Advertisement

युवाओं की आवाज सुनिए

व्यक्तिगत आजादी और असंतोष के अधिकार खत्म करने वाले कानूनों को तत्काल बदलने की जरूरत
मुद्दा 2019 नागरिक प्रश्न, एकजुटता के स्वर ‌: दिल्ली के जंतर-मंतर में नागरिकता कानून का विरोध करती छात्राएं

हाल के दिनों में मुसलमानों से जुड़ी कुछ खास तरह की घटनाएं देखने को मिली हैं। जैसे लिंचिंग, तथाकथित लव जेहादियों पर हमले, बदनाम करने और बांटने का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अभियान, इतिहास की किताबों का पुनर्लेखन, मुस्लिम पहचान वाली जगहों के नाम बदलना, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करना, अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाना। फिर, बाबरी मस्जिद पर फैसले को भी मुसलमानों ने स्वीकार कर लिया। इससे सरकार को भरोसा हो गया कि उसका अगला कदम भी देश को स्वीकार होगा। इसलिए वह नागरिकता संशोधन कानून लेकर आ गई और पूरे देश में एनआरसी लागू करने के अपने आशय का ऐलान कर दिया। नागरिकता संशोधन कानून के बाद 31 दिसंबर 2014 तक भारत आने वाले छह धर्मों के लोगों के नागरिकता आवेदन जल्दी निपटाए जाएंगे, लेकिन मुसलमानों को यह सहूलियत नहीं मिलेगी। यह भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान के तानेबाने को खत्म करने की कोशिश है।

रचनात्मक आलोचना करने वाले को गद्दार घोषित कर पाकिस्तान जाने के लिए कह दिया जाता है। बड़ी संख्या में भारतीयों को इस प्रोपेगैंडा पर यकीन दिला दिया गया है कि भारत के मुसलमान पाकिस्तान प्रेमी हैं। इससे बड़ा झूठ नहीं हो सकता। सौभाग्यवश, हाल के कदमों को वाजिब ठहराने के प्रोपेगैंडा का उल्टा असर हुआ, खास कर युवाओं पर।

अंतरराष्ट्रीय प्रेस और संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाओं ने हमेशा भारत की सहिष्णुता की तारीफ की है, लेकिन अब वे भारत को संदिग्ध नजरों से देखती हैं। विदेशों में भारत की छवि धूमिल हुई है। पश्चिम की सरकारें भी दक्षिणपंथी एजेंडे पर चल रही हैं और उन्होंने भारत के प्रति सुरक्षित लेकिन अस्पष्ट रुख अपनाया है। वे चीन के कम्युनिस्ट और उसके आर्थिक दबदबे के लोकतांत्रिक जवाब के रूप में भारत को देखती हैं। इन पश्चिमी देशों के साथ पश्चिम एशिया के मुस्लिम देश 130 करोड़ उपभोक्ताओं वाले बाजार को खोने का जोखिम नहीं उठा सकते। हालांकि इस सहिष्णुता की भी एक सीमा है। भारत को ऐसे देश के रूप में नहीं देखा जा सकता जहां जब-तब अव्यवस्था फैलती हो। इससे विदेशी निवेश रुकेगा, जो विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

