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आवरण कथा/ नए साल के पदचिन्ह: मुबारक या मुश्किल भरा

इस साल अनेक संभावनाओं के दरवाजे खुल सकते हैं तो आशंका और निराशा के काले बादलों के साए भी घने और डरावने, किस मद में क्या है इसकी झोली में?
अंबानी को पछाड़ क्या अडाणी होंगे नंबर वन

क्या अडाणी बनेंगे सबसे अमीर?

रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी (64) एक दशक से भी ज्यादा समय से भारत के सबसे अमीर व्यक्ति हैं। कई वर्षों से एशिया के भी सबसे अमीर शख्स हैं। लेकिन 2022 में उनसे यह खिताब छिन सकता है। अंबानी से पांच साल छोटे, अडाणी समूह के चेयरमैन गौतम अडाणी की संपत्ति तेजी से बढ़ रही है। ब्लूमबर्ग बिलियनेयर्स इंडेक्स के अनुसार उनकी मौजूदा (3 जनवरी) नेटवर्थ 76.5 अरब डॉलर है। पांच वर्षों में यह 19 गुना बढ़ी है। इसी इंडेक्स के मुताबिक अंबानी की नेटवर्थ 90 अरब डॉलर है और पांच वर्षों में यह पांच गुना हुआ है। अंबानी इस समय दुनिया के 12वें और अडाणी 14वें सबसे अमीर शख्स हैं।

पिछले साल की आइआइएफएल वेल्थ हुरून इंडिया रिच लिस्ट के अनुसार अंबानी की नेटवर्थ रोजाना 163 करोड़ के हिसाब से साल भर में 59,600 करोड़ रुपये बढ़ी, जबकि अडाणी की नेटवर्थ में रोजाना 1002 करोड़ के हिसाब से सालभर में 3.65 लाख करोड़ का इजाफा हुआ। अगर नेटवर्थ बढ़ने की रफ्तार यही रही तो 2022 में अडाणी भारत और एशिया के सबसे अमीर उद्योगपति बन जाएंगे। वैसे, 24 नवंबर को कुछ देर के लिए वे एशिया के सबसे अमीर व्यक्ति बन भी गए थे। उस दिन उनकी कंपनियों के शेयरों में काफी तेजी आई थी।

अंबानी समूह का ज्यादातर बिजनेस रिलायंस इंडस्ट्रीज के अधीन है, जिसका मार्केट कैप 3 जनवरी को 16.25 लाख करोड़ रुपये था। अडाणी की छह लिस्टेड कंपनियों की वैल्यू 9.7 लाख करोड़ थी। अंबानी के पास दुनिया की सबसे बड़ी तेल रिफाइनरी है तो अडाणी भारत के सबसे बड़े पोर्ट ऑपरेटर हैं, और शायद सबसे बड़े एयरपोर्ट ऑपरेटर भी। वे कॉलेज ड्रॉपआउट हैं तो अंबानी स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के ड्रॉपआउट।

अडाणी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उदय लगभग साथ-साथ रहा है। जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब अडाणी ने मुंद्रा बंदरगाह पर कमर्शियल ऑपरेशन शुरू किया। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने देश में रक्षा उपकरण बनाने की बात कही तो अडाणी भी उसमें उतरे। उसके बाद गैस और एयरपोर्ट सेक्टर में आए। अब डाटा स्टोरेज और फाइनेंशियल सेक्टर में उतरने की योजना है।

नई मीडिया की चाल?

वे दिन गए जब खबरों के लिए अखबार या टीवी पर आश्रित रहना पड़ता था। सोशल मीडिया अब इसका सबसे बड़ा स्रोत बनता जा रहा है। ब्रेकिंग न्यूज के मामले में तो यह तीन साल पहले ही पारंपरिक मीडिया से आगे निकल चुका था। पिउ रिसर्च के अनुसार दुनिया में 250 करोड़ से ज्यादा लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और इनमें से 65 फीसदी फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, स्नैपचैट और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया पर ब्रेकिंग न्यूज देखते हैं। इसका प्रमुख कारण समय तो है ही, एक कारण यह भी है कि मुख्यधारा के मीडिया पर पक्षपाती होने और खबरों को अपने तरीके से तोड़-मरोड़ कर पेश करने के आरोप लगने लगे हैं। हाल के दिनों में मुख्यधारा का मीडिया सत्ता पक्ष के ज्यादा करीब दिखा है। सवाल है कि 2022 के घटनाक्रम से क्या इसका रुख बदलेगा?

