Advertisement

राजनेता बनने का मौका

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने नेता से राजनेता बनने और बड़े वैश्विक नेताओं की तरह इतिहास में दर्ज होने का मौका है। यह अब उन पर है कि वे क्या करते हैं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने 17वीं लोकसभा के लिए जो जनादेश हासिल किया, वह इससे पहले 1971 में इंदिरा गांधी को ही नसीब हुआ था। 2019 में लगातार दूसरी बार देश की जनता ने नरेंद्र मोदी में भरोसा जताया और उन्हें 2014 से भी ज्यादा बहुमत थमा दिया। पूरे चुनाव अभियान के दौरान आत्मविश्वास से भरे नरेंद्र मोदी यह यकीन भी जता रहे थे कि उनके नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 300 से अधिक सांसदों के साथ वापसी करेगी। उन्होंने इसे प्रो-इन्कंबेंसी का नाम दिया। हुआ भी वही। भाजपा को अकेले 303 और सहयोगियों के साथ एनडीए को 353 सीटें मिलीं। देश की जनता ने स्पष्ट जनादेश दिया, जो एक स्थायित्व वाली सरकार और मजबूत नेतृत्व के लिए है। इस चुनाव के नतीजों ने तमाम धारणाओं को ध्वस्त करके जाति आधारित गठबंधनों के लिए खतरे की घंटी बजा दी है और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के नेतृत्व में यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (यूपीए) को भी लंबे राजनैतिक बियाबान की ओर धकेल दिया है। लेकिन यह मजबूत जनादेश बड़ी जिम्मेदारी और जवाबदेही भी लेकर आया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इसका बखूबी एहसास है। इसका अंदाजा चुनाव नतीजों के बाद उनके अलग-अलग संबोधनों में भी मिलता है। एक में उन्होंने कहा कि अब देश में दो ही जातियां रह जाएंगी, एक गरीब और दूसरी गरीबी को हटाने का प्रयास करने वाली। दूसरे, वे सबका साथ, सबका विकास के साथ सबका विश्वास हासिल करने की बात कहकर समावेशी नीतियों का संकेत देते हैं। तीसरे, वे यह भी कहते हैं कि जो हमारे साथ नहीं हैं हम उनको भी साथ लाने पर काम करेंगे और पार्टी के नए सांसदों को भी नसीहत दी कि भारी-भरकम जीत से दंभ न पालें।

जाहिर है, इस जनादेश ने नरेंद्र मोदी पर देशव्यापी स्तर पर लोगों की आकांक्षाओं का भारी बोझ भी लाद दिया है। अब उनके सामने किसी तरह की अड़चन भी नहीं है जो उन्हें कड़े और सुधारवादी तथा लीक से हटकर फैसले लेने से रोके। उन्हें पहला कार्यकाल अच्छे दिनों, सबका साथ सबका विकास और भ्रष्टाचार मुक्त राजकाज के वादे के लिए मिला था। हालांकि उनकी सरकार उन आकांक्षाओं पर पूरी तरह खरी नहीं उतर पाई। अर्थव्यवस्था इस समय तेज वृद्धि के बजाय कमजोर विकास दर के कुचक्र में फंस गई है और पिछले वित्त वर्ष (2018-19) के ताजा आंकड़े संकेत दे रहे हैं कि कई साल के बाद जीडीपी की विकास दर सात फीसदी से नीचे रहने वाली है। सरकार रोजगार देने का बड़ा वादा भी पूरा नहीं कर पाई। यह मोर्चा तो इतना कठिन रहा कि सरकार ने रोजगार के आंकड़े जारी ही नहीं किए। लेकिन जो आंकड़े सामने आ रहे हैं, उनके मुताबिक बेरोजगारी की दर 45 साल के उच्चतम स्तर पर है। निर्यात के मोर्चे पर हालात चिंताजनक हैं और किसानों तथा कृषि क्षेत्र की हालत अच्छी नहीं है। औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) भी पहली बार बढ़ने के बजाय गिर गया है।

पहले कार्यकाल में नरेंद्र मोदी के पास केंद्र सरकार चलाने का अनुभव नहीं था, साथ ही उनके सामने बेहतर टीम जुटाने की चुनौती भी थी। दूसरे कार्यकाल  में उनके पास सरकार चलाने का पांच साल का अनुभव है। लेकिन मंत्रिमंडल और नौकरशाही के मोर्चे पर बेहतर टीम जुटाने की चुनौती अभी भी उनके सामने है।

 इन हालात के बावजूद देश के लोगों ने नरेंद्र मोदी को दूसरे कार्यकाल के लिए चुना है, जो यह जताता है कि उनके लिए अभी भी वे ही सबसे अहम विकल्प हैं। विपक्षी पार्टियां इस चुनाव में लोगों का भरोसा नहीं जीत सकीं। ये पार्टियां नीतियों और राजनैतिक गठबंधन के मामले में भी कोई मजबूत विकल्प पेश नहीं कर सकीं। तमिलनाडु, केरल, पंजाब और आंध्र प्रदेश को छोड़ दें तो समूचे देश में एनडीए और भाजपा ने भारी जनादेश हासिल किया है।

बात केवल इन मसलों की नहीं है। देश की बड़ी अल्पसंख्यक आबादी का भरोसा भी सरकार में बढ़ना चाहिए। हिंदुत्व का एजेंडा चलाने वाली ताकतें बार-बार ऐसा माहौल पैदा करने की कोशिश करती हैं, जो लोगों में भय पैदा करता है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश है। यहां हर नागरिक और समुदाय को जाति, धर्म और लिंग के भेदभाव के बिना समान अवसर की गारंटी हमारा संविधान देता है। पहले कार्यकाल में खुद प्रधानमंत्री को ऐसी ताकतों पर टिप्पणी करनी पड़ी, जो लोगों के संवैधानिक अधिकारों पर चोट करती रही हैं। हम दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने की बात करते हैं, लेकिन यह तभी तक सही है जब इसे चोट पहुंचाने वाली घटनाएं न घटें।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने नेता से राजनेता बनने का मौका है। यह मौका उनको जहां सशक्त, समावेशी, संपन्न और उदार लोकतांत्रिक देश बनाने के लिए फैसले लेने की आजादी देता है, वहीं वैश्विक मंच पर उन्हें उसी तरह स्थापित होने और इतिहास में दर्ज होने का मौका देता है जैसा मौका इंदिरा गांधी को मिला था। अब यह उनके ऊपर है कि वे इस ऐतिहासिक मौके का किस तरह से उपयोग करते हैं।

Advertisement
Advertisement
Advertisement