम के तहत खुलासे से मुक्त हैं, फिर भी तेरह हाइकोर्टों ने अपने नियमों में अतिरिक्त श्रेणियां जोड़ ली हैं, जिसके तहत मांगी गई जानकारी से इनकार किया जा सकता है।

यह बिलकुल गैर-कानूनी है, क्योंकि आरटीआइ अधिनियम ने कभी भी हाइकोर्ट को ऐसी शक्ति नहीं सौंपी थी। ऐसे ही, जबकि अधिनियम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आरटीआइ आवेदन में केवल आवेदकों से संपर्क करने के लिए आवश्यक जानकारी की जरूरत है, तब भी 13 हाइकोर्ट ने नियम बनाया है कि आवेदन विशेष प्रारूप में दिए जाएं और ऐसा न होने पर उन्हें अस्वीकार किया जा सकता है। कभी-कभी इन अतिरिक्त जरूरतों के अलावा आवेदक का फोटो और आवेदक की मंशा या आशय-संबंधी इरादे की घोषणाएं भी शामिल होती हैं। इस तरह के गैर-कानूनी नियम इस बात के प्रमाण हैं कि हाइकोर्ट आरटीआइ अधिनियम के कार्यान्वयन में बाधाएं डालने का प्रयास कर रहे हैं।

हमारे शोध में यह भी पाया गया कि हाइकोर्ट जो नियम बना रहे हैं, वे हैं तो कानूनी लेकिन मकसद नागरिकों के लिए आवेदन दाखिल करने में असुविधा पैदा करने का है। उदाहरण के लिए, भले केंद्र सरकार ने आरटीआइ नियम के तहत आरटीआइ दाखिल करने की फीस 10 रुपये रखी है लेकिन आठ हाइकोर्ट ने नियम बनाने की अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए आवेदन शुल्क ज्यादा रखा। इसी तरह, मध्य प्रदेश हाइकोर्ट के अलावा अन्य कोई भी हाइकोर्ट अपने ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से आरटीआइ आवेदनों की अनुमति नहीं देता। यहां तक कि 2020 में भी आवेदन डाक से मंगवाए जाते हैं, जबकि इसके उलट केंद्र सरकार अपने ऑनलाइन पोर्टल rtionline.gov.in  के माध्यम से आवेदन स्वीकार करती है।

पारदर्शिता का विरोध करने के ये प्रयास केवल जानकारी न देने और प्रतिकूल नियमों का मसौदा तैयार करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह विरोध सार्वजनिक सूचना अधिकारियों तक भी जाता है, जो इस अधिनियम की मूल आत्मा के विस्तार और निष्पादन को ही नाकाम कर देते हैं। हमने शोध में पाया कि कुछ हाइकोर्ट में अच्छा चलन है। जैसे, वे प्रश्नवार उत्तर देते हैं जबकि कुछ हाइकोर्ट आरटीआइ आवेदनों को खारिज कर देते हैं। उदाहरण के लिए, हैदराबाद हाइकोर्ट ने एक बार मद्रास हाइकोर्ट के एक फैसले का हवाला देकर हमें जानकारी देने से मना किया। लेकिन खुद मद्रास हाइकोर्ट ने हमें वही जानकारी दे दी क्योंकि उस जानकारी को न देना आधिकारिक नियम के तहत आता ही नहीं था, जिसका हमने अनुरोध किया था।

डिजिटल पारदर्शिता

जैसे-जैसे दुनिया तेजी से डिजिटल होती जा रही है, दुनिया भर में ‘खुली सरकार’ आंदोलन पारदर्शी शासन के मुख्य घटक के रूप में ‘ओपन डेटा’ की मांग उठने लगी है। सीधे शब्दों में कहें तो ‘ओपन डेटा’ की यह मांग डिजिटल प्रणाली के डिजाइन को भी ऐसा बनाने की जरूरत पैदा कर रही है, जो नागरिकों की गोपनीयता और निजता को बरकरार रखते हुए उसके दोहरे इस्तेमाल की व्यवस्‍था करे। इससे सरकार की पारदर्शिता को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है।

पिछले दो दशकों में, जबकि भारतीय न्यायपालिका ने अपने कामकाज के कुछ पहलुओं को डिजिटल बनाने में महत्वपूर्ण प्रगति की है, उसने डेटा मुहैया कराने की दिशा में बेहतर पहल नहीं की, जो नई तकनीकी प्रगति के माध्यम से अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा दे सकती है। कुछ ऐसे उदाहरणों पर भी गौर किया जा सकता है जहां ‘खुली डेटा’ प्रणाली के परिणाम शानदार रहे हैं। जैसे, जब हाइकोर्टों ने अपने फैसलों को कंप्यूटर फॉर्मेट में उपलब्ध कराना शुरू किया, तो सुशांत सिन्हा नाम के आइआइटी ग्रेजुएट ने विभिन्न हाइकोर्ट की वेबसाइट्स से उनके निर्णय इकट्ठे कर एक सॉफ्टवेयर बनाया और इंडियनकानून नाम की वेबसाइट पर उपलब्ध करा दिया। हाइकोर्ट की वेबसाइट के विपरीत, इंडियनकानून में टेक्स्ट सर्च फंक्शन ज्यादा आसान हैं। यह वकीलों, पत्रकारों और आम नागरिकों के लिए कोर्ट के उन फैसलों को खोजने का बड़ा साधन है, जिसका उपयोग ये फैसले पर अपनी कानूनी राय बनाने या फैसले की दलीलों की आलोचना करने के लिए कर सकते हैं। कोर्ट के किसी फैसले को खोजना पहले कभी इतना आसान नहीं था।

इस मोर्चे पर बहुत कुछ किया जा सकता है। जैसे, ई-कोर्ट प्रणाली के पास सूचनाओं का खजाना है, जो जिला न्यायालयों के डिजिटलीकरण की रीढ़ है। ये नए उद्यमियों के साथ साझा किया जा सकता है, जो ऐसे उत्पादों को विकसित कर सकते हैं जो इस डेटा को ज्यादा सुलभ और लोगों तक पहुंच आसान बनाएं। ऐसे फॉर्मेट सिस्टम की दक्षता को बढ़ाते हैं। न्यायपालिका हालांकि किसी को भी सरकार के लिए एपीआइ (एप्लीकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस) प्रदान करने का विरोध कर रही है। इस तरह की एपीआइ सूचनाओं के एक्सेस को आसान बना देती है और सरकार अपने विभागों को सभी नागरिकों तक एपीआइ पहुंच प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित करती है। इसलिए न्यायपालिका के पास इससे इनकार करने का कोई कारण नहीं है।

इसलिए पारदर्शिता पर न्यायपालिका की उत्कृष्ट घोषणाओं और पारदर्शिता के बीच गहरी दरार है। अगर इस दरार को नहीं पाटा गया तो यकीनन न्यायपालिका का दायरा सिकुड़ता जाएगा।

(लेखक द्वय विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी से जुड़े हैं और न्यायिक सुधारों पर अध्ययन किया है)

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आरटीआइ कानून के प्रति अदालतों का रुख उदार नहीं है और सूचनाएं देने में टालमटोल के लिए कई बार उसी कानून की खामियों का सहारा लिया जाता है

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अदालती प्रक्रियाएं जितनी खुली होंगी, सरकार को भी अपने परदे उतने ही हटाने पर मजबूर होना पड़ेगा और इसी से लोगों का भरोसा बढ़ेगा, वरना हताशा बढ़ेगी

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