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आवरण कथा/विवाद की जड़: हिंदी प्रकाशन का नया अध्याय

एक पुराने उपन्यास ने बताया कि नए पाठक भी पुराने लिखे हुए पर हुए दोबारा मुग्ध हो सकते हैं
हिंदी में रॉयल्टी हमेशा विवाद का विषय रही है

कुछ दिन पहले रायपुर में हिंदी के यशस्वी लेखक विनोद कुमार शुक्ल को 30 लाख रुपये की रॉयल्टी मिलने से विवाद खड़ा हो गया। हिंदी के कुछ लेखक इस हैरतअंगेज घटना पर जहां एक तरफ जश्न मना रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ कुछ लेखक इस रॉयल्टी की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं।

आचार्य शिवपूजन सहाय ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि प्रेमचंद को उनके उपन्यास रंगभूमि पर 1800 रुपये की रॉयल्टी मिली थी। रंगभूमि 1925 में छपी थी। यानी आज से सौ साल पहले। उस समय के 1800 रुपये आज के हिसाब से कम से कम एक लाख 80 हजार तो जरूर हो गए होंगे। इतनी बड़ी रकम उस जमाने में सब लेखकों को नसीब नहीं थी। मैथिली शरण गुप्त की भारत भारती प्रेमचंद के गोदान से अधिक बिकी थी। पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का चंद हसीनों के खुतूत और दिल्ली का दलाल अपने समय के बेस्ट सेलर थे। भगवती चरण वर्मा का 1934 में प्रकाशित उपन्यास चित्रलेखा बाद में इतना बिका कि आजादी के बाद भगवती बाबू का जीवन उसकी रॉयल्टी के सहारे निकल गया।

लेकिन इसके वाबजूद उस जमाने में भी लेखकों की रॉयल्टी प्रकाशक मार लेते थे। शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में लिखा। अगर प्रकाशकों ने प्रेमचंद को सही रॉयल्टी दी होती, तो उन्हें जीवन में इतना संघर्ष नहीं करना पड़ता। खुद शिवपूजन बाबू ने अपनी डायरी में लिखा है कि पुस्तक भंडार के मालिक प्रकाशक रामलोचन शरण और उनके मित्र प्रकाशक राजा राधिकरामण प्रसाद सिंह ने उनकी पूरी रॉयल्टी नहीं दी।

निराला को भी उनकी रॉयल्टी का पूरा हक जीते जी नहीं मिला अन्यथा उनकी यह हालत नहीं हुई होती। प्रेमचंद इस समस्या को जान गए थे और खुद प्रकाशक बनकर उन्होंने हंस प्रकाशन शुरू किया और अपनी पत्नी के कहानी संग्रह भी इसी प्रकाशन से छापे।

आजादी के बाद प्रकाशकों से शायद रॉयल्टी न मिलने के कारण ही यशपाल, जैनेन्द्र, दिनकर, उपेंद्रनाथ अश्क, राजेन्द्र यादव भी खुद अपनी किताबें छापकर प्रकाशक बन गए थे। यह अलग बात है कि वे प्रकाशक के बजाय लेखक बने रहे और उन्हें इस धंधे में पर्याप्त सफलता नहीं मिली।

 

बकौल रवींद्र कालिया, धर्मवीर भारती को हर साल ज्ञानपीठ से गुनाहों के देवता के लिए एक लाख रुपये की रॉयल्टी मिलती थी। इस उपन्यास के 169 संस्करण निकल चुके हैं। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल को मात्र छह माह के भीतर उनके उपन्यास की बिक्री से 30 लाख रुपये की रॉयल्टी का मिलना हिंदी जगत की ऐतिहासिक घटना है। उसने सबको हतप्रभ कर दिया है। पिछले दिनों यह घटना सोशल मीडिया पर छाई रही और रॉयल्टी की हकीकत को लेकर बहुत हंगामा भी मचा। हिंद युग्म के मालिक शैलेश भारतवासी ने तो कई माह पहले ही अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि वे विनोद कुमार शुक्ल को तीस लाख रुपये की रॉयल्टी देंगे और उन्होंने इसे कर दिखाया।

