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28 नवंबर 2022 · NOV 28 , 2022

पुस्तक समीक्षा: बिहार में स्त्री-शिक्षा की प्रेरक

यह पिछले दो दशक से देखा जा रहा है कि बहुजन समाज के लेखकों और पत्रकारों के साथ शोधार्थियों की रुचि उनके अपने इतिहास में तेजी से बढ़ती जा रही है
अनजानी शख्सियत के बारे में उम्दा पुस्तक

यह पिछले दो दशक से देखा जा रहा है कि बहुजन समाज के लेखकों और पत्रकारों के साथ शोधार्थियों की रुचि उनके अपने इतिहास में तेजी से बढ़ती जा रही है। यही नहीं, उनमें इतिहास के साथ संस्कृति के प्रति भी जिज्ञासा का भाव उभरा है। उसका सबसे बड़ा कारण, शिक्षा और शिक्षा से चेतना का उभरना है।

देश भर में ऐसी दर्जनों गुमनाम शख्सियतें हैं, जो अंधेरे को चीरते हुए उजाले में आईं। इनमें से कुछ पहले स्वयं शिक्षित बने, फिर दलित और पिछड़े समाज में ज्ञान ज्योति जलाई। उनमें चेतना भरी। हाशिए के उन लोगों को महसूस कराया कि वे भी इनसान हैं। उन्हें उनकी अस्मिता से रू-ब-रू कराया। पर दुखद स्थिति यह है कि ऐसी क्रांतिकारी हस्तियों का इतिहास न बन सका। उनके जीवन संघर्ष की कहानियां राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियों में नहीं आ सकीं। कहना न होगा कि अधिकांश पाठक भी ऐसी शख्सियतों के बारे में जानने-समझने से महरूम रहे।

जन-जन में शिक्षा की लौ जलाने वाली ऐसी ही शख्सियत कुन्ती देवी का जन्म अक्टूबर, 1924 में बिहार के नालंदा जिले के पावापुरी के निकट गोवर्धन बिगहा नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम गनौरी महतो तथा माता का नाम विशुनी देवी था। गनौरी महतो जमींदार थे। समय के साथ उनकी जमींदारी समाप्त हो गई।

उनकी शादी आठ वर्ष की उम्र में पटना जिले (वर्तमान में जिला नालंद) के थाना इसलामपुर के ग्राम बेले के रमन मेहता के पुत्र केशव दयाल मेहता के साथ हुई। दोनों परिवारों की काफी प्रतिष्ठा थी। कुछ वर्ष बाद मेहता जी कतरी सराय चले गए। जहां उन्होंने एक वैद्य से औषधियां बनाना सीखा। मेहता जी शिक्षित और जागरूक थे इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी को कन्या विद्यालय में छोटी बच्चियों को शिक्षा देने की सलाह दी।

उस दौर में यह क्रांतिकारी कदम था। इतिहास में लगभग एक सौ बरस पूर्व ज्योतिराव फुले द्वारा अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित करने का उदाहरण मिलता है। यहीं से कुन्ती देवी के भीतर जड़ समाज को बदलने की इच्छा पैदा हुई। 1939 में कुन्ती देवी को साथ लेकर मेहता जी गया जिले के ‘पंचायती अखाड़ा’ शिक्षा-प्रशिक्षण महाविद्यालय गए और अपनी पत्नी का दाखिला करवा दिया।

इस तरह बिहार में स्त्री शिक्षा ने बंद दरवाजों पर दस्तक दी। वे सुघड़ गृहिणी के साथ सफल शिक्षिका भी साबित हुईं। वे जिम्मेदार समाज सेविका बनीं। स्वयं की पढ़ाई करते हुए वे बच्चों को पढ़ाने का कार्य भी करने लगीं। यही नहीं, उन्होंने छोटा-सा विद्यालय भी खोल लिया। बाद में शिक्षा का यही बीज पेड़ बना। उस समय घर में बिजली का प्रबंध नहीं था। टीन या लोहे के पत्तर से बनी ढिबरी या लालटेन से ही प्रकाश किया जाता था। उन्होंने शिक्षा के साथ समाज के स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया। इस दंपती ने तय किया कि आसपास का कोई भी व्यक्ति इलाज और दवा के लिए महरूम न रहे। इसके लिए उन्होंने स्वाध्याय से आयुर्वेदिक और होमियोपैथिक चिकित्सा सीखी और दवाखाना खोला, जहां जरूरतमंदों को मुफ्त चिकित्सा और दवाई की सुविधा मिलती थी।

सावित्री बाई फुले की तरह जहां से भी उन्हें किसी रोगी या बीमार की जानकारी मिलती, वे तुरंत वहां पहुंच जातीं और सेवा में जुट जातीं। 1939 में वे सातवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में उत्तीर्ण हुईं। फिर पंचायती अखाड़ा महाविद्यालय से शिक्षक-प्रशिक्षण उपाधि प्राप्त की। बाद में बनारस से होने वाली मैट्रिक की परीक्षा साहित्यभूषण तथा विशारद की परीक्षा में भी सफल हुईं। इस तरह उन्होंने तथागत बुद्ध के मानवीय दर्शन को आगे बढ़ाया। पहले वे अपना दीपक स्वयं बनीं और फिर अन्य को दीपक बनाया। उनके प्रयासों से अंधेरा चीर कर उजाला को ले आया।

इसलामपुर की शिक्षा-ज्योति कुन्ती देवी

पुष्पा कुमारी मेहता

प्रकाशक| द मार्जिनलाइज्ड

पृष्ठ संख्या:160| मूल्य: 300 रुपये

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