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सूचनाएं कितनी भरोसेमंद!

अवलोकन और प्रयोग के वैज्ञानिक तरीके की इतनी खूबसूरत पैरवी कम ही पढ़ने को मिलती है
जिन ढूढ़ा तिन पाइया

जानकारी पहले सलीके से पीढ़ी का फासला तय करती थी। गुरु अपने आश्रम में शिष्यों और शिक्षक स्कूल में अपने विद्यार्थियों को अक्षर और संख्या का बोध कराते थे। गिनती की किताबें होती थीं। रट-रटा कर परीक्षा पास करने पर जोर होता था। आम पाठक भी मुट्ठी भर समाचार पत्र और पत्रिका के माध्यम से अपनी जिज्ञासा शांत करते थे। सब-कुछ ठीक चल रहा था। पढ़े-लिखे पहली पंक्ति की शोभा बढ़ा रहे थे। बाकी पिछली कतारों की सीट भर रहे थे। किसी ने कल्पना नहीं की थी एक दिन इंटरनेट सूचना-सुनामी लेकर आएगा। जानकारी जो कभी किताबों की साफ पोखर-नदी में हुआ करती थी, असत्यापित सूचनाओं के विशाल समुद्र में डूब ही जाएगी। कोरे गप और सच में भेद करना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में दिमाग के ऑपरेटिंग सिस्टम के नियमित अपग्रेड की बात करती, समकालीन विषयों पर ‘फैक्ट-चेक’ कराती ओम प्रकाश सिंह की पुस्तक जिन ढूंढा तिन पाइयां दिशा दिखाते कंपास के मानिंद है।

इंटरनेट पर रोज करोड़ों पन्ने अपलोड हो रहे हैं। कोई देखने वाला नहीं कि इसमें लिखा तथ्यपरक है या मनगढ़ंत बकवास। छपे के प्रति विश्वास भाव के कारण लोग इसे प्रामाणिक मान लेते हैं। पृथ्वी की यात्रा ऐसे जीपीएस के सहारे चलने लगी है, जिसमें फीड डाटा की विश्वसनीयता ही संदेह के घेरे में है। ऐसे में फैक्ट-चेक के स्रोत और संस्कृति, दोनों को बढ़ावा देने की जरूरत है। लेखक का कहना है कि गूगल करती आबादी को ये पता नहीं है कि जो लिंक पहले आ रहे हैं उसकी वजह उनकी प्रामाणिकता नहीं है। ये तो सर्च इंजन ऑप्टिमाइजेशन और आर्टिफिशल इंटेलीजेंस का कमाल है। ‘पैसा फेंको, पहले दिखो’ का खेल है। इस कारण शुरू के दो-चार लिंक की सर्फिंग को शोध मान किसी निष्कर्ष पर पहुंचना खतरनाक है। इंटरनेट के ‘फिल्टर बबल’ से बाहर निकलने के लिए जरूरी है कि विश्वसनीय सूत्रों से फैक्ट-चेक किया जाए, तब निष्कर्ष पर पहुंचा जाए। विविधता इस पुस्तक को विशिष्ट बनाती है। रोजमर्रा के जीवन में जिन विषयों की बारिश में हम भीगते रहते हैं, चाहे वो भाग्य हो या खुशी, पुलिस हो या आतंकवाद, खेल हो या रोजगार, उत्सव हो या त्योहार, अपराध हो या सहयोग, सबके ऊपर तफसील से लिखा गया है। यही वे विषय हैं जो दुनिया के प्रति हमारे दृष्टिकोण का निर्माण करते हैं। लेखक का कहना है कि पहले नशे की झोंक या सनक में अंट-शंट बोलने वालों को गंभीरता से नहीं लिया जाता था। कोई न कोई उनको जल्दी ही चुप भी करा देता था। लेकिन आज के दिन इंटरनेट की सवारी कर ये काबू से बाहर हो गए हैं। एक तरीके से देखें तो यह मूर्खों का महाआक्रमण है।

अवलोकन और प्रयोग के वैज्ञानिक तरीके की इतनी खूबसूरत पैरवी कम ही पढ़ने को मिलती है। भ्रम और पूर्वाग्रह को नकारती ये किताब शोध और आंकड़े की रेल पर छुक-छुक दौड़ती जाती है। यह संदेश भी देती है कि अपने सोच का फिल्टर लगातार साफ करते रहें। इससे “दिमाग कचरे से बचा रहेगा और आप लफड़े से।” कश्मीर के शूटिंग लोकेशन से आतंकी गढ़ बनने की त्रासदी को लेखक ने बड़े मार्मिक शब्द दिए हैं, “इसे यश चोपड़ा की सनक कहें या फिजूलखर्ची का शौक, नब्बे के दशक से स्विट्जरलैंड रुपहले परदे पर छाने लगा। कश्मीर किसी और कारण खबरों में रहने लगा।” एक और अध्याय ‘भाग्य की खेती’ मन मोह लेती है, भाग्य कोई बिजली नहीं जो कभी-कभी कड़कती है। ये तो हवा के बहते झोंके की तरह है जिसे प्रयास रूपी नौका के पाल को बड़ा कर बढ़ाया जा सकता है। लोगों से सरोकार के महत्व के बारे में लेखक ने लाख टके की बात कही है, “सब कुछ होते हुए भी बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि बंद कमरे में जब आपकी किस्मत का फैसला हो रहा हो तो कौन आपका पक्ष ले रहा है।” चमचों के वर्चस्व की ये सबसे सटीक व्याख्या जान पड़ती है।

आइपीएस अधिकारी और हरियाणा के एडिशनल डीजीपी, लेखक की हिंदी में यह दूसरी कृति है। गंभीर विषयों पर सहज विनोद से लिखने की क्षमता का परिचय उन्होंने अपनी पहली पुस्तक हौसलानामा में ही दे दिया था। इस पुस्तक में भी वे शुरू से अंत तक सहज रहे हैं। हिंदी साहित्य के लिए बेशक यह एक बड़ी खबर है।

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