भारत में हमेशा से व्यापक सांस्कृतिक विविधता रही है। मुसलमानों की आबादी के लिहाज से यह देश दुनिया में दूसरे नंबर पर है। समावेशी लोकतंत्र ने यहां रहने वाले 18 करोड़ मुसलमानों को बराबर का मौका दिया। यहां के मुसलमानों को अपने पूर्वजों के उस फैसले पर कभी पछतावा नहीं हुआ, जिसके तहत उन्होंने धर्म के आधार पर बनने वाले पाकिस्तान के बजाय लोकतांत्रिक भारत को चुना। लेकिन हाल के कदमों से उनका यह अंदेशा सही लगने लगा है कि इसका गैर-मुस्लिमों को नागरिकता देने से कोई लेना-देना नहीं, बल्कि इसका मकसद भारतीय मुसलमानों को दरकिनार करना है। धर्म को नागरिकता से जोड़ने के कदम ने भारत को पाकिस्तान के करीब ला दिया और देश की धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और समावेशी छवि को धूमिल किया है। कटे पर नमक छिड़कने के लिए पूरे देश में डिटेंशन सेंटर बनाए जा रहे हैं जहां उन असंख्य ‘घुसपैठियों’ को रखे जाने की योजना है जो अपनी वंशावली साबित नहीं कर पाएंगे, भले ही वे सदियों से यहां रह रहे हों। इन राज्यविहीन लोगों को निकालकर कहां भेजा जाएगा? या फिर उन्हें मताधिकार और दूसरे नागरिक अधिकारों के साथ-साथ सरकारी नौकरियों से वंचित कर दिया जाएगा? मताधिकार से वंचित लोगों की देश में कोई हिस्सेदारी नहीं रह जाएगी। इस तरह दरकिनार किए जाने के बाद वे देश-विरोधी संगठनों से जुड़ सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि वे अपनी मातृभूमि के विकास और उसकी सुरक्षा में भागीदार बने रहें।

सरकारी नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे एएमयू और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों के साथ पुलिस का सुलूक देख कर लगता है कि उन्हें आंदोलन को कुचलने के लिए सख्ती बरतने के निर्देश दिए गए थे। पुलिस इन संस्थानों को पक्षपातपूर्ण नजरों से देखती रही है। बंद इमारतों और छात्रावासों में बिना सोचे-समझे आंसू गैस के गोले दागे गए, गोलियां चलाई गईं। इस हिंसा में कई छात्र गंभीर रूप से घायल हुए। हिरासत में लिए गए छात्रों को हाथ ऊपर उठा कर बाहर आने के लिए कहा गया, जैसे वे युद्धबंदी हों। संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया और गाड़ियों में आग लगा दी गई। हालांकि कहा जा रहा है कि ऐसा करने वाले उन्हीं के लोग थे, जिन्होंने हिंसा भड़काई। इसके सुबूत में कई वीडियो जारी हुए हैं और प्रशासन को इनकी जांच करानी चाहिए। पुलिस कार्रवाई के खिलाफ प्रदर्शन में कई केंद्रीय विश्वविद्यालय, आइआइएम, आइआइटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान भी शामिल हो गए। लेकिन असंतोष का मतलब द्रोह नहीं है। भारत में प्रतिगामी कदम कभी सफल नहीं हो सकते हैं। हमें उन कानूनों को तत्काल बदलने की जरूरत है, जो व्यक्तिगत आजादी और असंतोष के अधिकार को रौंदते हैं।

अच्छी बात है कि समाज का ध्रुवीकरण करने और सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की कोशिशें नाकाम रही हैं। हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों ने स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता का समर्थन किया है। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इन्हें विभाजन की गलतियों को सुधारने के तौर पर पेश किया जा रहा है, जो गलत है। छात्रों के साथ-साथ आबादी के एक बड़े वर्ग ने धर्म के आधार पर अलगाव पर सवाल उठाए हैं। मतदाता बहुत जागरूक है, वह पहले भी ऐसी अधिकारवादी व्यवस्था को सबक सिखा चुका है। ध्रुवीकरण का ज्वार अब थम गया है। भारत अपनी अविभाजित आत्मा को फिर से खोज रहा है, और युवा इसकी अगुआई कर रहे हैं।

--------------------------

 (लेखक एएमयू के कुलपति रह चुके हैं)

-------------------------------------

धर्म को नागरिकता के साथ जोड़ने से भारत की धर्मनिरपेक्ष, समावेशी और लोकतांत्रिक छवि धूमिल हुई है

Advertisement
Advertisement
Advertisement