मेरा हमेशा से मानना रहा है कि मनुष्यता और उसमें समाहित तमाम सकारात्मकताएं पाठक के लिए किसी भी अनुभूत या ओढ़ी हुई पीड़ा, घुटन और संत्रास से अधिक नहीं, तो वैसी ही हृदयस्पर्शी हो सकती हैं। आत्मीयता, करुणा, प्रेम, उपकार, आभार, उत्तरदायित्व और अपराध बोध, मानवीय अनुभव संसार के ऐसे क्षेत्र हैं, जो हमारी आस्था को दृढ़ करते हैं। ‘सुनो नीलगिरी’ शैली बक्षी खड़कोतकर का ऐसा ही कहानी संग्रह है, जो आसपास बिखरे इन अनुभव क्षणों को बहुत सहजता और रोचकता से दर्ज करता है। ‘सुनो’ वाले शीर्षक बहुत घिस गए हैं और ताजगी के प्रति संदिग्ध बना देते हैं। लेकिन आशंकाओं के विपरीत इस कथा संग्रह को पढ़ना सुखद विस्मय में जाना है। शैली में कल्पनाशीलता के साथ आसपास बिखरी हुई कहानियों को दिलचस्प ढंग से कहने का सलीका है। वे इन दिनों की ‘चर्चित’ विषय और विमर्श सूची से अलग, अतिपरिचित के अलक्षित को देखती-दिखाती हैं। उन्हें पढ़कर कहा जा सकता है कि वे हिंदी कहानी में मालती जोशी की परंपरा को आगे ले जाने वाली अगली पीढ़ी की कथाकार हैं। बदलते सामाजिक, पारिवारिक संदर्भ भी उनके यहां हैं, वंचित वर्ग पर कोरोना की मार के साथ जो आर्थिक महामार पड़ी, उसे भी उन्होंने दर्ज किया है, बच्चे की नजर से स्कूल को भी देखा है, बचपन की वे कस्बाई दोस्तियां, जो ट्रांसफर के साथ ही आकस्मिक अंत की ओर चली जाती हैं, वह बेटा जो मां से बहुत प्यार करने के बावजूद महानगरीय नौकरी की आपाधापी में उसे समय नहीं दे सकता, घर में अकेले बुजुर्ग से घड़ी की अदावत- ऐसे कई क्षण शैली ने अपनी बहुत रोचक शैली में कहानियों में गूंथे हैं। उनका नैरेशन शोखी, शरारत, संघर्ष, अकेलेपन, कृतज्ञता, सब कुछ को सहज और प्रभावी रोचकता से व्यक्त करता है। एक मज़ेदार कहानी में तो स्कूटी ही नैरेटर है, जो अपनी अनाड़ी मालकिन की ड्राइविंग की कॉमिकल, रोमांचक कहानी कहती है। लेकिन इस एडवेंचर में एक गृहिणी की ‘मुक्ति’ और ‘उपलब्धि’ का बोध वह तत्व है, जो इस कहानी को अर्थ के अलग ही स्तर पर ले जाता है। शैली स्वभावतः कटुता की ओर नहीं जातीं। दुख से परहेज नहीं करतीं, उसे समझने की कोशिश करती हैं, लेकिन उनकी कहानियों में प्रायः जीवन के शुभ की, उसकी सकारात्मकता की प्रतिष्ठा है। उनके पास कथा को सरस ढंग से कहने का कौशल भी है।
सुनो नीलगिरी
शैली बक्षी खड़कोतकर
प्रकाशक | शिवना
कीमतः 124 रु.
पृष्ठः 200