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काली कमाई की राजनीति

काली अर्थव्यवस्‍था देश में जीवन का अनिवार्य अंग बन गई है
द ब्लैक इकोनॉमीः ट्रांजिशन टु पॉलिटिकल इकोनॉमी

इस चुनावी बेला से बेहतर भला देश में काली अर्थव्यवस्था की चर्चा का वक्त और क्या हो सकता है! पांच साल पहले इन्हीं महीनों में विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने और 15-15 लाख रुपये मुहैया कराने के वादे ने ऐसा करिश्मा किया कि भाजपा के पक्ष में ऐतिहासिक जनादेश आ गया था और नरेंद्र मोदी बड़े नेता बन गए। फिर, करीब साढ़े तीन साल बाद काले धन पर अंकुश की दुहाई देकर नोटबंदी की गई तो फौरन बाद हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी भाजपा को ऐतिहासिक बहुमत मिल गया। ये उदाहरण ही काफी हैं कि देश के लोग काली अर्थव्यवस्था से निजात पाने को किस कदर तवज्जो देते हैं। यह अलग बात है कि पहले का वादा ही न सिर्फ जुमला साबित हुआ, बल्कि नोटबंदी भी काली कमाई के बदले निहायत मेहनत की सफेद कमाई से गुजर-बसर करने वालों की ही कमर तोड़ गई। इसी विडंबना और काली अर्थव्यवस्‍था के हर पहलू को जाने-माने अर्थशास्‍त्री कमल नयन काबरा ने अपनी नई किताब द ब्लैक मनी इन इंडियाः ट्रांजिशन टु ग्रे पॉलिटिकल इकोनॉमी में परिभाषित किया है।

देश की अर्थव्यवस्‍था और नीतियों में देश की विशाल जनता के प्रति अन्याय को उद्‍घाटित करने में शिद्दत से जुड़े काबरा साहब ने काली अर्थव्यवस्‍था पर गंभीर अध्ययन तब प्रकाशित किया था, जब इसकी चर्चाएं खास नहीं थीं। 1982 में आई उनकी किताब द ब्लैक इकोनॉमी इन इंडियाः प्राब्लम्स ऐंड पॉलिसिज ने उन नीतियों और कार्यक्रमों की पड़ताल की थी जिसके जरिए विकास, मानवाधिकारों से विशाल जनता को वंचित करके मुट्ठी भर उद्योगपतियों और अमीरों के हाथ में देश के संसाधनों को डाल दिया जाता रहा है। लेकिन उसके बाद के दशकों, खासकर नब्बे के दशक में उदारीकरण में इस अर्थव्यवस्‍था का विकराल रूप सामने आया और इसमें तरह-तरह के तरीके जुड़ते गए। अब काली अर्थव्यवस्‍था पॉलिटिकल इकोनॉमी का अनिवार्य हिस्सा बन गई। इस तरह इसका रंग भी धूसर हो गया जिससे उसे साफ-साफ दो हिस्सों में बांटना मुश्किल हो गया। इसका दायरा इतना व्यापक हो गया कि “काली अर्थव्यवस्‍था देश में जीवन का अनिवार्य अंग बन गई है।”

इसके कुछ पहलुओं पर ही गौर करें। “कदाचार, उगाही, भ्रष्टाचार, ब्लैक मॉर्केटिंग, तस्करी, काली कमाई की जमाखोरी, सरकारी नीतियों में फेरबदल के जरिए तरह-तरह की छूट देकर गुप्त चंदे उगाहने का चुनावी कदाचार” वगैरह तो इसके एक हिस्से हैं। इसके और भी व्यापक रूप हैं जो “वित्तीय फायदों को ध्यान में रखकर तबादले-नियुक्तियां, न्यायपालिका में अवैधानिक दखलंदाजी, अपराधियों को शह देने के लिए पुलिस व्यवस्‍था में हस्तक्षेप और गलत तरीकों से जुटाई धन-संपत्ति” वगैरह की शक्ल में दिखते हैं।

लेकिन 21वीं सदी के पूंजीवादी भारत में इसके और भी विकराल रूप उभरे हैं। इसके दो पहलू साफ-साफ हैं, “एक, काॅरपोरेट इकाइयां और दूसरे, क्रोनी कैपिटलिज्म।” इन दोनों से भारत की पूंजीवादी अर्थव्यवस्‍था का स्वरूप बदल गया है। इसी से पॉलिटिकल इकोनॉमी भी शक्ल ले रही है। लिहाजा, भ्रष्टाचार और ब्लैक मनी का प्रसार भी बेपनाह हो गया है। इसी संदर्भ में काबरा नोटबंदी की भी तहकीकात करते हैं और पाते हैं कि वह ब्लैक इकोनॉमी पर अंकुश लगाने के बदले छोटे उद्योग-धंधों को तबाह करने का कारण बनी। काबरा साहब ने किताब में यह भी खुलासा किया है कि अमीरों पर अधिक टैक्स न लगाने की दलीलें भी थोथीं हैं और इस अर्थव्यवस्‍था को कायम रखने के लिए ही दी जाती हैं।

काबरा साहब इसका समाधान विकेंद्रीकरण और बड़े कॉरपोरेट के बदले छोटे तथा क्षेत्रीय उपक्रमों को बढ़ाने में ही देखते हैं। इन नीतियों का स्वरूप क्या हो, इस मामले में भी अरसे से पहल करते रहे हैं और दशकों से वैकल्पिक आर्थिक सर्वे निकालते रहे हैं। अब यह किताब उस रोग पर समग्र दृष्टि डालती है जिससे देश लगातार जर्जर होता जा रहा है। देश के हर आदमी को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए। हर आर्थिक अध्येता के लिए तो यह गीता के समान है। एक बात जरूर कही जा सकती है कि कुछ आसान भाषा में इस अध्ययन को लोगों तक पहुंचाने की दरकार है, ताकि लोग सही-सही समझ सकें।

द ब्लैक इकोनॉमीः ट्रांजिशन टु पॉलिटिकल इकोनॉमी

कमल नयन काबरा

प्रकाशक | आकार बुक्स, दिल्ली

पृष्‍ठः 286 | मूल्यः 895 रुपये

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