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संवैधानिक मर्यादाएं दरकिनार

कश्मीर से जुड़ी याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से पहले ही सरकार ने नियुक्त किए उप-राज्यपाल
कश्मीर राजनीतिक असंतोष जाहिर करने पर पाबंदी है

जैसी उम्मीद थी, कश्मीर घाटी में आपातकाल जैसी स्थिति पर यूरोप का समर्थन हासिल करने का मोदी सरकार का प्रयास नाकाम हो गया। यूरोपीय सांसदों को न्योता देने वाले गैर सरकारी संगठनों की विश्वसनीयता और उन्हें मिलने वाली फंडिंग को लेकर सवाल उठने लगे। यह प्रयास इतना बचकाना और निंदनीय था कि धुर-दक्षिणपंथी विचारधारा वाले यूरोपीय जनप्रतिनिधि भी श्रीनगर के सन्नाटे और प्रतिबंधों के बीच वहां की त्रासदी के प्रति आंखें मूंदकर नहीं रह सकते। खौफनाक बात यह है कि सरकार अपने निष्ठुर तरीकों को नागरिकों से छिपाना चाहती है।

अगस्त में हमें अधिनायकवादी कदम का पहला उदाहरण तब देखने को मिला जब कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद 370 के सभी प्रावधानों और अनुच्छेद 35ए को हटा दिया गया, कश्मीरी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, शांतिपूर्ण प्रदर्शनों पर रोक के साथ सभी असंतुष्टों को चुप रहने को बाध्य कर दिया गया और मोबाइल और इंटरनेट पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून लागू होने से एक महीने पहले सितंबर में हमने देखा कि मोदी सरकार ने राज्य के विभाजन के बाद बनने वाले केंद्रशासित क्षेत्रों के बीच परिसंपत्तियों के बंटवारे के लिए छह समितियों का गठन किया। पुनर्गठन कानून लागू होने से पहले ही सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी गई। राज्य में आपातकाल जैसी स्थिति के लिए राष्ट्रपति के आदेशों को भी चुनौती दी गई। संविधान की मर्यादा को मानने वाली सरकार कानून लागू करने से पहले कोर्ट का फैसला आने का इंतजार करेगी, खासकर यह देखते हुए कि अभी यह कानून प्रभावी नहीं हुआ है। इस बीच, राजनेता अब भी जेलों में बंद हैं, माता-पिता अपने बच्चों से बात नहीं कर पा रहे हैं और कश्मीरी छात्र देश के दूसरे हिस्सों में अपनी फीस नहीं भर पा रहे हैं। अक्टूबर में लोगों को कुछ समस्याओं से राहत मिली, भले ही यह मामूली थी। पोस्टपेड मोबाइल सेवाएं चालू हो गई हैं, परिवार कम से कम आपस में बात कर सकते हैं। लेकिन इटरनेट सेवाएं अब भी बंद हैं, इसलिए माता-पिता नौकरशाही की बेहद जटिल प्रक्रिया के बिना अपने बच्चों को पैसे नहीं भेज सकते। कश्मीरी अर्थव्यवस्था की दो मुख्य जीवनरेखा- पर्यटन और व्यापार को 10,000 करोड़ रुपये का नुकसान होने का अंदेशा है। राजनीतिक नेताओं के अलावा 100 से ज्यादा किशोर अब भी जेलों में बंद हैं।

राजनीतिक असंतोष जाहिर करने पर पाबंदी है। एक घटना में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का प्रयास कर रही बुजुर्ग महिलाओं को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। कुछ महिलाओं को तभी छोड़ा गया जब उन्होंने यह बांड भरकर दिया कि वे भविष्य में किसी प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लेंगी। जो नेता जेल से बाहर आना चाहते हैं उनसे भी कहा जा रहा है कि इस तरह का बांड भरने पर ही रिहाई मिल सकती है। कुछ नेताओं ने ऐसा किया भी है। इन नेताओं को जन सुरक्षा कानून जैसे कानूनों के तहत गिरफ्तार किया गया है, जिसमें सरकार को गिरफ्तार व्यक्ति के खिलाफ कोई सबूत देने की जरूरत नहीं पड़ती। यह सब उस देश में हो रहा है जिसने शांतिपूर्ण विरोध के जरिए ही आजादी हासिल की थी और जहां विरोध करने का संवैधानिक अधिकार है।

मोदी सरकार ने ब्लॉक डेवलपमेंट काउंसिल (बीडीसी) के चुनाव करवाकर जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। सरकार ने यह तो कह दिया कि ये चुनाव पार्टी आधार पर कराए जा रहे हैं, लेकिन जब राज्य की सभी पार्टियों के शीर्ष नेता जेल में बंद हों, तो असली उद्देश्य छिप नहीं सकता। असली मकसद था विपक्ष की गैरमौजूदगी सुनिश्चित करके ज्यादा से ज्यादा भाजपा प्रत्याशियों अथवा समर्थकों को जिताना। प्रधानमंत्री ने बीडीसी चुनाव का प्रचार लोकतंत्र का प्रतीक बताकर किया, जबकि हकीकत यह है कि वोट देने वाले पंचों को सुरक्षा घेरे वाले होटलों में रखा गया था और सुरक्षा बलों के साथ ही उन्हें वोट डालने के लिए ले जाया गया। क्या यही लोकतंत्र है?

संवैधानिक मर्यादा का अपमान जारी रखते हुए मोदी सरकार ने स्वतंत्र निगरानी वाले सभी आयोगों- जैसे राज्य मानवाधिकार आयोग, सतर्कता आयोग, राज्य महिला आयोग और यहां तक कि दिव्यांग आयोग (दिव्यांगों ने क्या बिगाड़ा?) को भी बंद कर दिया है। आश्चर्य की बात यह है कि किसी भी इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंट मीडिया ने इन संस्थाओं को बंद किए जाने की खबरें प्रकाशित नहीं कीं। इन संस्थाओं से सरकार के कामकाज पर कुछ तो अंकुश लगता ही था। इसी तरह, राज्य के विभाजन, दर्जा घटाने और अनुच्छेद 370 संबंधी फैसलों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई शुरू होने से पहले मोदी सरकार ने गिरीश चंद्र मुर्मू को नवगठित केंद्रशासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर का और आर.के. माथुर को लद्दाख का उप-राज्यपाल नियुक्त कर दिया है। मुर्मू के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, सिवाय इसके कि जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब से वे उनके भरोसेमंद हैं। इन दोनों में से कोई भी व्यक्ति पहले जम्मू-कश्मीर में नहीं रहा है। राज्य के लोगों के प्रति इनके मन में कोई सहानुभूति है या नहीं, यह अभी देखना है।

जब तक यह लेख प्रकाशित होगा, तब तक जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून लागू हो चुका होगा। जेलों में बंद राजनीतिक दलों के नेता, तेजी से गिरती अर्थव्यवस्था, नागरिक अधिकारों में कटौती, पर्याप्त ईंधन की व्यवस्था के बिना कड़कड़ाती सर्दी और बढ़ते आतंकवाद के बीच जम्मू-कश्मीर का संघर्ष जारी रहेगा। क्या मुर्मू इनमें से किसी समस्या को कम करेंगे? इसकी संभावना तो नहीं है। उनका काम मोदी सरकार के आदेशों को लागू करना होगा, और जैसा हम देख चुके हैं, ये आदेश हर तरह से अधिनायकवादी होते हैं।

(पैराडाइज एट वॉरः ए पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर लेखिका की चर्चित पुस्तक है, वह कश्मीर पर गठ‌ित वार्ताकार समूह की सदस्य भी रही हैं )

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