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नाराज नागरिकों की आवाज

नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी को लेकर देश भर में विरोध का नजारा अन्ना आंदोलन जैसा, लेकिन सरकार से अभी भी कोई ठोस संकेत नहीं
मुद्दा 2019 नागरिक प्रश्न, देशव्यापी विरोधः मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान में नागरिकता कानून के विरोध में करीब 20 हजार लोग जुटे

कहां तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हफ्तों बाद बयान से, कुछ हलकों में ही सही, यह कयास शुरू हुआ कि शायद यह सीएए और एनआरसी को लेकर देश भर में फैली उथल-पुथल को शांत करने की पहल है लेकिन तभी एनपीआर आ गया। तो, क्या इससे आशंकाओं के बादल छंटने के बजाय और घने हो सकते हैं? आशंकाओं के बादलों से सबसे पहली गर्जना तो असम में नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 (सीएबी) के 9 दिसंबर को लोकसभा में पेश और पारित होने के साथ ही शुरू हो गई थी। लेकिन 11 दिसंबर को राज्यसभा में पारित हो जाने के बाद तो मानो देश भर में आशंकाओं के बादल फट पड़े। शुरुआत विश्वविद्यालयों से हुई। देश भर के करीब 40 विश्वविद्यालय, उच्च शिक्षण संस्थान, आइआइटी, आइआइएम के छात्रों के हुजूम परिसरों से लेकर सड़कों तक को कुछ अनोखे नारों, विरोध के नायाब तरीकों से गरम करने लगे। फिर तो राजधानी दिल्ली से लेकर देश का शायद ही कोई कोना बचा रहा, जहां ‘सीएए वापस लो, एनआरसी वापस लो’ के नारे हवा में गूंजने नहीं लगे हों। दिन बढ़ने के साथ असम, दिल्ली, कर्नाटक और खासकर उत्तर प्रदेश में हिंसा और पुलिस दमन के डरावने रंग भी उभरने लगे।

फिर तो, राजनीति भी करवट बदलने लगी। लोकसभा और राज्यसभा में जिन दलों और यहां तक कि भाजपा की अगुआई वाले एनडीए के सहयोगी दलों के भी स्टैंड बदलने लगे। जनता दल यूनाइटेड (जदयू), बीजू जनता दल (बीजद), वाइएसआर कांग्रेस ने अपने राज्यों में एनआरसी लागू न करने का ऐलान कर दिया, जबकि इन सभी ने संसद में सीएबी का समर्थन किया था। यह भी कहा जा सकता है कि राज्यसभा में इन्हीं और अन्नाद्रमुक जैसे कुछ दूसरों के बूते यह विधेयक पारित हो सका। 2016 के दिसंबर में भी यह विधेयक लाया गया था लेकिन तब राज्यसभा में गिर गया था, क्योंकि जदयू जैसे दल उसके विरोध में थे और सदन का गणित एनडीए के पक्ष में नहीं था। उस समय भी असम और पूर्वोत्तर से इसके विरोध में तीखी हवाएं उठी थीं, तो मोदी सरकार ने उस विधेयक को खत्म होने देना ही बेहतर समझा था।

उसी के मद्देनजर नए सीएबी में संविधान के छठी अनूसूची में जनजातीय इलाकों को इसके दायरे से बाहर रखा और पूर्वोत्तर के जनजातीय क्षेत्र में इनर लाइन परमिट की व्यवस्था लागू की गई। लेकिन इससे असम, त्रिपुरा, मेघालय वगैरह के लोगों की आशंकाएं नहीं मिटीं और विरोध के शोले भड़क उठे। इससे ऐसी फिजा बनी कि सीएबी का समर्थन करने वाले एनडीए के सहयोगी असम गण परिषद (अगप) विरोध में आ गई और वह सुप्रीम कोर्ट में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), 2019 को चुनौती देने वाली याचिका भी दायर कर चुकी है।

सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ करीब 60 याचिकाएं दायर हो चुकी हैं। 18 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, न्यायाधीश बी.आर. गवई और न्यायाधीश सूर्यकांत की पीठ ने सुनवाई के लिए 22 जनवरी 2020 की तारीख तय की। उधर, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, राजद, राकांपा, वामपंथी पार्टियां तो पहले ही विरोध में थीं। शिवसेना भी लोकसभा में समर्थन, राज्यसभा में वहिर्गमन के बाद कह रही है कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद नए कानून पर राय स्पष्ट करेगी लेकिन महाराष्ट्र में एनआरसी लागू नहीं होगा। एनडीए विरोधी पार्टियों में सबसे तीखा विरोध तो जाहिर है, बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कर रही हैं।

 

असमी आशंकाएं

असम में 1985 के असम समझौते के तहत सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में बनाए गए एनआरसी में नहीं आ पाए करीब 19 लाख लोगों में अधिकतर तकरीबन 13-14 लाख हिंदू और कुछ स्‍थानीय आदिवासी समुदायों के लोग बताए जाते हैं। इन्हीं के असंतोष को मिटाने के लिए सीएए लाया गया, जो कहता है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से 31 दिसंबर 2014 तक धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत में पांच साल से वैध/अवैध प्रवास में रह रहे लोगों को नागरिकता दी जाएगी। यहीं असम और पूर्वोत्तर के राज्यों में पेच फंस गया। वहां बंगाली बहुल बराक घाटी में तो इसका स्वागत हुआ लेकिन गुवाहाटी, कोकराझार, बोडो इलाकों जैसे विशाल क्षेत्र में इसके खिलाफ आग जल उठी और वही नजारा दिखने लगा, जो अस्सी के दशक में दिखा था। लोगों में अपनी भाषा, संस्कृति, जमीन और राजनैतिक दबदबे पर बहिरागतों से खतरे की आशंकाएं नए सिरे से उभर आईं। वहां बहिरागत यानी बाहर से आने वालों का विरोध है, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान।

ऑल असम स्टुडेंट्स यूनियन (आसू) की अगुआई में आंदोलन ने जोर पकड़ा तो 10 जिलों में कर्फ्यू लगाना पड़ा। आठ दिनों तक इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं। विधायकों, मंत्रियों के घरों पर प्रदर्शन होने लगे। इससे असम के भाजपा विधायक भी चिंतित हो उठे और उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व को आगाह किया। इसी वजह से असम समझौते के छठी शर्त के मुताबिक असमिया संस्कृति, भाषा, पहचान की सुरक्षा के लिए एक समिति का गठन किया गया है। इससे हालात यहां तक पहुंच गए कि “सीएए और एनआरसी को कंबो पैकेज” बताने वाले असम के वित्त मंत्री हेमंत बिस्वा सरमा भी कहने लगे कि “देशव्यापी एनआरसी लागू नहीं होगी तो हम सुप्रीम कोर्ट से असम में एनआरसी की प्रक्रिया दोबारा शुरू करने की मांग करेंगे।” गौरतलब है कि असम में एनआरसी के आखिरी नतीजे को भाजपा खारिज कर चुकी है और सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई थी, लेकिन अदालत ने उसकी अपील खारिज कर दी।

