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समय से मुठभेड़

प्रेम पर कुछ बहुत मर्मस्पर्शी कविताएं इस संग्रह में हैं
पनसोखा है इंद्रधनुष

कवि मदन कश्यप के छठे कविता संग्रह पनसोखा है इंद्रधनुष की कविताओं में आस्वाद के कई स्तर हैं- प्रेम की बहुत गहरी आदिम अनुगूंजें, वर्तमान की धूल-मिट्टी का धूसर रंग, देशकाल के विकट यथार्थ से मुठभेड़ करने की तत्परता और वह सजग परंपरा-बोध भी जिसने हिंदी कविता को अपनी तरह के संस्कार दिए हैं।

संग्रह की पहली कविता ही बता देती है कि मदन कश्यप सुघड़, सतर्क और संवेदनशील कवि हैं। भाषा और जीवन दोनों की तहें वे पहचानते हैं। ‘जब यह एहसास हुआ कि सब कुछ पा लिया है / तभी सब कुछ खोता हुआ लगा / तुम दुनिया की सबसे सुंदर स्‍त्री / थी जब बांहों में और कर रही थी प्यार / तभी तुमने कहा: स्‍त्री जैसा कुछ भी / नहीं बचा है मेरे भीतर / तुममें भी जो मर्द जैसा कुछ बचा हो / तो उसे छोड़ दो / और करो प्यार।’

यह समझने में समय नहीं लगता कि हम जीवन की सूक्ष्म समझ से भरी कविताएं पढ़ने जा रहे हैं। खोने की नियति को उपलब्धि की तरह पाना की विडंबना के बीच अंगुलियों को झुलसाती प्रेम की सुलगती हुई सिगरेट एक अनूठा बिंब बनाती है। लेकिन कविता का चरम तब आता है जब वह लगभग प्रेम की अमर्त्यता और स्‍त्रीत्व-पुरुषत्व के परे जाकर भी घटित होने की उसकी संभाव्यता का जादुई घोषणा-पत्र बनती नजर आती है, ‘हमने जला दिया था / ईश्वर का करारनामा / स्याह कागज / समय की धरती पर / जो भुरभुरा कर गिरा था / उसमें फिर भी चमक रहे थे कुछ अक्षर।’

प्रेम पर कुछ बहुत मर्मस्पर्शी कविताएं इस संग्रह में हैं। ‘एक अधूरी प्रेम कविता’ तो अपनी उत्कटता और अपने फैलाव में इतनी गहन है कि पूरी एक टिप्पणी उस पर अलग से की जा सकती है। लेकिन मदन कश्यप की कविता में प्रेम जितना गहरा है, सामाजिक यथार्थ की तलस्पर्शी पकड़ भी उतनी ही पुख्ता है। महानगर में फुटपाथ पर सोने वालों के साथ हुए हादसों के बाद न्याय का खिलवाड़ हो या बीमारियों को शहरों और नदियों के नाम देने की संवेदनहीनता, वे लगभग अचूक ढंग से किसी विडंबना के मर्म तक पहुंच जाते हैं। उनकी कुछ छोटी कविताएं तो बिलकुल सूक्तियों की तरह प्रकाशित होती हैं, ‘चालाक लोग इसका पूरा हिसाब रखते हैं / कि क्या-क्या बचाया / लेकिन यह कभी नहीं जान पाते हैं / क्या-क्या गंवाया/वे पांव गंवा कर जूते बचा लेते हैं /और शान से दुनिया को दिखाते हैं।’ परंपरा से बहुत गहरी पहचान कवि को समृद्ध करती है। कविता में कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर कई कवियों के निशान भी मिलते हैं। ‘भूख का कोरस’ में रघुवीर सहाय का रामदास चला आता है। बाकायदा दो कविताएं घोषित रूप से शमशेर की शैली में हैं। लेकिन इसके अलावा भी कुछ कविताओं पर शमशेर की छाया दिखती है। ‘क्योंकि वह जुनैद था’ श्रीकांत वर्मा की कविता ‘जो’ की स्पष्ट याद दिलाती है। बेशक, ‘जो’ का पिटना और जुनैद का मारा जाना एक ही मानसिकता का नतीजा है।

संग्रह पढ़ते हुए यह खयाल भी आता है कि मदन कश्यप इस दौर के उन कवियों में हैं जिन्होंने बिलकुल तात्कालिक और राजनीतिक प्रसंगों पर कविताएं लिखते हुए इस सांप्रदायिक समय से जम कर मुठभेड़ की है। बेशक, कविता के इस प्रयोजनमूलक और तात्कालिक इस्तेमाल पर उनकी कुछ आलोचना भी हुई और कहीं-कहीं उनका कवित्व क्षतिग्रस्त भी हुआ है, लेकिन इसके बावजूद इन कविताओं का अपना एक मोल है। बहुत सारी कविताओं से भरे हमारे समकालीन हिंदी परिदृश्य में यह संग्रह अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए, बशर्ते हमारे समय के पास इसे पढ़ने की फुरसत हो।

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