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“गरीब तो लाचार, अब तो मौलिक अधिकारों पर ही पहरा”

नरेंद्र मोदी की सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों तक की परवाह नहीं करती है। ऐसा पहली बार दिख रहा है कि लोकतंत्र की मूल भावना पर ही चोट की जा रही है
पूर्व कानून मंत्री और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल

संविधान लागू होने के 70 साल बाद मौलिक अधिकारों की स्थिति पर बढ़ती चिंताओं के दौर में सुप्रीम कोर्ट के कश्मीर पर ताजा फैसले ने इंटरनेट इस्तेमाल को भी मूल अधिकार माना है। इसके पहले भी सुप्रीम कोर्ट प्राइवेसी को बुनियादी अधिकार मान चुका है। इंटरनेट वाले फैसले में सुप्रीम कोर्ट में पैरवी करने वाले पूर्व कानून मंत्री और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल से अभिव्यक्ति की आजादी और मौलिक अधिकारों की मौजूदा स्थिति पर प्रशांत श्रीवास्तव ने विस्तृत बातचीत की। प्रमुख अंश:

 

संविधान ने देश के हर नागरिक को मौलिक अधिकार दिए हैं, पूर्व कानून मंत्री और प्रमुख अधिवक्ता के रूप में इन 70 साल के सफर को आप कैसे देखते हैं?

यह बहुत बड़ा अधिकार है। लेकिन चाहे 1950 की बात करें या इस वक्त की, इस बात में कोई अंतर नहीं आया है कि गरीब के लिए ये अधिकार अभी भी बहुत दूर हैं। उसके अधिकारों का जब उल्लंघन होता है तो उसके खिलाफ लड़ने का गरीब के पास कोई साधन नहीं है। उसके पास इतना पैसा कहां है कि वह वकील करके अपने हक के लिए अदालत में लड़े। यही सबसे बड़ी विडंबना है। यह जरूर है कि पिछले 70 साल में गरीबी घटी है लेकिन अभी भी बेतहाशा गरीबी है।

आज न्यायालयों में भी मामले कई साल तक लंबित पड़े रहते हैं, ऐसे में आम आदमी के लिए क्या रास्ता बचता है?

देखिए, आज का दौर उपभोक्तावादी है। मेरा तो अदालतों से ही नाता है। अब वहां आर्थिक मामले ही ज्यादा आते हैं। जो लोग पैसा खर्च कर सकते हैं, उनके ही मामले तेजी से आगे बढ़ते हैं। आम आदमी के मामले कम होते जा रहे हैं। कोर्ट के पास इतना वक्त भी नहीं है। ऐसे में उसकी प्राथमिकता भी बदलती जा रही है। असल में, पूरे देश में ऐसा ही माहौल बन गया है। आज जो हम लोकतंत्र का स्वरूप देख रहे हैं, वह उसका मूल स्वरूप नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में इंटरनेट को भी बुनियादी अधिकारों से जोड़ दिया है। धारा 144 लगाने पर भी कई शर्तें लगा दी हैं। आपने इस मामले में विस्तृत दलील रखी थी। इस फैसले को कैसे देखते हैं?

सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। केंद्र सरकार ने कश्मीर में इंटरनेट बंद कर दिया। सारे संचार साधन बंद कर दिए। इसके अलावा सीएए और एनआरसी के विरोध को रोकने के लिए कई राज्यों में मनमाने तरीके से धारा 144 भी लगाई गई। यह सरासर असंवैधानिक है। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि इंटरनेट लोगों का मूल अधिकार है, क्योंकि वह अभिव्यक्ति की आजादी और आजीविका से जुड़ा है। इसलिए कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन को सारे प्रतिबंधों की सात दिनों के अंदर समीक्षा करने को कहा। लेकिन यह सरकार कोर्ट का भी आदर नहीं कर रही है। कुछ ढील देने के अलावा उसने प्रतिबंधों को बरकरार रखा है। दुनिया में कहीं ऐसा नहीं हुआ है। सीरिया तक में ऐसा नहीं हुआ। इसी तरह धारा 144 पर कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि आप मनमाने तरीके से पूरे राज्य में नहीं लगा सकते हैं। केवल संवेदनशील जगहों पर ही इसे खास संदर्भ में लागू किया जा सकता है। लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों की परवाह नहीं करती है। ऐसे में कोर्ट में दोबारा याचिका दायर करनी पड़ सकती है क्योंकि यह सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भी परवाह नहीं करती है।

ऐसी कौन-सी मिसालें हैं?