बंगाल का गणित

सीएए का सियासी निशाना बंगाल भी है। पिछले लोकसभा चुनाव में 22 सीटें जीतने के बाद भाजपा को इससे उम्मीद है कि वहां ध्रुवीकरण का उसे लाभ मिलेगा। खासकर बांग्लादेश से आए हिंदू मथुआ समुदाय के लोग इस कानून का स्वागत कर रहे हैं। मथुआ समुदाय पहले कांग्रेस, माकपा और तृणमूल को वोट देता रहा है। लेकिन हाल के दौर में इसका रुझान भाजपा की ओर हुआ है। उसकी अच्छी-खासी उपस्थिति करीब 40 विधानसभाओं में बताई जाती है। इससे भाजपा को उम्मीद है कि सीएए से तकरीबन 70-80 विधानसभा क्षेत्रों में उसे बढ़त मिल जाएगी। इसी दुविधा को देखते हुए ममता बनर्जी नागरिकता कानून पर शुरू में दो दिनों तक मौन रहीं। लेकिन हाल के उपचुनावों में उत्तर बंगाल के कलियागंज सीट पर तृणमूल उम्मीदवार की जीत ने उन्हें विरोध में उतरने की वजह दे दिया। कलियागंज वह क्षेत्र है जो हमेशा कांग्रेस के साथ रहा है और पिछले लोकसभा चुनाव में वहां भाजपा को करीब 56 हजार वोटों की बढ़त थी। लेकिन उपचुनाव में तृणमूल उम्मीदवार ढाई हजार वोटों से जीत गया। ममता बनर्जी इसी वजह से एनआरसी को गरीब विरोधी बता रही हैं और इसी के जरिए भाजपा के ध्रुवीकरण की कोशिशों पर धावा बोल रही हैं। 17 दिसंबर को कोलकाता में हुए मार्च में ममता ने कहा, “पश्चिम बंगाल में एनआरसी के डर से 30 लोगों ने आत्महत्या कर ली। इसकी जिम्मेवारी कौन लेगा? हमारे कपड़ों से आप हमारी पहचान नहीं कर सकते। टोपी पहनने का यह मतलब नहीं कि आप मुस्लिम हैं। क्या आप मेरे कपड़ों से मेरी पहचान कर सकते हैं?” जाहिर है, वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के झारखंड चुनाव की एक रैली के उस बयान की ओर इशारा कर रही थीं कि “विरोध करने वाले कपड़े से पहचाने जा सकते हैं।”        

दरअसल, सीएए और एनआरसी विरोध की स्पष्ट दो या कहें तीन मुकम्मल धाराएं हैं। विरोध प्रदर्शनों में शामिल स्वराज अभियान के प्रमुख योगेंद्र यादव कहते हैं, “आंदोलन तीन रूप में देख सकते हैं। एक तो पूर्वोत्तर के लोगों का विरोध, दूसरा देश के अन्य हिस्से में छात्रों-बुद्घिजीवियों के साथ मुसलमानों का विरोध। पूर्वोत्तर में जो विरोध हो रहा है, वह पिछले दरवाजे से कुछ समुदायों के लोगों को बसाने के प्रयास के कारण शुरू हुआ है। इसके अलावा वे लोग विरोध कर रहे हैं जो सैद्धांतिक रूप से इसके खिलाफ हैं। पिछले कुछ दिनों से तीसरी धारा महत्वपूर्ण बन गई है। युवाओं के जुड़ने के कारण यह राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल ले रहा है।” हालांकि वे यह आशंका भी जताते हैं, “अगर आंदोलन को सही दिशा नहीं मिलती है, तो यही खूबसूरती उसकी कमी भी बन सकती है।”

बेशक, चिंगारी तो पूर्वोत्तर से ही भड़की, लेकिन उसके बाद दिल्ली, मुंबई, नागपुर, बेंगलूरू, जयपुर, अहमदाबाद, हैदराबाद, पटना, कोलकाता सहित देश के प्रमुख शहरों में प्रदर्शन तकरीबन दो हफ्ते बाद भी जारी हैं। अब तक 18 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में 16 लोगों की जान गई है, जबकि कर्नाटक में दो लोगों की मौत हुई है। पुलिस गोली चलाने से इनकार करती रही है लेकिन कई मौतें पुलिस की गोली से होने के सबूत भी उजागर होने लगे हैं। जामिया, अलीगढ़ विश्वविद्यालय परिसरों में घुसकर पुलिसिया कार्रवाई दिल दहलाने वाली है। उत्तर प्रदेश के कानपुर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, बनारस, लखनऊ में पुलिसिया कार्रवाई संदेह के घेरे में है।

