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सोच पर बर्बर हमला

जेएनयू की प्रतिष्ठा के लिए बीते 70 दिन सबसे ज्यादा विध्वंसकारी
जेएनयू की प्रतिष्ठा के लिए बीते 70 दिन सबसे ज्यादा विध्वंसकारी

हमारा देश उस मुकाम पर कैसे पहुंच गया है, जहां हम यूनिवर्सिटी के छात्रों और नकाबपोश गुंडों के बीच अंतर नहीं बता सकते हैं? दिल्ली में प्रदूषण के कारण लोगों को मास्क लगाना पड़ता है। बैंक लुटेरों को दूसरे तरह के नकाब की जरूरत होती है। लेकिन वे लोग कौन हैं, जिन्हें यूनिवर्सिटी परिसर में प्रवेश करने, पेड़ों के पीछे छिपने और लाठियां और स्टील रॉड लेकर छात्रों और प्रोफेसरों का पीछा करने के लिए पूरा चेहरा ढंकने की जरूरत होती है? यह कैसी विडंबना है कि मैं यह लेख शांतिनिकेतन में उस विश्वभारती विश्वविद्यालय के सामने एक घर में बैठकर लिख रहा हूं, जिसे रवींद्रनाथ टैगोर ने स्थापित किया था। उन्होंने कल्पना की थी कि क्लास रूम की दीवारें गिर जाएं ताकि विशाल बरगद के पेड़ की छाया में बागों के बीच में क्लास रूम हों। वैसे ही जैसे विश्वविद्यालय की सारी दीवारें ढह जाएं ताकि उसका फैलाव शहर की गलियों और गांवों तक हो जाए।

अत्यधिक अशिक्षा और गरीबी वाले देश भारत में लोगों का विश्वविद्यालयों के साथ रिश्ता बहुत विरोधाभासी रहा है। उच्च शिक्षा के केंद्र भले ही लोगों से दूर रहे हों, देश के ताने-बाने के साथ उनका जुड़ाव बहुत अधिक होता है। यह स्थिति अमेरिका जैसे देशों में उनके समकक्षों के विपरीत है। भारत में उच्च शिक्षा के केंद्र बड़े शहरों में हैं। लेकिन इससे बड़ी बात उच्च शिक्षा के प्रति देश के पहले प्रधानमंत्री का समाजवादी दृष्टिकोण था, जिसकी वजह से अमीर पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में माध्यमिक के बाद की शिक्षा पर खर्च बहुत ही कम था। इस वजह से भारत के उच्च शिक्षा केंद्रों में ऐसे लोगों को मौका मिला, जो यूनिवर्सिटी के लिए प्राइवेट और कॉरपोरेट मॉडल अपनाए जाने पर बाहर रह जाते।

देश की राजधानी में पहले प्रधानमंत्री के नाम पर बने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने विविधता और समावेश के सिद्धांत का जितना अनुसरण किया, उतना देश के किसी भी अन्य विश्वविद्यालय ने नहीं किया। इस समावेशी शिक्षा का स्वाभाविक और वांछनीय परिणाम है कि यह मौलिक रूप से जानने, देखने, सोचने और महसूस करने का नजरिया पूरी तरह बदल देता है, जिसे समाज के प्रभावशाली वर्ग ने गढ़ा था। यह वर्ग अपने संकुचित नजरिए के चलते शायद ही कोई विश्वविद्यालय स्थापित करता। इस बदलाव के कारण जो स्वर उठा वह विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए कर्णभेदी और कर्कश हो गया। समाज के प्रभावशाली वर्ग ने उन्हें दबाने का जितना प्रयास किया, यह ध्वनि उतनी तेज और कर्कश होती गई।

पिछले 70 दिनों में हमने अधिनायकवादी सरकार के दमन के प्रयासों के खिलाफ इस स्वर का अनुभव किया है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सरकार जेएनयू के विचारों से नफरत करती है। उसके लिए अवांछित, असभ्य और प्रदूषित विचारों के लोग यहां मौजूद हैं- टुकड़े-टुकड़े गैंग जो देश के लिए अलग विचार लेकर आते हैं। उनके इस कृत्य को अपराध माना जाना चाहिए।

इस देश में करों को खैरात मान लिया जाता है। अगर हम गरीबों की शिक्षा के लिए टैक्स भर रहे हैं, तो उन गरीबों को चुप रहना चाहिए और हमारे हिसाब से चलना चाहिए। लेकिन यहां एक महत्वपूर्ण बात भुला दी जाती है। छात्रों के अलग विचार विश्वविद्यालय के अपने भले के लिए हैं, क्योंकि इससे वहां जानने के नए तरीके विकसित होते हैं।

पिछले 70 दिनों में जेएनयू की सीमाएं सबसे विध्वंसकारी तरीके से ढही हैं। यूनिवर्सिटी और देश के बीच आदान-प्रदान, शहर और कैंपस में कड़वाहट सर्वाधिक स्तर पर पहुंच चुकी है। मैं जहां रहता हूं, वहां से 15 मिनट पैदल चलकर जेएनयू पहुंच सकता हूं। इसलिए कह सकता हूं कि यह घटना मेरे पड़ोस में ही हुई है। लेकिन यह घटना देश भर के अनगिनत छात्रों, युवाओं और नागरिक समूहों के लिए सबसे पीड़ादायक घटना बन गई है। अधिनायकवादी और शिक्षा विरोधी गठजोड़ ने खूबसूरत, लाल ईंटों वाले इस कैंपस में असंतोष के स्वरों को गैर-कानूनी साबित करने के लिए हर मुमकिन कोशिश की है। उनका अंतिम हमला रविवार को हुआ और नकाबपोश अपराधियों ने कैंपस में घुसकर छात्रों और अध्यापकों से मारपीट की और कई लोगों को घायल कर दिया। हम देश के इतिहास में ऐसे मुकाम पर हैं, जहां वंचितों के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाली एक यूनिवर्सिटी आसानी से अपराधियों का अड्डा बन गई। जेएनयू में छात्रों और अध्यापकों के साथ हुई हिंसा के विरोध में विश्वभारती में लोग मशाल जुलूस निकालने की योजना बना रहे हैं। यह पूरे देश में एकजुटता दिखाने के लिए हो रहे प्रदर्शनों जैसी ही पहल है। लेकिन यह कुछ मायनों में अलग भी है। हम हिंसा को ध्यान में रखते हुए प्रार्थना भी करेंगे। यह एक तरह की प्रार्थना है, जिसकी कल्पना कभी रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी। एक उदार हिंदुत्व की कल्पना। मेरे मन में प्रार्थना घायल छात्रों के लिए होगी और उन्हें घायल करने वालों के लिए भी होगी।

(उपन्यास दि सेंट ऑफ गॉड 2019 के लेखक सैकत मजूमदार कला, साहित्य और उच्च शिक्षा पर लिखते हैं यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

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