स्मार्टफोन और इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ने के साथ सोशल मीडिया पर खबरें देखने की चाहत आगे भी जारी रहने की उम्मीद है। दरअसल, इंटरनेट के जमाने में खबरें प्रोडक्ट बन गई हैं और पाठक उनके कंज्यूमर। इसलिए यहां भी ट्रेंड तेजी से बदलने लगा है। मसलन, सोशल मीडिया पर खबरें देखने वाले भले बढ़ रहे हों, लोग अब वहां सिर्फ शीर्षक और खबर का मुख्य हिस्सा देखते हैं। पूरी खबर के लिए वे दूसरे स्रोतों का इस्तेमाल करते हैं।

सोशल मीडिया के लिए भरोसे का संकट भी उभरा है।  न्यूज एजेंसी रायटर्स के एक सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका में सिर्फ 14 फीसदी लोग सोशल मीडिया के जरिए मिलने वाली खबरों पर भरोसा करते हैं। यह फेक न्यूज का भी सबसे बड़ा स्रोत बन गया है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से गलत और भ्रामक सूचनाएं फैलाने पर अंकुश लगाने को कहा जा रहा है, लेकिन उनकी इसमें कोई खास रुचि नहीं दिखती है। बल्कि ऐसी सूचनाएं इन कंपनियों के लिए फायदेमंद होती हैं क्योंकि इससे उन्हें ज्यादा ट्रैफिक मिलता है। पिछले दिनों हमने देखा कि सरकारें सबसे कोविड-19 की वैक्सीन लेने के लिए कह रही हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर महामारी को महज एक अफवाह बताया जा रहा था। इससे भ्रमित अनेक लोग आज भी वैक्सीन लेने के लिए तैयार नहीं हैं।

अर्थव्यवस्‍था सुधरेगी या बिगड़ेगी?

भारतीय रिजर्व बैंक ने 29 दिसंबर को पिछले साल की दूसरी छमाही की फाइनेंशियल स्टैबिलिटी रिपोर्ट जारी की। इसमें उसने कहा, “ओमीक्रोन वेरिएंट के बढ़ते संक्रमण, सप्लाई की दिक्कतों, ऊंची महंगाई दर और विकसित तथा विकासशील देशों में मौद्रिक नीति बदलने के चलते विश्व अर्थव्यवस्था में रिकवरी धीमी पड़ने लगी है।” रिजर्व बैंक के बयान ने बता दिया कि 2022 का आगमन किन परिस्थितियों में हो रहा है। इसे एक अन्य आंकड़े से समझा जा सकता है। उड़ानों की लाइव स्थिति बताने वाले फ्लाइटअवेयर डॉट कॉम के अनुसार क्रिसमस से एक दिन पहले से लेकर 2 जनवरी तक 28 हजार से ज्यादा उड़ानें रद्द हुईं।

मायूस शुरुआत के बावजूद यह साल बेहतर रहने की उम्मीद है। ओमीक्रोन कम घातक है, इसलिए विशेषज्ञों को लगता है कि रिकवरी ज्यादा टिकाऊ और व्यापक होगी। पिछले साल भारत की विकास दर शून्य से 7.3 फीसदी कम थी, मौजूदा वित्त वर्ष में रिजर्व बैंक का अनुमान 9.5 फीसदी ग्रोथ का है। आइएमएफ ने 2022-23 में 8.5 फीसदी विकास का अनुमान जताया है। बिजली की मांग, रेलवे से माल ढुलाई, टोल संग्रह और पेट्रोलियम पदार्थों की खपत, ये सब अर्थव्यवस्था की गति को बताने वाले इंडिकेटर हैं। इन सबमें पिछले महीनों अच्छी ग्रोथ दिखी। ब्रिटिश कंसल्टेंसी फर्म सेबर का आकलन है कि इस वर्ष भारत फ्रांस को और अगले साल ब्रिटेन को पीछे छोड़कर फिर से दुनिया की छठी सबसे बड़ी इकोनॉमी बन जाएगा। 2022 में विश्व अर्थव्यवस्था पहली बार 100 लाख करोड़ का आंकड़ा पार करेगी।

