Advertisement

विलय की शर्तों का उल्लंघन

अनुच्छेद 370 पर भाजपा का हमला वैचारिक, तो नेहरू और इंदिरा सरकार का लचर और अनिर्णायक रहा
संवेदनशील मसले को हल करने के तरीके पर सवाल

जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल, 2019 के पारित हो जाने के बाद लद्दाख और जम्मू-कश्मीर को अलग-अलग केंद्रशासित प्रदेश बनाए जाने पर संसद की मुहर लग चुकी है। संविधान के अनुच्छेद 370 के खंड 1 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति ने आदेश पारित किया। इस आदेश के बाद अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को मिला विशेष दर्जा समाप्त हो गया। यह बड़ी राजनैतिक घटना है। इसी अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ था। 1949 में इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ा गया था। इसके तहत राज्य का अपना संविधान था और देश का कानून यहां लागू नहीं होता था। केंद्र की सरकार यहां सिर्फ रक्षा, विदेश और संचार के मामले में ही दखल देने को अधिकृत रही है। नए कानून के बाद अब भारत का कोई भी नागरिक जम्मू-कश्मीर में घर या जमीन खरीद सकेगा और राज्य सरकार की नौकरी में भी शामिल हो सकेगा। कुल मिलाकर, अब जम्मू-कश्मीर दिल्ली की तरह ही केंद्र शासित प्रदेश होगा। यहां चुनी हुई राज्य सरकार तो होगी लेकिन केंद्र की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त उप-राज्यपाल भी होंगे। जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा-व्यवस्था अब गृह मंत्रालय के अधीन होगी।

इस मसले पर तीखी राजनैतिक प्रतिक्रियाओं से इतर और आश्चर्यजनक रूप से बसपा, आम आदमी पार्टी, वाइएसआर कांग्रेस सरीखे दलों ने इसका समर्थन किया है। जहां तक इस मसले पर विरोध और असंतोष का सवाल है, यह कश्मीरी नागरिकों को प्राप्त विशेष अधिकारों के साथ छेड़छाड़ से जुड़ी पहल है, इस प्रक्रिया में उनकी भागीदारी अधिक सराहनीय हो सकती थी। हमें उस स्थिति से वाकिफ रहने की आवश्यकता है कि किन परिस्थितियों में कश्मीर का विलय भारतीय संघ में हो पाया था और किन परिस्थितियों में जम्मू-कश्मीर को विशेष छूट दी गई थी। गौरतलब है कि अगस्त 1947 में जब अंग्रेज भारत छोड़कर जा रहे थे, तब रियासतों के समक्ष भारत या फिर नवनिर्मित पाकिस्तान में विलय संबंधी निर्णय लेने की चुनौतीपूर्ण स्थिति थी।

3 जून 1947 को घोषित 'माउंटबेटन प्लान' के तहत स्पष्ट हो चुका था कि ब्रिटिश स्वामित्व समाप्त होने के बाद भारतीय रियासतों को यह स्वतंत्रता थी कि वे भारत या पाकिस्तान किसी एक में शामिल हो सकते हैं। कश्मीर के महाराजा, हैदराबाद के निजाम और जूनागढ़ के नवाब ने अब तक किसी भी संघ में विलय नहीं किया था। हरि सिंह द्वारा अब तक भारत में शामिल नहीं होने के निर्णय से शक होने लगा था कि वे पाकिस्तान में विलय चाहते हैं। प्रांतीय सरकार द्वारा पाकिस्तान के साथ ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट' के बाद ऐसे कयास और तेज होने लगे थे। ब्रिटिश भारतीय शासन द्वारा तैयार किए गए इस एग्रीमेंट में रियासतों द्वारा किसी भी संघ में विलय होने तक सार्वजनिक क्षेत्र की सभी प्रशासनिक व्यवस्थाएं हूबहू लागू रखने का प्रावधान था, जिसे भारत ने ठुकरा दिया लेकिन पाकिस्तान ने बिना कोई देरी किए स्वीकार कर लिया। भौगोलिक-आर्थिक कारणों से भी कश्मीर के पाकिस्तान में मिलने की संभावनाएं चिंताएं बढ़ा रही थी। निश्चित ही कश्मीर के आर्थिक संबंध पश्चिमी पंजाब और उत्तर-पश्चिम के सीमांत राज्यों से जुड़े थे, विभाजन के बाद ये राज्य पाकिस्तान में चले गए थे। हरि सिंह के ढुलमुल रवैए से भी पाकिस्तान के मंसूबों को बल मिल रहा था।

