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23 जनवरी 2023 · JAN 23 , 2023

पुस्तक समीक्षा : जब आंचल बन गया था परचम

नागरिकता कानून में प्रस्तावित संशोधन (सीएए) और नागरिकों के राष्ट्रीय पंजीयक (एनआरसी) के खिलाफ दिल्ली से शुरू होकर पूरे देश में फैली इस चिंगारी का नाम पड़ा शाहीन बाग आंदोलन
लोकतंत्र का अनूठे आंदोलन का दस्तावेज

वह आज से ठीक दो साल पहले का वक्त था, जब बरसों का रिकॉर्ड तोड़ने वाली सर्द रातों में अस्सी नब्बे साल की बुजुर्ग औरतों ने खुले आसमान के नीचे बैठकर अपने उस हक की बात की थी जो उन्हें संविधान ने दिया है। इन दादी-नानियों की आंखों की रोशनी वक्त के साथ भले ही कुछ कम पड़ गई हो, लेकिन बिना लागलपेट के वे साफ-साफ उस मंशा को देख और कह पा रही थीं जिसको बयां करना जुर्म बना दिया गया था। नागरिकता कानून में प्रस्तावित संशोधन (सीएए) और नागरिकों के राष्ट्रीय पंजीयक (एनआरसी) के खिलाफ दिल्ली से शुरू होकर पूरे देश में फैली इस चिंगारी का नाम पड़ा शाहीन बाग आंदोलन।

पत्रकार भाषा सिंह की किताब शाहीन बाग लोकतंत्र की नई करवट उस दौर और उसके घटनाक्रम को विस्तार से दर्ज करती है। लेखिका ने पूरे भारत में घूम कर आंदोलन को हूबहू उसी शक्ल में उतार देने का साहस दिखाया है। राजकमल प्रकाशन के ‘सार्थक इम्प्रिन्ट’ से 2022 में छपकर आई यह किताब एक ऐसा दस्तावेज है जिसका हम हिस्सा थे, जो हमारी ही आपबीती थी और जिस आंदोलन की बागडोर भी महिलाओं के हाथ में ही थी।

किताब की शुरुआत ‘नई करवट’ नाम के अध्याय से शुरू होती है। इस अध्याय में उन बुजुर्ग औरतों की खालिस बातें हैं जिन्होंने महज तीन महीना चले आंदोलन को आजादी की लड़ाई मान लिया था। वे कहती हैं, “हम तो देश के लिए निकले हैं। ऐसा दौर तो हमने कभी देखा ही नहीं। सड़क ही हमारा घर हो गया है अब तो। तीन-तीन चार-चार पीढ़ियों के साथ हम यहां डटे हुए है। हमें किसी का खौफ ना है। हम अब किसी से नहीं डरते- पुलिस हो, गोली हो, जेल हो। सब कुछ झेल लेंगे, पर पीछे ना हटेंगे। हमारे लिए यह आजादी की ही लड़ाई है।”

इस किताब के एक और अध्याय ‘आंदोलन के औजार’ में सबसे ऊपर सबसे मारक औजार संविधान का जिक्र है। फिर तिरंगा, फातिमा शेख-सावित्री बाई फुले पुस्तकालय और उन तमाम ग्राफिटी के बारे में बताया गया है जो सरकार और प्रशासन के मजबूत हथकंडों पर भारी पड़ गए थे। इस आंदोलन ने बता दिया था कि गांधी के देश में अपनी आवाज बुलंद करने का सबसे मजबूत औजार अहिंसा के मार्ग पर चलकर खड़ा किया गया जन आंदोलन है।

भाषा अपनी इस किताब में लिखती हैं, “यहां आइडिया ऑफ इंडिया अलहदा लफ्जों में गूंजा। देशभक्ति को साबित करने, नागरिकता को साबित करने के हुक्मरानों के तमाम फासिस्ट दबावों को एक-एक शब्द ने चिंदी-चिंदी कर दिया। शाहीन बाग ने इतनी जबरदस्त ऊर्जा भरी कि उसने इस दौर में फैज को ‘लाजिम’ बना दिया और हबीब जालिब को ‘दस्तूर’ इस दौरान क्रिएटिविटी अपने शबाब पर पहुंच गई।”

ऊपर की पंक्तियां इस किताब के सबसे खूबसूरत अध्याय ‘सृजन की तीखी धार’ से ली गई हैं। सबसे खूबसूरत इसलिए क्योंकि पहली बार यह बात समझ में आई कि फैज और हबीब जालिब जैसे लेखक कहां से अपनी ऊर्जा लेते हैं और किन हालात में ऐसी नज्में और शेर लिखे जाते हैं। यह भी समझ आता है कि कैसे वरुण ग्रोवर की कविता ‘हम कागज नहीं दिखाएंगे’ शाहीन बाग आंदोलन का ऑफिशियल तराना बन गई।

 भाषा अपनी किताब में एक छोटी सी तख्ती पर लिखे एक वाक्य का जिक्र करती हैं, “परेशानी के लिए माफी। औरतें काम पर हैं। हम एक नए राष्ट्र को जन्म दे रही हैं। कृपया सहयोग बनाए रखें।” एक समाज जो सदियों से महिलाओं को दूसरे दर्जे पर देखने का शौक रखता है, वहां इस किस्म का नारा अपने आप में ताकत का स्रोत बन जाता है। लेखिका के अनुसार इस आंदोलन ने औरतों को सिखाया कि जब उनकी सबसे बुनियादी पहचान यानी उनकी नागरिकता पर सवाल किए जाएंगे तो वे सवाल करने वाले को भी खारिज करने की ताकत रखती हैं। यह अधिकार उन्हें कोई और नहीं बल्कि देश का संविधान देता है।

भारत के राजनीतिक फलक पर हुई इस अहम करवट को सहेजने और उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझने की एक कोशिश है शाहीन बाग: लोकतंत्र की नई करवट। साथ ही लोकतंत्र को वाइब्रेंट बनाए रखने की अतुलनीय जिजीविषा को यह किताब जेंडर के लेंस से परखती है। पुस्तक के रूप में एक आंदोलन का दस्तावेजीकरण भारतीय लोकतंत्र की जटिलताओं के साथ-साथ प्रतिरोध की शक्ति और संभावनाओं को भी सामने लाता है।

भाषा सिंह की इस किताब का हर पन्ना इतिहास का गवाह है, एक जिंदा दस्तावेज है। शाहीन बाग को अभी बस दो साल हुए हैं लेकिन जब भविष्य में इस दौर के बारे में पलट कर लिखा-पढ़ा जाएगा तो यह पुस्तक निश्चित तौर पर एक जरूरी रेफरेंस के तौर पर शामिल होगी।

शाहीन बागः लोकतंत्र की नई करवट

भाषा सिंह

प्रकाशक|राजकमल

मूल्य: 250 रुपये |पृष्ठः 231

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