लेकिन कई चुनौतियां भी हैं। सरकारी योजनाएं अभी तक मांग के बजाय आपूर्ति बढ़ाने पर केंद्रित रही हैं। पूंजी निवेश अभी तक 2019-20 के स्तर पर नहीं पहुंचा है। कंपनियां 2021-22 की पहली तिमाही में क्षमता का 60 फीसदी और दूसरी तिमाही में 68.8 फीसदी इस्तेमाल कर रही थीं। नए निवेश के लिए जरूरी है कि क्षमता इस्तेमाल 75 फीसदी पर पहुंचे।

महंगाई पूरी दुनिया के लिए समस्या बन गई है। महामारी के कारण जहां-तहां बिजनेस बंद होने, ऊर्जा और कमोडिटी के दाम आसमान छूने और जरूरी कंपोनेंट की कमी से महंगाई का दबाव बहुत ज्यादा है। अमेरिका में यह चार दशक के सबसे ऊंचे स्तर पर है। इसे थामने के लिए बैंक ऑफ इंग्लैंड ने ब्याज दरें बढ़ा दी हैं, अमेरिका भी बढ़ाने वाला है। भारत में भी देर-सबेर ब्याज दरें बढ़ेंगी। महंगाई पर तो लगाम लगेगी लेकिन कर्ज महंगे हो जाएंगे।

कई विकसित देशों में 2021 में मांग में जो तेजी देखी गई थी उसमें फिर सुस्ती आने लगी है। दो साल से चिप की कमी झेल रही ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों के लिए समस्या खत्म होती नहीं लग रही। चीन के कई इलाकों में लॉकडाउन के चलते सैमसंग और माइक्रोन जैसी कंपनियों के उत्पादन ठप पड़ रहे हैं। स्मार्टफोन, टैबलेट और हार्ड ड्राइव में इस्तेमाल होने वाले सैमसंग के 40 फीसदी चिप यहीं बनते हैं।

अगर महामारी का असर लंबा नहीं रहा और व्यापक लॉकडाउन न हुआ तो शेयर बाजार में तेजी बनी रहेगी। हाल की गिरावट के बावजूद बीते एक साल में सेंसेक्स 23 फीसदी बढ़ा है। देखना है कि घरेलू निवेशकों की खरीद जारी रहती है या नहीं। अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में अधिक बढ़ोतरी की तो वह शेयर बाजार के लिए नकारात्मक होगा। बाजार फिलहाल अनिश्चित अवस्था में हैं, इसलिए विशेषज्ञ डेट प्रोडक्ट में ज्यादा निवेश करने की सलाह दे रहे हैं।

एमएसएमई अब भी डांवाडोल

देश में 6.3 करोड़ एमएसएमई रजिस्टर्ड हैं। बीते दो साल में इनमें कितनी बंद हुईं, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। एमएमसएमई मंत्री नारायण राणे ने हाल ही लोकसभा में बताया कि कोविड-19 के कारण नौ फीसदी छोटी इकाइयां बंद हो गईं। लेकिन यह आंकड़ा अगस्त 2020 में किए गए सर्वे का है। ऑल इंडिया मैन्युफैक्चरर्स ऑर्गनाइजेशन के सर्वे के अनुसार 35 फीसदी इकाइयों के सामने रिकवरी की कोई गुंजाइश नहीं थी। देश की जीडीपी में एमएसएमई 29 फीसदी और निर्यात में 50 फीसदी योगदान करती हैं। महामारी से पहले इनमें 11 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ था। इनकी रिकवरी अर्थव्यवस्था की गति पर निर्भर करेगी। एक सर्वे के अनुसार अप्रैल 2020 से फरवरी 2021 तक 40 फीसदी एमएसएमई का कामकाज प्रभावित था। इनका बिजनेस 2020 में 46 फीसदी और 2021 में 11 फीसदी गिर गया। रिटेलर्स एसोसिएशन के अनुसार कपड़े, जूते-चप्पल और ज्वैलरी सेगमेंट में बिक्री अभी तक महामारी से पहले के स्तर पर नहीं पहुंच सकी है। रोजगार के लिहाज से यह चिंता की बात है क्योंकि बेरोजगारी दर लगातार आठ फीसदी के आसपास बनी हुई है।

फार्मा उद्योग कितना उछलेगा?