दूसरी ओर, 1932 में शेख अब्दुल्ला ने ‘मुस्लिम कान्फ्रेंस’ की स्थापना कर मुसलमानों के अधिकारों के हिमायती के रूप में घाटी से प्रांतीय शासन समाप्त करने का मोर्चा संभाल लिया था। 1946 में अब्दुल्ला ने ‘कश्मीर-छोड़ो’ आंदोलन से शक्ति प्रदर्शन भी किया, जिसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई। शेख अब्दुल्ला के प्रति नेहरू की संवेदनशीलता का अंदाजा इस घटना से भी लगाया जा सकता है कि जून 1946 में उन्हें रिहा कराने के लिए नेहरू ने कश्मीर जाने की घोषणा कर दी थी। ऐसा भी कहा जाता है कि नेहरू के इस कदम से नाराज हरि सिंह भारत में विलय करने में आना-कानी करने लगे। कुल मिलाकर, भारत की धर्मनिरपेक्षता, कश्मीरियत में नेहरू और शेख अब्दुल्ला का विश्वास और अंततः हरि सिंह की मजबूरी के बीच जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का अंग बन गया। ऐसी विषम परिस्थिति में जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ में शामिल करते हुए अनुच्छेद 370 के तहत संवैधानिक सहूलियतें दी गईं। इसकी आत्मा कहा जाने वाला अनुच्छेद 35ए वहां के नागरिकों को विशेष अधिकार देता था, जो 370 के खत्म होते ही स्वतः समाप्त हो गया।

ऐतिहासिक रूप से देखें तो इन मुद्दों पर भाजपा का हमला वैचारिक रहा तो वहीं नेहरू और इंदिरा सरकार की पहल लचर तथा अनिर्णायक नीतियों वाला था। समाजवादी आंदोलन के दो बड़े पुरोधा डॉ. लोहिया और जेपी अनुच्छेद 370 को लगातार कमजोर करने की कवायद तथा शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी, दोनों का विरोध करते रहे। जेपी का मानना था कि बाकी चीजों के अलावा, कश्मीर हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए भी एक बेहतरीन उदाहरण है। इसलिए, यह अत्यंत आवश्यक है कि जो भी लोग धर्मनिरपेक्षता में यकीन रखते हैं, उन्हें इसकी रक्षा करनी चाहिए। तात्कालिक परिस्थितियों के लिए जेपी कांग्रेस और जनसंघ दोनों को एक ही तरह मानते थे। शेख अब्दुल्ला को चुनाव से बाहर रखे जाने का उन्होंने जमकर विरोध किया था। गिरफ्तारी के बाद जेपी निरंतर उनकी रिहाई की कोशिश में थे। उन्होंने इंदिरा गांधी को एक पत्र में लिखा था, “शेख अब्दुल्ला को उन पर लगे आरोपों के खिलाफ खुद को बेदाग साबित करने का अवसर दिए बगैर कैद करना न्यायसंगत नहीं है।” जॉर्ज फर्नांडिस को भी कश्मीर मसले का मंत्री नियुक्त किया गया था। उन्होंने भी इन विषयों को बहुत ही संवेदनशील नजर से देखा। आज सत्तासीन दल पूर्ण बहुमत में है, इसलिए वह इस विधेयक को कानून का रूप लेने में सफल हो गया। अब जब यह कानून बन चुका है, केंद्र सरकार से अपेक्षा है कि वह स्थानीय नागरिकों की सुख-शांति और सद्भावना आश्वस्त कर क्षेत्र में अमन का माहौल बहाल करे।

(लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement