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पुस्तक समीक्षा: समकालीन सवालों से सार्थक मुठभेड़

पुस्तक में नई विश्व व्यवस्था की चुनौतियां, समाज में बढ़ते अपराध, राजनीति में मूल्यों का क्षरण है
समकाल के नेपथ्य में

पत्रकारिता और साहित्य के चिंताजनक अवमूल्यन के मौजूदा दौर में भी ऐसे कई पत्रकार, लेखक और साहित्यकर्मी हैं जो अपने देश और समाज के समक्ष मौजूद ज्वलंत मसलों पर अपने नैतिक दायित्व बोध, विचारोत्तेजक विश्लेषण और भाषिक संवेदनशीलता के साथ सार्थक काम कर रहे हैं। पुस्तक ऐसे ही दायित्व-बोध की गवाही देती है। इसमें नई विश्व व्यवस्था की चुनौतियां, समाज में बढ़ते अपराध, राजनीति में मूल्यों का क्षरण है। सत्ता का कॉरपोरेटीकरण, भीड़तंत्र में तब्दील होता हमारा लोकतंत्र, समाज में बढ़ रही धार्मिक और राजनीतिक असहिष्णुता, सांप्रदायिकता की चुनौती के बारे में बताती यह किताब शिक्षा की बदहाली, शिक्षा और शिक्षण के डिजिटलीकरण के खतरे, सरकारी संस्थानों में महंगी शिक्षा के साथ भाषा विवाद पर भी बात करती है। पुस्तक हिंदी की वैश्विक दशा, हमारी लोकपरंपराओं और उत्सवों में बाजारवाद का बेशर्म दखल, तेजी से बढ़ते शहरीकरण की चुनौती, खेती-किसानी को पूंजीबाजार के हवाले करने के सरकारी इरादे की चुनौतियों को सामने रख आधुनिकता बनाम परंपरा के द्वंद्व की पड़ताल करती है। पुस्तक में पांच निबंध साहित्यिक विषयों पर भी हैं, जिनमें साहित्य के क्षेत्र में बढ़ती गिरोहबंदी, बाजार का दबदबा, रचनाओं में हो रहा संवेदना और सामाजिक चिंताओं का लोप, पुरस्कारों और सम्मानों की आपाधापी, उच्च पदस्थ राजनेताओं और नौकरशाहों को साहित्यकार के रूप में स्थापित करने का फूहड़ अभियान, मठाधीश साहित्यकारों का अहंकार, आलोचना के नाम पर किसी को भी अपमानित-लांछित करने की कोशिश, प्रकाशकों की मुनाफाखोरी, गाजरघास की तरह उग रही फर्जी साहित्यिक संस्थाएं और इन सबके चलते प्रतिबद्ध, संभावनाशील और गुटनिरपेक्ष रचनाकर्मियों की हो रही ‘मॉब लिंचिंग’ की खूब खबर ली गई है।

पुस्तक में कहीं-कहीं भाषाई अशुद्धि के साथ ही एक अखरने वाली बात यह भी है कि समान विषय पर लिखे गए अलग-अलग लेखों को तरतीब से एक साथ नहीं रखा गया है। कहा नहीं जा सकता कि ऐसा सुनियोजित तौर पर हुआ है या असावधानीवश। लेखों की अनुक्रम सूची में कुल 54 शीर्षक हैं लेकिन वास्तव मे लेख 53 ही हैं। ऐसा एक लेख का भिन्न-भिन्न शीर्षक से दोहराव होने की वजह से हुआ है।

कुल मिलाकर नकारात्मकता और निराशा के घटाटोप से घिरे समकाल में लेखिका ने विकासशील विश्वदृष्टि और बौद्धिक चेतना के साथ ज्वलंत सवालों से सार्थक मुठभेड़ की है, जो डॉ. लोहिया के बताए निराशा के कर्तव्यों में से एक है।

समकाल के नेपथ्य में

डॉ. शोभा जैन

प्रकाशक | भावना प्रकाशन

मूल्य: 275 रुपए | पृष्ठ संख्या 188

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