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संघीय ढांचे में नागरिकता पर अराजकता

आधे से ज्यादा राज्यों द्वारा एनआरसी को लागू करने से इनकार करना, संवैधानिक संकट की दस्तक
मुद्दा 2019  नागरिक प्रश्न, ऐसा भी विरोध: नई दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में दिल्ली पुलिस को गुलाब का फूल देते छात्र

नागरिकता और एनआरसी पर राजनेताओं के घोर घमासान के बीच कोलकाता हाइकोर्ट ने बिल्ली के गले में घंटी बांधने की शुरुआत कर दी है। चीफ जस्टिस की बेंच ने अंतरिम आदेश जारी करते हुए ममता सरकार को नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के विरोध में किए जा रहे सारे विज्ञापनों को हटाने का आदेश दिया है। हाइकोर्ट में इस मामले की अगली सुनवाई 9 जनवरी को होगी। दिलचस्प बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही मामलों में 59 से ज्यादा याचिकाओं पर केंद्र सरकार से 22 जनवरी तक जवाब मांगा है। ममता बनर्जी ने राजनीतिक विरोध को अंतरराष्ट्रीय आयाम देते हुए नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी पर संयुक्त राष्ट्र या मानवाधिकार आयोग की निगरानी में जनमत संग्रह कराने की मांग कर डाली है। दूसरी तरफ भाजपा नेताओं के बयान, प्रधानमंत्री के भाषण और पीआइबी के स्पष्टीकरण से पूरे मामले में असमंजस और भी बढ़ गया है। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी पर समर्थक और विरोधी दोनों ही अधूरी जानकारी के वायरस से ग्रस्त हैं, क्योंकि इसके कानूनी पहलुओं का सच कुछ और है। 

आइए जानते हैं कि नागरिकता, एनपीआर और एनआरसी पर कानून क्या कहता है। संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत नागरिकता और विदेशियों से संबंधित मामलों पर केंद्र सरकार और संसद को संपूर्ण अधिकार हैं। संसद ने सन 1955 में नागरिकता कानून बनाया, जिसमें पिछले कई दशकों में अनेक बार संशोधन हुए हैं। साल 2004 में नागरिकता कानून की धारा 14 (ए) से केंद्र सरकार को भारत में रहने वाले नागरिकों के रजिस्टर यानी एनआरसी बनाने का अधिकार है। जनगणना के लिए सन 1948 में बनाए गए कानून के तहत सन 2003 में नियम बनाए गए, जिसके अनुसार देश में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर की व्यवस्था लागू हुई। इसमें छह महीने या उससे अधिक समय से रहने वाले सभी विदेशियों का भी पंजीकरण होता है। सन 2010 में पहला राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनाया गया। रजिस्ट्रार जनरल ने 31 जुलाई को आदेश जारी किया है, जिसके अनुसार असम के अलावा देश के दूसरे हिस्सों में अप्रैल 2020 से सितंबर 2020 के बीच एनपीआर को बनाने की प्रक्रिया पूरी होगी।

असम समझौते के तहत एनआरसी लागू करने के लिए असम के मौजूदा मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने साल 2005 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अनेक सालों की जद्दोजहद के बाद एनआरसी रजिस्टर तो बना, पर उसके बाद लगभग 19 लाख लोग नागरिकता के दायरे से बाहर होकर घुसपैठिए बन गए। भाजपा नेता और मंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा अब एनआरसी की फाइनल लिस्ट के पुनरीक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट के अनुमोदन की मांग कर रहे हैं। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसले को आधार मानते हुए नई याचिका से नागरिकता संशोधन कानून को रद्द करने की मांग की गई। क्योंकि अवैध शरणार्थियों को नागरिकता देने से राज्यों में विदेशी आक्रमण की स्थिति बनने से संविधान के अनुच्छेद 355 का उल्लंघन हो रहा है। 

संविधान के अनुच्छेद 258 के तहत विदेशियों की पहचान, उन्हें हिरासत में लेने और वापस भेजने का काम राज्यों का है। जनगणना कानून में सन 1994 में किए गए बदलाव और धारा चार और पांच के अनुसार जनगणना और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के मामलों पर केंद्र सरकार के निर्देशों को मानने और सहयोग के लिए स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकारें बाध्य हैं। कांग्रेसशासित सरकारों और भाजपा की गठबंधन सरकारों के बाद अब गोवा की भाजपा सरकार भी एनआरसी से पल्ला झाड़ रही है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बघेल ने कहा है कि महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के 1906 के कानून का विरोध किया था, उसी तर्ज पर बापू की 150वीं जयंती पर भारत में एनआरसी का विरोध किया जाएगा। केंद्र का फैसला लागू करने से राज्य सरकारें इनकार करें तो संविधान के अनुच्छेद 355 के तहत चेतावनी देने के बाद अनुच्छेद 356 के तहत राज्य सरकारों को बर्खास्त करने का केंद्र के पास अधिकार है। देश की आधी आबादी के राज्यों द्वारा संवैधानिक व्यवस्था को लागू करने से यदि इनकार किया जा रहा है, तो इसे राष्ट्रीय संवैधानिक संकट के तौर पर देखा जाना चाहिए।

एक अहम बहस डिटेंशन सेंटर पर छिड़ गई है। छह महीने से ज्यादा गैरकानूनी तौर पर रह रहे विदेशियों को नजरबंद करने के लिए, यूपीए सरकार ने सन 2009 में राज्यों को डिटेंशन सेंटर स्थापित करने का निर्देश दिया था। सितंबर 2018 में सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके डिटेंशन सेंटरों को जेलों से अलग करने की मांग की, जिसके बाद जनवरी 2019 में केंद्र सरकार ने मॉडल डिटेंशन सेंटर के लिए 11 पेज का मैनुअल जारी कर दिया। राज्यों के अधिकार क्षेत्र में रहने वाले डिटेंशन सेंटरों में बच्चों को माताओं के साथ ही रखने का प्रावधान है। असम में छह डिटेंशन सेंटर चल रहे हैं और कर्नाटक में भी पीआइएल के बाद दो डिटेंशन सेंटर पर काम चल रहा है। डिटेंशन सेंटर में बिजली, पानी, रसोई, बच्चों के लिए स्कूल समेत सभी जरूरी सुविधाएं मुहैया कराने की व्यवस्था यदि बनी तो अधिकांश घुसपैठिए, मलिन बस्ती के बजाय डिटेंशन सेंटर में ही रहना पसंद करेंगे। अवैध घुसपैठियों को डिटेंशन सेंटर में रखने के बजाय यदि वर्क परमिट देकर भारत में रहने की इजाजत दी गई तो द्वितीय श्रेणी की नागरिकता और कई अन्य विवाद शुरू हो सकते हैं। 

एनआरसी पर एक अहम सवाल, उसको लागू करने पर होने वाले खर्च पर भी उठ रहा है। आधार प्रोजेक्ट में हजारों करोड़ खर्च होने के बाद अब एनपीआर के लिए गृह मंत्रालय ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से 3,941 करोड़ रुपये की मांग की है। यह जनगणना के लिए हो रहे 8,754 करोड़ रुपये के खर्च से अलग होगा। असम में 3.2 करोड़ आबादी में एनआरसी लागू करने के लिए 2,500 से ज्यादा डिजिटल केंद्र बनाने के साथ प्रशासनिक व्यवस्था में लगभग 1,600 करोड़ रुपये खर्च हुए। इस हिसाब से भारत की 130 करोड़ आबादी में एनआरसी करने पर एक लाख डिजिटल केंद्र, 20 लाख कर्मचारी, हजारों डिटेंशन सेंटर और फॉरेन ट्रिब्यूनल पर कई लाख करोड़ रुपये का खर्च आ सकता है। आर्थिक मंदी और जीएसटी की कम वसूली के इस दौर में एनआरसी के लिए इतनी बड़ी रकम की जिम्मेदारी आखिरकार किसके सिर होगी? 

