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8 अगस्त 2022 · AUG 08 , 2022

पुस्तक समीक्षा: तब का कहर, अब का जहर

इमरजेंसी पर बहुत सारी किताबें लिखी गई हैं, लेकिन इस किताब का महत्व यह है कि इसमें बहुत सारी सूचनाएं बहुत सरल और बिल्कुल अखबारी भाषा में पूरी प्रामाणिकता के साथ हैं
पुस्तक समीक्षा

भारत में 45 बरस बाद भी इमरजेंसी की स्मृति बनी हुई है। जबकि करीने से देखें तो उस इमरजेंसी के जो भी संभव परिणाम थे, वे सब लगभग विलुप्त हो चुके हैं। यानी ऐसी कोई वजह नहीं बची है, जिसके लिए उस दौर को याद किया जाए, सिवा इसके कि फिर से वे परिस्थितियां बन रही हैं, जो एक और इमरजेंसी का डर पैदा करती हैं। ये हालात तब हैं जब सत्ता में इन दिनों वे शक्तियां हैं जो खुद को इमरजेंसी का विरोधी बताती रही हैं और ईमानदारी से माना जाए तो इनके पुरखों ने वाकई इमरजेंसी के विरोध में हिस्सा लिया था।

हाल के दिनों की बहुत सारी घटनाएं हैं बताती हैं कि इन दिनों सत्ता का विरोध या उससे असहमति, ऐसा अपराध है जिसमें जेल हो सकती है। इसलिए इस दौर को अघोषित इमरजेंसी का नाम दिया जा रहा है।

लेकिन फिलहाल बात उस घोषित इमरजेंसी की जिसका प्रेत बीते 45 बरस से हमारी सार्वजनिक राजनीति में तरह-तरह की शक्लें बना कर घूम रहा है। उस इमरजेंसी को लेकर झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार बलबीर दत्त ने एक किताब लिखी है, इमरजेंसी का कहर और सेंसर का जहर।

वैसे तो इमरजेंसी पर बहुत सारी किताबें लिखी गई हैं, लेकिन इस किताब का महत्व यह है कि इसमें बहुत सारी सूचनाएं बहुत सरल और बिल्कुल अखबारी भाषा में पूरी प्रामाणिकता के साथ हैं। इत्तेफाक से बलबीर दत्त उन संपादकों में रहे, जिन्होंने इमरजेंसी और सेंसर को बिल्कुल करीब से देखा और झेला। उन दिनों रांची एक्सप्रेस झारखंड का इकलौता अखबार था, जिसके वह संपादक थे और यह अखबार उन दिनों अपनी सत्ता विरोधी नीतियों के लिए जाना जाता था। स्वाभाविक तौर पर बलबीर दत्त ने इमरजेंसी के साथ सेंसर को भी मिलाया। इस किताब में उसके कई दिलचस्प ब्योरे हैं।

करीब साढ़े चार सौ पृष्ठों की इस किताब में कई छोटे-छोटे ब्योरे हैं। 1971 के बांग्लादेश युद्ध के बाद बनती आर्थिक परिस्थितियां, 22 दिन की रेलवे की हड़ताल, गुजरात से शुरू हुआ और बिहार तक आ पहुंचा छात्र आंदोलन, जेपी की रहनुमाई और इंदिरा गांधी का बिल्कुल तानाशाह रवैया, जिसमें वे अपनी सरकार को भी कुछ नहीं समझती थीं, यह सब किताब में जगह पाते हैं।

किताब कई खंडों और उपखंडों में बंटी है। इसकी शुरुआत साठ के दशक से ही होती है जब इंदिरा गांधी को नेतृत्व के लिए ‘तैयार’ किया जा रहा है। वे गूंगी गुड़िया कहलाती थीं जो धीरे-धीरे शेरनी होती चली गईं। इन प्रसंगों में कहीं-कहीं बलबीर दत्त के नेहरू विरोध की छाया भी मिलती है जो आगे पूरी किताब में दिखती है। यह स्पष्ट नजर आता है कि तथ्यों की व्याख्याओं के लिए उन्होंने जो नजरिया चुना है, वह मूलतः कांग्रेस विरोधी और जनसंघ पोषित नजरिया है। बेशक, इसके बावजूद वे तथ्यों से छेड़छाड़ करते नजर नहीं आते। वे पूरी सावधानी से पुराने अखबारों, पुरानी कतरनों, पुराने कार्टूनों के हवाले से वह पूरा माहौल बनाते हैं जिनके बीच इमरजेंसी घटित हुई। वे ‘20 भुजाओं वाली दुर्गे तेरी जय हो’ कविता के उल्लेख के साथ यह बताते हैं कि किस तरह इंदिरा की अभ्यर्थना में बहुत सारे साहित्यकार चापलूसी पर उतरे हुए थे, लेकिन यह बताना भूल जाते हैं कि उसी दौर में भवानी प्रसाद मिश्र ने इमरजेंसी और इंदिरा गांधी के ‌खिलाफ सुबह-दोपहर शाम तीन कविताएं रोज लिखने का निश्चय किया था, जिसे उन्होंने बहुत दूर तक निभाया। बाद में यह किताब ‘त्रिकाल संध्या’ नाम से प्रकाशित भी हुई। साथ में  यह भी कि और भी बहुत सारे लेखक थे जिन्होंने इमरजेंसी के दौरान जेल काटी थी।

बहरहाल, किताब का एक हिस्सा उन लेखकों, पत्रकारों और नेताओं की स्मृतियों से बना है जिन्होंने निजी तौर पर इमरजेंसी की मार खाई, सरकार के कृत्यों को बहुत करीब से देखा। किताब पलटते हुए यह खयाल आता है कि वाकई उन दिनों लोकतांत्रिक अधिकार किस तरह स्थगित कर दिए गए थे और भारतीय जनता ने उसके ‌खिलाफ कैसे लड़ाई लड़ी थी। वैसे किताब में इतनी सारी सूचनाएं समेटने का मोह है कि कई बार बिखराव-सा लगता है। बातों के सिरे बहुत तेजी से बदलते हैं। लेकिन तब भी किताब में ढेर सारी सूचनाएं हैं जो पाठकों के लिए उपयोगी हो सकती हैं। खास कर यह समझने के लिहाज से कि अपने समय की इमरजेंसी की शिनाख्त कैसे करें।

बेशक, यह किताब सीधे ढंग से इस काम में मदद नहीं करती। यह पढ़ने वालों पर है कि वे इसे देखें और मौजूदा संदर्भों से जोड़ें। लेकिन अगर इसे ठीक से पढ़ा जाए तो यह समझा जा सकता है कि उन दिनों इमरजेंसी का कहर जितना बड़ा था, समाज में जहर उतना अधिक नहीं था, जितना अब समाज में नजर आता है। एक प्रावधान के रूप में इमरजेंसी दूर नजर आती है। जबकि उसके अदृश्य ऑक्टोपसी पंजों को अपने चारों तरफ महसूस करना जरा भी मुश्किल नहीं है।

इमरजेंसी का कहर और सेंसर का जहर 

बलबीर दत्त

प्रकाशक | प्रभात पेपरबैक्स

मूल्यः 500 रुपये | पृष्ठः 471

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