पिछले 5-6 साल में जिस तरह से इस सरकार ने काम किया है, ऐसा मैंने इसके पहले कभी नहीं देखा है। कई पिछली सरकारों के कार्यकाल में दंगे हुए हैं, अराजक स्थितियां पैदा हुई हैं, लेकिन किसी भी सरकार ने ऐसे तत्वों को बढ़ावा नहीं दिया, जो दंगे भड़कातें हैं, अराजकता बढ़ाते हैं। यह सरकार हिंसा करने वालों पर कार्रवाई नहीं करती है। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री कार्रवाई करने की जगह आखें मूंद लेते हैं। उत्तर प्रदेश में पुलिस का जैसा रवैया रहा, वह भी हतप्रभ करने वाला है। पुलिस पर लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है, लेकिन वही लोगों के अधिकारों का हनन कर रही है। अगर पुलिस ही ऐसा करने लगेगी तो फिर आम आदमी का क्या होगा?

हाल में आए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2018 तक के आंकड़ों में राजद्रोह के मुकदमों में भारी इजाफे की बात जाहिर हुई है। आप इसे कैसे देखते हैं? राजद्रोह के कानून पर आपकी क्या राय है?

यही मैं कह रहा हूं कि इन छह साल में सरकार इतनी ताकतवर हो गई है कि जो भी सरकार के खिलाफ बोलता है, प्रधानमंत्री या मंत्री के खिलाफ बोलता है, सबसे पहले उनका सोशल मीडिया सेल, उस पर हमला बोल देता है। दूसरे, उसके खिलाफ राजद्रोह या ऐसे ही मुकदमे दर्ज करा दिए जाते हैं। विपक्षी नेताओं के ऊपर मुकदमे कर दिए जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में आम आदमी के मन में भय पैदा होना स्वाभाविक है। ऐसा वातावरण मैंने आजाद भारत में पहली बार देखा।

सरकारी पारदर्शिता के लिए सूचना के अधिकार, भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए लोकपाल जैसी संस्‍थाओं की स्थिति पर आपकी क्या राय है?

याद करिए 2014 के पहले का समय, भारतीय जनता पार्टी कैसे लोकपाल की बातें करती थी। पार्टी के लोग प्रदर्शन करते थे, हमारी सरकार (यूपीए) पर आरोप लगाते थे। लेकिन छह साल बीत गए, क्या हुआ? अभी तक लोकपाल कैसे काम करेगा, उसके नियम नोटिफाई नहीं किए गए हैं। इन लोगों ने केंद्र में वैसा ही कर दिया, जैसा गुजरात में किया था। जब भ्रष्टाचार के मामले ही सामने नहीं आएंगे तो कार्रवाई क्या होगी? इसी तरह सूचना के अधिकार के नियमों में बदलाव कर दिया गया है। हजारों की संख्या में ऐसे मामले हैं, जहां सूचना मांगी गई लेकिन सूचना दी नहीं गई। जब सूचना नहीं मिलेगी, तो बातें सामने कैसे आएंगी? जाहिर है, कोई कार्रवाई भी नहीं होगी।

अभिव्य‌िक्ति की आजादी के अलावा भी शिक्षा, स्वास्‍थ्य, रोजगार जैसे बुनियादी अधिकारों की मौजूदा स्थिति पर आपका क्या कहना है?

पहले मैं सरकार के खिलाफ हो रहे विरोध प्रदर्शन की बात करता हूं। सीएए, एनआरसी पर हुए विरोध प्रदर्शनों पर पुलिस का रवैया बहुत खतरनाक रहा है। आप हांगकांग का उदाहरण लीजिए। वहां करीब एक साल से सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हो रहा है, लेकिन पुलिस का बर्बर रवैया वहां ऐसा नहीं रहा जैसा कि उत्तर प्रदेश में दिखा। इसी तरह देश के हर कोने में छात्र आंदोलन शुरू हो गए हैं, जो सीधे तौर पर छात्र असंतोष को जाहिर कर रहे हैं। बेरोजगारी, गैर-बराबरी बढ़ रही है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की हिंसा में साफ तौर पर साजिश दिखती है। सरकार केवल लोगों को बांटने की राजनीति करना चाहती है।

दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने प्राइवेसी को बुनियादी अधिकार माना था लेकिन आधार के मामले में सरकार उस पर अमल करती नहीं लग रही है? आप इसे कैसे देखते हैं?

सुप्रीम कोर्ट ने प्राइवेसी को बुनियादी अधिकार माना है। यह एक अहम फैसला है। लेकिन आपको यह समझना होगा कि फैसला करना अलग बात होती है और उसका पालन करना अलग पहलू है। अगर कोई सरकार उसका पालन नहीं करेगी, तो उसका फायदा क्या? इस समय तो यही स्थिति दिख रही है।

 

 

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