लेकिन कुछ लोगों ने इस रॉयल्टी को प्रचार तंत्र का नतीजा बताया। कुछ ने आशंका व्यक्त की कि सरकारी खरीद के कारण भी यह बिक्री बढ़ी हो। वीरेंद्र यादव ने तो विनोद जी के इस उपन्यास की गुणवत्ता पर ही सवाल उठा दिया और लिखा कि यह छत्तीसगढ़ के आदिवासी जीवन का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि मनमोहन पाठक का उपन्यास घटा गगन गहरानी यह चित्रित करता है। जनसत्ता के पूर्व संपादक ओम थानवी ने लिखा कि विनोद जी से जलने वाले लोग हिंदी में बहुत हैं और वे 30 लाख की रॉयल्टी को पचा नहीं पा रहे हैं। लेकिन आम तौर पर इस बिक्री से हिंदी के लेखकों के चेहरे पर एक खुशी भी है और उम्मीद भी कि आज तक हिंदी के किसी लेखक को इतनी रॉयल्टी नहीं मिली, लेकिन हो सकता है अब दिन फिरें। हिंदी का लेखक रॉयल्टी की उम्मीद ही नहीं करता। अलबत्ता, वह पैसे देकर अपनी किताब छपवाता है और इसी से संतुष्ट और उपकृत रहता है कि उसकी किताब किसी तरह छप गई। ऐसे में विनोद जी को इतनी रॉयल्टी मिलना हिंदी जगत ही नहीं हिंदी मीडिया के लिए भी बड़ी खबर है। पर किसी अखबार ने इस अनहोनी घटना को तवज्जो नहीं दी। क्या 28 साल पहले छपी किताब की 80 हजार से अधिक प्रतियां 6 माह में बेच देना मार्केटिंग स्ट्रेटजी का नतीजा है या विनोद जी के साहित्य में नए पाठकों की अचानक बढ़ी दिलचस्पी का नतीजा है? यह पाठक हिंदवी रेख्ता आजतक और लिट फेस्ट के आयोजनों से बना है या सोशल मीडिया पर किताब के प्रचार से या अमेजन पर ट्रेंड करने से, क्योंकि राजकमल प्रकाशन इस उपन्यास को इतना नहीं बेच सका। क्या यह नई हिंदी का कमाल है, जो हिंद युग्म का नारा है। आखिर नई हिंदी क्या है?

प्रश्न यह है कि जिस विनोद कुमार शुक्ल को दो बड़े प्रकाशक उनकी सारी किताबों पर सालाना 25 हजार रुपये की रॉयल्टी बड़ी मुश्किल से दे पाते थे, वहीं एक नया प्रकाशक उनके एक उपन्यास पर 30 लाख रुपये की रॉयल्टी कैसे दे पाया? क्या दोनों बड़े प्रकाशक विनोद जी को अब तक धोखा दे रहे थे, उनकी रॉयल्टी डकार रहे थे या उनकी मार्केटिंग स्ट्रेटजी कमजोर थी और वे वाकई उनकी किताबें नहीं बेच पा रहे थे?

क्या विनोद जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने और 40 लाख रुपये का पेन अवॉर्ड मिलने की घटना ने रातोरात उनके पाठक पैदा कर दिए?

जब निर्मल वर्मा की किताबों को लेकर रॉयल्टी विवाद हुआ था, तब निर्मल जी की पत्नी गगन गिल ने प्रेस को बताया था कि उनकी किताबें छापने वाला प्रकाशक साल में महज एक लाख रुपये की रॉयल्टी देता है। बाद में गगन जी ने निर्मल जी की किताबें वापस ले कर दूसरे प्रकाशक को दे दी थीं। जब वह दूसरा प्रकाशन बंद हो गया तो किसी तीसरे प्रकाशक ने उन किताबों को अपने यहां से छापना शुरू कर दिया। अंत में उस प्रकाशक से डील हुई, जो निर्मल जी का पहला प्रकाशक था, जिस पर गगन जी ने रॉयल्टी चुराने के आरोप लगाए थे। अब उसी प्रकाशक ने निर्मल जी की सारी किताबें सालाना 26 लाख रुपये से ऊपर की रॉयल्टी पर फिर से वापस ले ली हैं।

देखा जाए, तो हिंदी में प्रकाशन की दुनिया बहुत रहस्यमयी है और वह एक अंडरवर्ल्ड की तरह काम करती है। उसके कई तहखाने बन चुके हैं। बड़े प्रकाशकों से किताब छपवाने की कला भी रहस्यमयी होती जा रही है। हिंदी लेखकों का एक बड़ा समूह उन्हीं प्रकाशकों से संचालित होता है। इसमें वामपंथी, अति क्रांतिकारी सब शामिल हैं। जो प्रकाशक वैकल्पिक प्रकाशक होने का दावा करते हैं वे भी लेखकों को रॉयल्टी देना तो दूर, हिसाब तक नहीं देते।

 पिछले दिनों हिंदी के प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार-अनुवादक आनंद स्वरूप वर्मा ने फेसबुक पर गुहार लगाई कि उन्हें अनुवाद कार्यों के दो लाख रुपये का बकाया उनके प्रकाशक से दिलवाया जाए, क्योंकि प्रकाशक न उनका फोन उठाता है न कोई जवाब देता है। उन्होंने यह मार्मिक गुहार अस्पताल के बिस्तर से लगाई। कुछ साल पहले खुद विनोद कुमार शुक्ल ने एक मार्मिक गुहार लगाई थी कि प्रकाशक उनकी किताब न छापें क्योंकि वह बिना अनुमति के किताबें छापकर पैसे कमा रहे हैं और रॉयल्टी नहीं दे रहे हैं। उनकी उस गुहार के बाद लेखक प्रकाशक संबंधों पर हिंदी साहित्य में जबरदस्त बहस छिड़ गई थी।

 ऐसे में विनोद कुमार शुक्ल को 30 लाख रुपये रॉयल्टी मिलने पर दूसरे प्रकाशकों पर वाजिब दवाब बनेगा और लेखक-प्रकाशक संबंधों के सुधरने की उम्मीद जागेगी। इससे बड़े प्रकाशकों का एकाधिकार भी टूटेगा। हिंदी की दुनिया में इस पर बहस होनी चाहिए लेकिन बड़े साहित्यकार बड़ी चतुराई से चुप्पी लगाए बैठे हैं। लेखक संगठनों ने भी अपनी खाल बचाए रखी है, क्योंकि उनके पदाधिकारियों के इन प्रकाशकों से मधुर संबंध हैं। एक सवाल यह भी है कि क्या किताबें बड़े पुरस्कार मिलने, विवाद में पड़ने या सोशल मीडिया के प्रचार, मार्केटिंग टेक्नीक और ब्रांडिंग से बिकती हैं या गुणवत्ता पर? या वाकई क्या इस बीच एक नया और युवा पाठक वर्ग आया है और वह अपनी रुचियों जरूरतों और समझ से अपनी पसंद की किताबें ले रहा है? लेकिन प्रकाशकों पर नकेल कैसे कसी जाए? हिंदी समाज किंकर्तव्यविमूढ़ है। बेबस और लाचार है। लेखक दीनहीन हैं।

अगर लेखक खुद प्रकाशक बनता है, तो वह प्रकाशकों की तरह दांव-पेच न जानने के कारण सफल नहीं हो पाता। आज भी कई प्रकाशक लेखकों से पैसे लेकर किताबें छाप रहे हैं। ये लोग रॉयल्टी नहीं देते न ही उसका हिसाब देते हैं। अगर कोई विरोध करे, तो वे उसे ब्लैक लिस्टेड कर देते हैं। जो लोग सफल लेखक होना चाहते हैं, वे प्रकाशकों के खिलाफ नहीं बोलते। मौन रहते हैं।

विनोद जी को अगर 86 वर्ष की उम्र में यह राशि मिली भी है, तो वे उसका अब अपने लिए क्या उपयोग कर पाएंगे। शायद परिजनों को फायदा हो पर हिंदी का लेखक तो जीवन भर भटकता रहता है। यह उसकी नियति है। अगर बाजार उसका फायदा कर दे, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन अब युवा लेखक खुद अपनी किताबों के सेल्समैन बन गए हैं और अपनी किताबों की मार्केटिंग कर रहे हैं।

विमल कुमार

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं)

 

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