पहली बार दिल्ली में इंटरनेट कई इलाकों में बंद किए गए। मेट्रो का सामान्य संचालन कई स्टेशनों पर रोक दिया गया। उत्तर प्रदेश के 21 जिलों में तीन से चार दिन इंटरनेट बंद हो गए। जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों पर हुई पुलिस कार्रवाई के विरोध में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, आइआइटी मुंबई, मुंबई विश्वविद्यालय, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, पुणे विश्वविद्यालय, वर्धा में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय, लखनऊ का नदवा कॉलेज सहित देश के प्रमुख संस्थानों के छात्र आंदोलन के समर्थन में खड़े हो गए।

दिल्ली की दास्तां

15 दिसंबर की रात जामिया में क्या हुआ? जामिया इस्लामिया की बीए ऑनर्स की छात्रा ईमान उस्मानी भावुक होकर अपने टूटे हाथ दिखाते हुए कहती है, “पुलिसवालों के हमले के साथ भद्दी गालियां भी बरस रही थीं। जिन्ना की औलादों... पिल्लों को मारो! इन भद्दी गालियों से पल भर को हम सन्न रह गए। तभी पुलिस की लाठी मेरे हाथ पर पड़ी। लेकिन हमारा दोष क्या था? बस यही कि हम नारे लगा रहे थे..आईन बचाने निकले हैं आओ हमारे साथ चलो। हमने कोई मजहबी नारा नहीं लगाया था।”  पीएचडी कर रहे इमरान बताते हैं, “मैं लाइब्रेरी के अंदर पढ़ाई कर रहा था। अचानक शोर-शराबे और फायरिंग की आवाज आई। पुलिस कैंपस के भीतर घुस चुकी थी और छात्रों पर डंडे बरसा रही थी। पुलिस वाले लाइब्रेरी का दरवाजा तोड़कर अंदर दाखिल हुए और गालियां बकते हुए पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों को मारा और फिर बाहर ले जाकर हिरासत में ले लिया।” हालांकि पुलिस का कहना है कि वह असामाजिक तत्वों को खदेड़ने के लिए परिसर के अंदर दाखिल हुई थी और इस दौरान ‘सीमित बल’ प्रयोग ही किया। जामिया की कुलपति नज्‍मा अख्तर ने पुलिस के परिसर में घुसने पर विरोध जताया और जांच की मांग की है।

फिर राजधानी के अलग-अलग हिस्सों में भी इसकी चिंगारी फैली। 17  दिसंबर को  सीलमपुर, जाफराबाद, में हिंसक प्रदर्शन हुए।

जामिया के छात्रों पर पुलिस की कार्रवाई और सीएए-एनआरसी पर अब लोगों का गुस्सा बढ़ने लगा था। 19 दिसंबर को 60 से ज्यादा संगठनों ने जंतर-मंतर, लाल किले पर हजारों की तादाद में प्रदर्शन किया। जंतर-मंतर पर शाम सात बजे कड़ाके की ठंड में भी प्रदर्शनकारियों का उत्साह देखते बनता था। वे पुलिस को गुलाब दे रहे थे और युवा नारे लगा रहे थे, “दिल्ली पुलिस बात सुनो, आओ हमारे साथ चलो, हम युवा हैं बात करेंगे, नहीं मुक्का-लात करेंगे।” पुलिस के सामने वे “जन गण मन” राष्ट्रगान भी गाते रहे और अपने साथ पुलिस को गाने और सावधन खड़ा रहने पर मजबूर कर दिया। धरनास्थल पर छात्रों ने संविधान की प्रस्तावना भी पढ़ी और नारे लगाए कि “अमित शाह को भगवान सदबुद्घि दे।” 20 दिसंबर को एक बार फिर दिल्ली में जामा मस्जिद पर विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ, जिसमें भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद भी प्रदर्शन स्थल पर पहुंचे। हालांकि पूरे दिन शांतिपूर्वक चलने वाला आंदोलन देर रात दरियागंज में अचानक हिंसक हो गया, जिसमें एक कार को आग भी लगाई गई। देर रात चंद्रशेखर ने गिरफ्तारी दी और उसके बाद 21 दिसंबर को उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। जबकि दरियागंज हिंसा मामले में भी 15 लोगों को हिरासत में लिया गया है।

 

उत्तर प्रदेश कथा

हिंसा सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में हुई। अब तक 16 लोगों की मौत हो चुकी है। 10 दिसंबर से 20 दिसंबर तक पुलिस ने हिंसा के मामले में 124 एफआइआर दर्ज की है। 705 कथित आरोपियों को गिरफ्तार किया गया। करीब 5,200 लोगों को एहतियातन हिरासत में लिया गया है। सोशल मीडिया पर 13,101 विवादित पोस्ट के खिलाफ कार्रवाई की गई है। 422 लोगों पर सोशल मीडिया पर पोस्टिंग के लिए पाबंदी लगाई गई है। यह तो रही पुलिस की कहानी। लेकिन लोगों की कहानियां पुलिस दमन की बानगी भी बताती हैं। बनारस में 19 दिसंबर की दोपहर विरोध प्रदर्शन में सज्जादबाग निवासी युवक मो. वकील को गोली लगी और इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। मृतक की पत्नी सविता ने बताया, “मेरे पति की मौत पुलिस की गोली से हुई है, लेकिन पुलिस इसे छिपा रही है।”

लखनऊ, संभल, मेरठ, मुजफ्फरनगर, कानपुर हर जगह प्रदर्शनों का तांता लग गया। लगभग हर जगह पुलिस के गोली चलाने से कई लोगों को लगने और पुलिस दमन की खबरें आने लगी हैं। पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह का कहना है, “इतने पैमाने पर हिंसा होना पुलिस की बड़ी चूक है। पूरे राज्य में इतने बड़े पैमाने पर अराजकता होने का मतलब है कि एडवांस इंटेलिजेंस का अभाव था और पूरी तैयारी भी नहीं थी। ऐसी नौबत क्यों आई कि लखनऊ और अन्य जगहों पर टॉप लीडरशिप को उतरना पड़ा?”

कई लोगों को संदेह है कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के उस बयान के बाद पुलिस ज्यादा सख्त हो गई कि जो सार्वजनिक संपत्ति नष्ट करेंगे, उनसे ‘बदला’ लिया जाएगा और उनकी प्रापर्टी जब्त की जाएगी। मुजफ्फरनगर में कुछ दुकानों को सील करने की खबरें हैं और रामपुर में 28 लोगों को 25 लाख रुपये की वसूली के लिए नोटिस भेजने की भी खबरें आई हैं। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव राजेंद्र चौधरी का कहना है, “हिंसा के नाम पर सरकार निर्दोष लोगों को फंसा रही है। विरोध करना लोगों का संवैधानिक अधिकार है।” बसपा सांसद दानिश अली ने कहा, “कोई मुख्यमंत्री बदले की भावना से काम करेगा?” कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू का कहना है कि जनता ने उन्हें क्या बदला लेने के लिए जनादेश दिया है?

सीएए और एनआरसी की आग बॉलीवुड को भी अछूता नहीं रख पाई। फरहान अख्तर, हुमा कुरैशी, सुशांत सिंह, जावेद जाफरी, स्वरा भास्कर जैसे कई अभिनेता और अभिनेत्रियों ने प्रदर्शनकारियों का साथ मुंबई के ऐतिहासिक अगस्त क्रांति मैदान में जाकर दिया। विरोध महाराष्ट्र के दूसरे जिलों ठाणे, परभणी, नागपुर, औरंगाबाद, नासिक में भी हुए।

बिहार मे 21 दिसंबर को राष्ट्रीय जनता दल ने विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया था। पटना, हाजीपुर, भागलपुर आदि प्रमुख शहरों में विरोध प्रदर्शन किया गया, जिसमें तोड़फोड़ की घटनाओं के साथ अनोखे प्रदर्शन भी देखने को मिले। मसलन पटना में राजद कार्यकर्ताओं ने भैसों को सड़कों पर उतारकर भी विरोध प्रदर्शन किया।

तमिलनाडु में द्रमुक ने भी सीएए और एनआरसी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन रैली निकाली। इसी तरह राजस्थान के जयपुर और मेवात क्षेत्र में भी लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया। गौरतलब यह भी है कि हिंसा की घटनाएं भाजपा-शासित कर्नाटक, उत्तर प्रदेश में ही ज्यादा हुईं।

अब सवाल है कि क्या इससे सरकार के कदम पीछे हट रहे हैं, जिसकी उम्मीद 22 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री के यह कहने से बंधी थी कि 2014 से ही एनआरसी की कोई चर्चा नहीं है और डिटेंशन सेंटर कहीं नहीं बने हैं। हालांकि तथ्य इसके विपरीत हैं, एनआरसी न सिर्फ भाजपा के घोषणा-पत्र में था, बल्कि इस साल राष्ट्रपति के अभिभाषण और संसद में अमित शाह के बयान में भी था। डिटेंशन सेंटर भी कर्नाटक समेत कई राज्यों में बनाए जा रहे हैं। फिर भी बाकी पार्टियों और खासकर एनडीए सहयोगियों के एनआरसी विरोध से लगा कि सरकार कदम पीछे खींच सकती है।

लेकिन एनपीआर (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) के लिए सरकार की पहल से फिर आशंकाएं उभर आई हैं। हालांकि, अमित शाह कह रहे हैं कि एनपीआर का एनआरसी से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन वे खुद इसके पहले कम से कम नौ बार कह चुके हैं कि दोनों जुड़े हुए हैं। एनपीआर में अतिरिक्त जानकारियां देने की मांग भी शंकाएं पैदा कर रही है। कई लोग एनपीआर को एनसीआर का पहला कदम बता रहे हैं। इसलिए आशंकाएं नहीं मिटीं तो इससे सियासत की नई धारा निकल सकती है, जिसका अंदाजा झारखंड चुनाव के नतीजे दे रहे हैं।

साथ में दिल्ली से अक्षय दुबे और लखनऊ से शशिकांत

 

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एनपीआर पर इसलिए संदेह

23 जुलाई 2014: तत्कालीन गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू ने कहा सरकार ने एनपीआर की योजना के तहत एकत्रित जानकारी के आधार पर नेशनल रजिस्टर ऑफ इंडियन सिटीजंस (एनआरआइसी) बनाने का निर्णय लिया है।

26 नवंबर 2014: रिजिजू ने फिर दोहराया “एनपीआर नेशनल रजिस्टर ऑफ इंडियन सिटीजंस (एनआरआइसी) के निर्माण की दिशा में पहला

कदम है।

21 अप्रैल 2015: केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हरिभाई परथीभाई चौधरी ने कहा, “एनपीआर नेशनल रजिस्टर ऑफ इंडियन सिटीजंस (एनआरआइसी) बनाने के लिए ‘मदर डेटाबेस’ के रूप में काम करेगा।”

24 दिसंबर 2019: केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि यह एकदम साफ है कि एनपीआर और एनआरसी में कोई संबंध नहीं है।

 

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नागरिकता कानून में क्या बदला?

अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से 31 दिसंबर 2014 तक आने वाले हिंदू, सिख, बौध, जैन, पारसी या ईसाई समुदाय के लोगों को अवैध शरणार्थी नहीं माना जाएगा। इनके खिलाफ घुसपैठ या नागरिकता को लेकर कोई कार्रवाई चल रही है तो नागरिकता देने के साथ वह कार्रवाई खत्म मानी जाएगी। इन्हें नेचरलाइजेशन (भारत में रहने) के जरिए नागरिकता देने की न्यूनतम समय सीमा 11 साल के बजाय पांच साल होगी। यह कानून छठी अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा के जनजातीय इलाकों में लागू नहीं होगा।

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क्या है एनपीआर का विवाद?

राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) भारतीयों और यहां रहने वाले विदेशी, सबके लिए है जबकि एनआरसी विदेशी नागरिकों के लिए नहीं है। किसी इलाके में कम से कम छह माह से रहने वाले एनपीआर के दायरे में आएंगे। पहला एनपीआर 2010 में बना था, और 2015 में इसे अपडेट किया गया। अगला अपडेट अप्रैल-सितंबर 2020 में होगा। असम में हाल ही एनआरसी का काम पूरा हुआ है, इसलिए उसे एनपीआर से बाहर रखा गया है।

अतिरिक्त जानकारियां

2010 के एनपीआर में 15 जानकारियां मांगी गई थीं। इस बार 21 जानकारियां मांगी जाएंगी। इनमें आधार (ऐच्छिक), मोबाइल नंबर, माता-पिता का जन्म स्थान और उनके जन्म की तारीख, पिछला पता, पासपोर्ट नंबर (अगर है तो), वोटर आइडी नंबर, पैन, ड्राइविंग लाइसेंस नंबर शामिल हैं।

विवाद की वजह

विवाद माता-पिता के जन्म स्थान और उनके जन्म की तारीख पर है। इसलिए एनपीआर को एनआरसी से जोड़कर देखा जा रहा है। यही वजह है कि पश्चिम बंगाल और केरल ने इस पर काम बंद करने की घोषणा की है। एनपीआर में कई व्यक्तिगत डाटा लेने का प्रावधान है।

एनआरसी की दिशा में कदम?

गृह मंत्री अमित शाह ने एक इंटरव्यू में कहा कि एनपीआर का डाटा एनआरसी के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। लेकिन पूर्व गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू संसद में कई बार कह चुके हैं कि एनपीआर, एनआरसी बनाने की दिशा में पहला कदम है। गृह मंत्रालय ने संसद में पेश 2018-19 की सालाना रिपोर्ट में भी यह बात कही है।

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अमित शाह, केंद्रीय गृह मंत्री 

1947 में पाक में अल्पसंख्यकों की आबादी 23% थी, 2011 में यह 3.7% पर आ गई। बांग्लादेश में 1947 में अल्पसंख्यकों की आबादी 22% थी जो 2011 में 7.8 % हो गई

अमित शाह, केंद्रीय गृह मंत्री

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कपिल सिब्बल, पूर्व केंद्रीय मंत्री, कांग्रेस नेता

पता नहीं, गृह मंत्री ने इतिहास कहां पढ़ा है। 'टू नेशन थ्योरी' कांग्रेस की नहीं थी। भारत का कोई मुसलमान आपसे डरता नहीं हैं, न हम डरते हैं। हम डरते तो संविधान से हैं

कपिल सिब्बल, पूर्व केंद्रीय मंत्री, कांग्रेस नेता

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 डेरेक ओ ब्रायन, तृणमूल सांसद

यह विधेयक बंगाली-विरोधी और भारतीय-विरोधी है, असंवैधानिक है। हम तानाशाही की तरफ बढ़ रहे हैं। यह सरकार वादे करने और तोड़ने में अच्छी है

डेरेक ओ ब्रायन, तृणमूल सांसद

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दयानिधि मारन, डीएमके सांसद

श्रीलंका के तमिल, जो हमारे यहां पिछले 30 साल से शरणार्थी कैंपों में रह रहे हैं। आपने उनके बारे में सोचा तक नहीं, क्योंकि आपमें मुस्लिमों के खिलाफ घृणा बैठी है

दयानिधि मारन, डीएमके सांसद

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