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पुस्तक समीक्षा: हाशिये की आवाज

इस संग्रह में वेरायटी है और यही उसकी अच्छी बात है
नए घर में अम्मा

योगिता यादव के कहानी संग्रह नये घर में अम्मा की कहानी ‘तस्कीन’ पढ़ते हुए मुझे अपने भी बहुत से अनुभवों की याद आती रही। उनकी कहानी में एक संवाद ही आज के समाज में पल-बढ़ रहीं स्थितियों को दिखाने के लिए काफी है, “जाली टोपी वाले, लंबी दाढ़ी वालों से सामान लेना तो उन्होंने पहले ही छोड़ दिया था। अब डिजिटल पेमेंट ने बिना दाढ़ी, बिना टोपी के भी उन्हें पहचानना आसान कर दिया।” फिल्म केरला स्टोरी का नाम लिए बगैर उसके लिए बनाई गई हाइप की चर्चा में यह डायलॉग उस वक्त, बल्कि अब भी होने वाली बातचीत को बिल्कुल सामने ला देता है, “हम मगन हैं अपनी दाल-रोटी में, ये हर मुहल्ले को सीरिया बना देंगे। अब जाकर तो लोगों में बोलने की हिम्मत आई है। फिल्में भी बनने लगी हैं। वरना आज से दस साल पहले कहां संभव था ऐसी फिल्में बनाना और उसे पर्दे पर दिखाना! हर बहन-बेटी वाले को देखनी चाहिए यह फिल्म।”

इस संग्रह में वेरायटी है और यही उसकी अच्छी बात है। योगिता ने किसी कहानी में खुद को रिपीट नहीं किया है। दूसरी अच्छी बात यह है कि क्राफ्ट आसान रखा है- क्राफ्ट और भाषा के जरिये ‘बौद्धिक आतंक’ पैदा करने की कोशिश नहीं की है। जैसे भाप कहानी। हिंदी पट्टी जाति के भेदभाव के लिए खासी बदनाम है लेकिन उसे मुद्दा बनाकर खारिज कर देने की प्रवृत्ति पूरे भारत में है। लेकिन भाप में ऐसा का कोई आवरण नहीं है। समाज को जाति से परहेज नहीं है, अगर आपके परिवार का रसूख हो। “गली और मोहल्ले में अब सब उन्हें धाणियां मैडम कहकर पुकारने लगे थे। दूर-दूर तक यह बात मशहूर हो गई थी कि धाणियां मैडम ने तीनों बेटों को खुद पढ़ाया और आज वे आइएएस हैं। कितने ही लोग चाहते हैं कि वे उनके बच्चों को ट्यूशन पढ़ा दें।” कहानी का अंतिम वाक्य मारक है, “पर अब भी कभी-कभी कोई पीठ पीछे पूछ ही लेता था, ‘धाणियां कौन होते हैं? धीवर? नहीं चूड़े, अरे नहीं शायद चमार।”

नये घर में अम्मा भी ऐसी ही कहानी है, जो बिल्कुल दमित, शोषित, हाशिये के वर्ग के किसी व्यक्ति में किंचित भी आर्थिक, सामाजिक प्रतिष्ठा मिल जाने पर पैदा होने वाले आत्मविश्वास को सामने लाती है। ऐसे व्यक्ति को ऐसी स्थिति तब ही प्राप्त होती है, जब लगभग संयोगवश सरकारी पहुंच वाला कोई सहृदय व्यक्ति मिल जाता है। वरना, सरकारी योजनाएं भी कहां बिल्कुल निचले स्तर के जरूरतमंद तक पहुंच पाती हैं।

हर लड़की, हर महिला जानती है कि शोषण की शुरुआत परिवार से ही होती है। ताऊ जी कितने अच्छे हैं पढ़ते हुए यह समझा जा सकता है कि छोटी बच्ची भी कैसे मानसिक संताप से गुजरती है। शहद का छत्ता और गंध उन स्थितियों को सामने लाती हैं जिससे आज की कामकाजी लड़कियां रू-ब-रू हैं।  आर्थिक-सामाजिक विकास के साथ समाज नए दौर से गुजर रहा है। योगिता ने इस दौर को समझा और पकड़ा है।

नये घर में अम्मा

योगिता यादव

प्रकाशक | सेतु

कीमतः 225 रु.

पृष्ठः 125

 

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