फार्मा उद्योग

बीते दो वर्षों में महामारी के कारण जिस इंडस्ट्री को सबसे अधिक फायदा हुआ, वह है फार्मा। महामारी ने न सिर्फ इन कंपनियों का रेवेन्यू बढ़ाया, बल्कि उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ाई है। जाहिर है, इस दौरान इनकी वैलुएशन में भी रिकॉर्ड वृद्धि हुई। यह ट्रेंड 2022 में भी बने रहने की संभावना है। फार्मा कंपनियों ने अब तक कोरोना की लगभग 7.5 अरब वैक्सीन डोज तैयार की है और साथ ही दूसरी दवाओं की सप्लाई को भी बरकरार रखा है। इंडस्ट्री का अनुमान है कि 2022 में 60 प्रमुख देशों में दवा बिक्री 4.6 फीसदी बढ़कर 1.5 लाख करोड़ डॉलर हो जाएगी। 2021 को छोड़ दें तो इतनी वृद्धि कई दशकों में नहीं हुई।

यूनिसेफ का अनुमान है कि वैक्सीन बनाने की ग्लोबल क्षमता इस वर्ष 8.5 अरब डोज से बढ़कर 40 अरब डोज हो जाएगी। नई क्षमता का कुछ हिस्सा भारत में भी बढ़ेगा। अभी यहां क्षमता 2.8 अरब डोज सालाना की है। इस वर्ष अफ्रीका के कई देशों में भी वैक्सीन उत्पादन शुरू होने की उम्मीद है। यहां के कई देशों में बड़ी आबादी अभी तक वैक्सीन से वंचित है।

फार्मा कंपनियों ने न सिर्फ रिकॉर्ड समय में कोविड वैक्सीन बनाई बल्कि फॉर्मूला भी साझा किया। वैक्सीन बनाने में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग का काफी इस्तेमाल हुआ। एआइ और मशीन लर्निंग से इनोवेशन का समय और दवा बनाने का खर्च घटा, साथ ही सफलता की दर भी बढ़ी। ये टेक्नोलॉजी फार्मा कंपनियों का भविष्य आगे भी तय करेंगी। बीते दो वर्षों में भारत में ई-फार्मेसी का चलन भी तेजी से बढ़ा। बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए इसमें भी ग्रोथ बनी रहने की उम्मीद है।

दवा कंपनियों के सामने फिलहाल कई दिक्कतें हैं। चीन में नए संक्रमण के कारण कई इलाकों में लॉकडाउन है। वहां फरवरी 2022 में होने वाले विंटर ओलंपिक को ध्यान में रखते हुए प्रदूषण घटाने के लिए भी कुछ प्रतिबंध लगाए गए हैं। इससे कच्चे माल की कमी हो गई है। भारतीय मुद्रा कमजोर होने, कच्चे माल के दाम में अप्रत्याशित वृद्धि और ट्रांसपोर्ट का खर्च बढ़ने के कारण लागत बढ़ी है, इससे दवाओं के दाम बढ़ने के भी आसार हैं।

यूनिकॉर्न का दबदबा जारी

यूनीकॉर्न का दबदबा

कोविड-19 महामारी ने भले ही अर्थव्यवस्था के ज्यादातर सेक्टर को नुकसान पहुंचाया हो, लेकिन युवाओं ने इस संकट में भी अपने लिए अवसर तलाशा। उन्होंने नए क्षेत्रों में न सिर्फ स्टार्टअप स्थापित किए बल्कि उन्हें सफल भी बनाया। देश में इस समय 59 हजार से अधिक स्टार्टअप हैं और इस लिहाज से भारत, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में तीसरे नंबर पर है। इनमें से 79 स्टार्टअप यूनिकॉर्न का दर्जा हासिल कर चुके हैं। इनकी वैलुएशन करीब 260 अरब डॉलर है। यूनिकॉर्न यानी जिसकी वैलुएशन कम से कम एक अरब डॉलर हो। खास बात यह है कि 2021 में रिकॉर्ड 42 यूनिकॉर्न बने। यानी हर नौ दिन में एक स्टार्टअप यूनिकॉर्न बना।

पिछले साल पेटीएम का 18,300 करोड़ रुपये का सबसे बड़ा आइपीओ आया तो जोमैटो, पॉलिसीबाजार, फार्म इजी और नायका जैसी कंपनियों के आइपीओ की भी भारी डिमांड रही। बीते वर्ष भारतीय स्टार्टअप में 32.8 अरब डॉलर का रिकॉर्ड निवेश हुआ। इसकी एक वजह तो अमेरिकी सरकार की तरफ से दिया गया राहत पैकेज है, जिसके कारण वहां के प्राइवेट इक्विटी निवेशकों ने अच्छे स्टार्टअप में पैसे लगाए। भारत में उन्हें अच्छी क्वालिटी के स्टार्टअप का जैसे भंडार मिल गया। इन कंपनियों को स्थानीय निवेशकों का भी सहयोग मिला।

2021 में यूनिकॉर्न बनने वाली पहली कंपनी डिजिट इंश्योरेंस और आखिरी कंपनी प्रिसटीन केयर थी। अन्य प्रमुख कंपनियों में मीशो, फार्म ईजी, अर्बन कंपनी, भारत पे, अपग्रैड, कॉइनडीसीएक्स, ग्रोफर्स, वेदांतु, कारदेखो, एको इंश्योरेंस और स्पिनी शामिल हैं। एक और रोचक बात यह है कि जो कंपनियां हाल में यूनिकॉर्न बनीं उनके संस्थापकों ने दूसरी कंपनियों को यह दर्जा हासिल करने में मदद की। जैसे प्रिसटीन केयर में क्रेड के संस्थापक सीईओ कुणाल शाह, अर्बन कंपनी के सह संस्थापक और सीईओ अभिराज सिंह भाल और जोमैटो के सह संस्थापक और सीईओ दीपिंदर गोयल ने भी पैसा लगाया। क्रेड और अर्बन कंपनी अप्रैल में ही यूनिकॉर्न बनी थीं।

अनुमान है कि 2022 में भी अनेक भारतीय स्टार्टअप यूनिकॉर्न बनेंगे। कई निवेशकों और वेंचर कैपिटलिस्ट से बातचीत के आधार पर बिजनेस इनसाइडर का आकलन है कि 2022 में कम से कम 21 स्टार्टअप यूनिकॉर्न बनेंगे। इनमें क्लियर टैक्स, जुपिटर, पर्पल डॉट कॉम, फ्रेशहोम, डुंजो, निंजाकार्ट, चिंगारी आदि शामिल हैं।

ई-गेमिंग बाजार कितना बदलेगा?

ई-गेमिंग का बढ़ता कारोबार

बीते दो वर्षों में ऑनलाइन गेमिंग बहुत तेजी से बढ़ी। एक अनुमान के अनुसार महामारी के दौरान 40 फीसदी भारतीय मोबाइल फोन पर गेम खेल रहे थे। फिक्की-ईवाइ के अध्ययन के अनुसार 2019 में गेमिंग सेक्टर 6,500 करोड़ रुपये का था और 2022 में इसके 18,700 करोड़ का हो जाने की संभावना है। इंडस्ट्री के विशेषज्ञों का मानना है कि इस साल भी 35-40 फीसदी ग्रोथ रह सकती है।

गेमिंग में इस साल कई बदलाव दिख सकते हैं। अब ऐसे गेम डेवलप हो रहे हैं जिन्हें ज्यादा से ज्यादा लोग खेल सकेंगे। वर्चुअल और ऑगमेंटेड रियलिटी (वीआर-एआर) महंगा होने के कारण सभी इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। यह स्थिति भी बदलेगी। 2022 के एशियन गेम्स में ई-स्पोर्ट्स को शामिल किया जाना है और आगे चलकर ओलंपिक में भी इसे जगह मिलने की उम्मीद है। एक और बदलाव किरदार में हो सकता है। बड़े गेम में भारतीय कंटेंट तेजी से बढ़ेगा, जो अभी कम है।

ई-गेमिंग फेडरेशन के सीईओ समीर बर्डे के मुताबिक इस साल दो-तीन गेमिंग कंपनियां यूनिकॉर्न बन सकती हैं। नॉन-गेमिंग कंपनियां आएंगी तो विलय-अधिग्रहण भी होंगे। एआइ और मशीन लर्निंग का इस्तेमाल और बढ़ेगा, खिलाड़ी अपने हिसाब से गेम को कस्टमाइज कर सकेंगे। इंडस्ट्री का विस्तार होने पर इसमें रोजगार के मौके भी बढ़ेंगे।