झारखंड के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा है कि नोटबंदी के बाद एनआरसी लोगों को लाइन में लगाने का नया जरिया है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने तो यह तक कह दिया कि देश में यदि एनआरसी लागू हुआ तो छत्तीसगढ़ की आधी से ज्यादा जनता अपनी नागरिकता प्रमाणित ही नहीं कर पाएगी। असम की एनआरसी में नागरिकता साबित करने के लिए कुल 14 दस्तावेज मान्य थे। देश में अभी तक 124.95 करोड़ लोगों को आधार कार्ड मिल चुका है, लेकिन आधार कानून की धारा-9 के अनुसार इसे नागरिकता का प्रमाण-पत्र नहीं माना जा सकता। अदालत के नवीनतम फैसले में राशन कार्ड को भी नागरिकता का दस्तावेज नहीं माना है। सोशल मीडिया में यह कहा जा रहा है कि आयकर के लिए पैन, बैंक खाता के लिए आधार और गाड़ी चलाने के लिए ड्राइविंग लाइसेंस की मान्यता है, तो एनआरसी के लिए फिर से दस्तावेज क्यों दिए जाएं? एक अनुमान के अनुसार, देश की 130 करोड़ की आबादी में एनआरसी लागू करने के लिए न्यूनतम 250 करोड़ दस्तावेजों की जांच-पड़ताल करनी होगी, जिसे पूरा करने में राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था ही ठप हो सकती है। विदेशों से भारत में आने वाले लोगों को कितने साल बाद नागरिकता मिलेगी, इस पर कट ऑफ तारीख की जटिलता है। सन 1955 के नागरिकता कानून के अनुसार 26 जनवरी 1950 को भारत में रहने वाले सभी लोगों को नागरिक माना गया है। इस कानून में 2004 में किए गए संशोधन के अनुसार, जिनका जन्म भारत में 1 जुलाई 1987 के पहले हुआ हो, वे लोग भी भारतीय नागरिकता के हकदार हैं। अवैध प्रवासियों में से जिनके माता या पिता में से कोई एक भारतीय है तो तीन दिसंबर 2004 के पहले पैदा हुए उनके बच्चों को नागरिकता देने का प्रावधान है। लेकिन असम में अभी भी नागरिकता के लिए मार्च 1971 की कट ऑफ तारीख है। एक देश एक कानून के दौर में ऐसी जटिलताएं और विसंगतियों से मुकदमेबाजी बढ़ने की संभावना है।

पूर्व मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि नए संशोधन कानून के बाद नागरिकता हासिल करने के लिए शरणार्थी अब झूठी घोषणाएं करने के लिए बाध्य होकर खुद को अब बांग्लादेश, पाकिस्तान या अफगानिस्तान से निर्वासित बताएंगे।

दक्षिण भारत में रहने वाले अवैध प्रवासी खुद को इन तीन देशों से निर्वासित कैसे बताएंगे? इस पर भी अब सवाल खड़े हो रहे हैं। विस्थापितों के पूर्ववर्ती संबंधित देश में पुराने मुकदमों या अपराधों की जांच-पड़ताल जरूरी है, पर इसके अनुपालन की व्यवस्था बनना मुश्किल है। फिल्म इंडस्ट्री और कई अन्य मामलों में शादी के लिए लोगों ने इस्लाम धर्म कबूल किया था। अवैध शरणार्थियों द्वारा हिंदू या ईसाई धर्म ग्रहण करके नागरिकता हासिल करके वापस अपने धर्म में परिवर्तन किया जाय तो कानून के तहत उनकी नागरिकता कैसे रद्द होगी? जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को निरस्त करने के बाद उत्तर-पूर्वी राज्यों में इनर लाइन परमिट की विशेष व्यवस्था से “एक देश एक कानून” पर सवाल खड़े हो रहे हैं।

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(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं) 

 

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 आर्थिक मंदी के दौर में एनआरसी पर खर्च होने वाले लाखों करोड़ रुपये की जिम्मेदारी किस पर होगी?

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