हाल तक मोबाइल फोन खरीदने वालों के लिए कैमरा सबसे पसंदीदा फीचर होता था। अब लोग यह देखते हैं कि किस फोन पर गेम अच्छा खेला जा सकेगा। सेंसर टावर के अनुसार गेम ऐप डाउनलोड के मामले में भारत नंबर एक है। 12 फीसदी ऐप डाउनलोड भारत में ही होते हैं। इंडस्ट्री को रेगुलेटरी अनिश्चितता भी दूर होने की उम्मीद है। लेकिन एक समस्या यह है कि गेमिंग लत बनती जा रही है। इसका असर बच्चों के व्यवहार में दिख रहा है। इसलिए टेक्नोलॉजी स्टार्टअप की एसोसिएशन ‘इंडिया टेक’ ने सरकार से ऑनलाइन गेमिंग के लिए दिशानिर्देश तैयार करने का आग्रह किया है।

क्रिप्टो करेंसी को मान्यता मिलेगी?

क्रिप्टोकरेंसी

बीते साल 12 दिसंबर की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के टि्वटर अकाउंट पर अचानक लिखा आया, “भारत ने बिटकॉइन को लीगल करेंसी के तौर पर स्वीकार कर लिया है... सरकार सभी देशवासियों में बिटकॉइन वितरित कर रही है।” दरअसल, किसी ने प्रधानमंत्री का अकाउंट हैक कर लिया था। लेकिन इसके दो दिन बाद ही 14 दिसंबर को अल सल्वाडोर बिटकॉइन को करेंसी के तौर पर मान्यता देने वाला पहला देश बन गया। भारत में बिटकॉइन समेत किसी भी क्रिप्टो या वर्चुअल करेंसी को मान्यता नहीं मिली है। इनके लिए कानून बनाने की प्रक्रिया चल रही है।

हाल के महीनों में वर्चुअल करेंसी की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है। ब्लॉकचेन एेंड क्रिप्टो ऐसेट काउंसिल के अनुसार देश में डेढ़ से दो करोड़ खुदरा निवेशकों ने वर्चुअल करेंसी में करीब छह लाख करोड़ रुपये का निवेश कर रखा है। इनके नियमन के लिए सरकार शीत सत्र में ही संसद में बिल लाने वाली थी, जिसे टाल दिया गया। अभी तक ड्राफ्ट की जो बातें सामने आई हैं उसके मुताबिक सभी निजी क्रिप्टो करेंसी पर प्रतिबंध रहेगा और रिजर्व बैंक आधिकारिक डिजिटल करेंसी जारी करेगा। कहा जा रहा है कि ड्राफ्ट में कई बदलाव करने के लिए इसे रोका गया है। निजी करेंसी पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने के बजाय उन्हें रेगुलेट किया जा सकता है, एसेट के तौर पर मान्यता दी जा सकती है, टैक्स के दायरे में भी लाया जा सकता है।

क्रिप्टो करेंसी की तरह ब्लॉकचेन पर आधारित एनएफटी का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है। एनएफटी में किसी चीज को डिजिटल ऐसेट का रूप देकर उसे बेचा जाता है। भारत में अमिताभ बच्चन, सलमान खान, जहीर खान, ऋषभ पंत जैसी शख्सीयतों ने और विदेशों में पेरिस हिल्टन, लिंडसे लोहान, मेलानिया ट्रंप, टाइगर वुड्स, उसैन बोल्ट आदि ने एनएफटी कलेक्शन लॉन्च किए हैं। शिक्षा क्षेत्र में भी एनएफटी के प्रवेश हो रहा है। संस्थान एनएफटी के रूप में सर्टिफिकेट और डिग्री दे सकते हैं। इससे उनके वेरिफिकेशन की समस्या खत्म हो जाएगी।

क्या स्टार सिस्टम का अंत होगा?

क्या स्टारडम का होगा अंत

बॉलीवुड में तीन दशक से अधिक से खान तिकड़ी - आमिर, सलमान और शाहरुख - का वर्चस्व कायम रहा है। दरअसल बॉलीवुड में हमेशा से ही स्टार और सुपरस्टार का जलवा रहा है, चाहे दौर अशोक कुमार और के.एल. सहगल का रहा हो, दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर का या राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन का। लेकिन क्या इस साल सारे बड़े स्टार की बादशाहत खत्म हो जाएगी और वर्षों पुराना स्टार सिस्टम बीते कल की बात हो जाएगी?

दरअसल, ओटीटी के प्रादुर्भाव ने एक्टर यानी अभिनेता को स्टार से बड़ा बना दिया है। पिछले कुछ महीनों में बड़े सितारों की महंगी बजट वाली फिल्में न सिर्फ बॉक्स ऑफिस, बल्कि डिजिटल प्लेटफार्म पर भी औंधे मुंह गिर गईं। इसके विपरीत, द फैमिली मैन, मिर्जापुर, स्कैम, पाताललोक जैसी वेब सीरीज ने मनोज वाजपेयी, पंकज त्रिपाठी, प्रतीक गांधी और जयदीप अहलावत जैसे अभिनेताओं को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया। आज फिल्मों में महज आमिर, सलमान या शाहरुख का होना सफलता की गारंटी नहीं है, न ही अक्षय कुमार, अजय देवगन या रणवीर सिंह अपनी हर फिल्म को हिट करा सकते हैं। चाहे फीचर फिल्म हो या वेब सीरीज, आज कंटेंट ही किंग है, सितारे तो अब हाशिये पर चले गए हैं। इसलिए यह साल तमाम बड़े सितारों के लिए चुनौती भरा होगा। शाहरुख खान 2018 के बाद किसी फिल्म में नहीं दिखे हैं, और उनकी बादशाहत उनकी पठान जैसी अगली फिल्म के प्रदर्शन पर निर्भर करती है। आमिर खान का करियर भी पूरी उनकी आगामी फिल्म लाल सिंह चड्ढा पर आश्रित है। सलमान भी टाइगर और किक जैसी फिल्मों के अगले अध्याय के साथ जोर आजमाइश करना चाहते हैं। इन सभी की पिछली फिल्में फ्लॉप हो गई हैं। रणबीर कपूर ब्रह्मास्त्र और शमशेरा के साथ कई महीनों के बाद परदे पर वापसी करेंगे जबकि हृतिक रोशन और टाइगर श्रॉफ के सामने वाॅर की सफलता को दोहराने की चुनौती होगी।

दर्शक की बदलती रुचि और फॉर्मूला फिल्मों के लगातार पिटने के बाद फिल्मकारों को यह समझ में आने लगा है कि सिर्फ स्टार या सुपरस्टार की बदौलत किसी फिल्म को हिट नहीं कराया जा सकता। आज फिल्म के कथानक की अहमियत किसी भी सुपर स्टार से अधिक है। लिहाजा, बॉलीवुड के सभी सितारों के सामने अपने आपको इस वर्ष प्रासंगिक रखने की बड़ी चुनौती है। मनोज वाजपेयी जैसे अभिनेता मानते हैं कि स्टार सिस्टम अब बीते कल की बात हो गई है। लेकिन, क्या हिंदी सिनेमा का दर्शक वर्ग इस वर्ष कंटेंट की खातिर उन करिश्माई नायकों का साथ छोड़ देगा? क्या खान तिकड़ी या अक्षय, अजय या हृतिक जैसे सितारे फंतासी फिल्मों की दुनिया से बाहर आकर वास्तविक जीवन से जुड़ीं फिल्मों में काम शुरू कर देंगे? वैसे तो बॉलीवुड ने पिछले दशक में असली जिंदगी से जुड़ी कहानियों पर कई बेहतरीन फिल्में बनाईं, और साथ-साथ दो-तीन सौ करोड़ का व्यवसाय करने वाली ब्लॉकबस्टर सिनेमा का दौर भी चलता रहा। लेकिन, डिजिटल प्लेटफॉर्म के आने के बाद उसमें बदलाव आया है। इस वर्ष यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या हर सुपरस्टार के बोरिया-बिस्तर समेटने का समय आ गया है या वे सार्थक सिनेमा की लोकप्रियता बढ़ने के बावजूद एक अलग दुनिया बसाये रखने में कामयाब होंगे?

उत्तर और दक्षिण की दूरियां क्या सिमटेंगी?

उत्तर बनाम दक्षिण

साल 2021 के खत्म होते-होते बॉक्स ऑफिस पर कुछ ऐसा हुआ, जिसने बॉलीवुड के सूरमाओं को सकते में डाल दिया। रणवीर सिंह की 1983 में कपिल देव के नेतृत्व में भारत की विश्व कप क्रिकेट के फाइनल में ऐतिहासिक जीत पर आधारित बहुप्रतीक्षित फिल्म '83 का प्रदर्शन बेहद औसत रहा। इससे भी हैरान करने वाली बात यह रही कि कई हिंदीभाषी क्षेत्रों में कम दर्शकों के कारण थिएटरों में '83 की जगह पुष्पा: द राइज को दिखाया गया। हैरानी इसलिए क्योंकि पुष्पा.. एक तेलुगु फिल्म है, जिसमें अल्लू अर्जुन शीर्ष भूमिका में हैं। हिंदी में डब की गई एक दक्षिण भारतीय फिल्म का बॉलीवुड की सबसे बड़ी समझी जाने वाली फिल्मों से एक की तुलना में बेहतर प्रदर्शन हालांकि अप्रत्याशित बिलकुल नहीं है। इससे पूर्व प्रभाष की बाहुबली की दोनों सीरीज ने देश भर में कामयाबी के नए कीर्तिमान बनाए थे। कन्नड़ स्टार यश की केजीएफ का देशव्यापी प्रदर्शन भी बेहतरीन रहा था। इस फिल्म का दूसरा अध्याय इस वर्ष बनकर तैयार है जिसमें संजय दत्त भी एक प्रमुख किरदार निभा रहे हैं। नए साल में बाहुबली फेम एस.एस. राजामौली की राम चरण और एनटीआर जूनियर अभिनीत आरआरआर तो सात जनवरी को प्रदर्शित भी होने वाली थी लेकिन कोविड-19 के नए वेरिएंट ओमिक्रोन की नई लहर के कारण इसका प्रदर्शन फिलहाल टाल दिया दिया गया है। इस फिल्म में अजय देवगन भी एक भूमिका निभा रहे हैं।

दशकों तक बॉलीवुड और दक्षिण भारतीय फिल्मों के बीच एक चौड़ी खाई थी, जिसे पाटना मुश्किल दिखता था लेकिन हाल के वर्षों में तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम फिल्मों की देशव्यापी सफलता ने इसे धीरे-धीरे पाटना शुरू कर दिया है। बॉलीवुड और दक्षिण भारतीय सिनेमा इंडस्ट्री श्वेत-श्याम फिल्मों के जमाने से ही एक-दूसरे की सफल फिल्मों के रीमेक बनाते रहे हैं लेकिन उनकी डब की गई फिल्मों को थिएटरों में बमुश्किल दर्शक मिलते थे। कहा जाता था कि उत्तर और दक्षिण की संस्कृतियों के अलग होने के कारण उनकी फिल्में देशभर में एकसमान छाप छोड़ने में सफल नहीं हो पाती थीं। यही नहीं, चाहे रजनीकांत और कमल हासन हों या मोहनलाल और मामूट्टी, दक्षिण का कोई भी दिग्गज अभिनेता राष्ट्रीय स्तर का सुपरस्टार नहीं बन पाता था। अब स्थितियां बदलने लगी हैं। तेलुगु अभिनेता प्रभाष और महेश बाबू के प्रशंसक देश भर में फैले हैं, न कि सिर्फ दक्षिण के प्रदेशों में। महेश बाबू और अल्लू अर्जुन जैसे अभिनेताओं ने तो अभी तक बॉलीवुड की एक भी फिल्म में काम नहीं किया है, लेकिन उनके पास हिंदी सिनेमा के कई ऑफर हैं। मलयालम सिनेमा के लीजेंड मामूट्टी के पुत्र डुलकार सलमान, जिन्होंने दो हिंदी फिल्मों में काम किया है, का कहना है कि ओटीटी के दौर में जब विश्व की बेहतरीन फिल्में दर्शकों के लिए उनके घर में उपलब्ध हो गई हैं, उत्तर और दक्षिण की दूरियां मिट गई हैं। जाहिर है, वे अपने आप को बस एक कलाकार समझते हैं, न की किसी प्रादेशिक सिनेमा का कलाकार। आज डिजिटल प्लेटफाॅर्म पर मलयालम सिनेमा की उत्तर भारतीय दर्शकों के बीच दिनोदिन बढ़ती लोकप्रियता भी घटी दूरियों को इंगित करता है, लेकिन क्या वर्ष 2022 अंततः उत्तर और दक्षिण के सिनेमा की पूरी तरह मिटा पाएगा?

 

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