Advertisement

समय की कसौटी

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा

कश्मीर उप्पल

प्रयाग शुक्ल की सद्य प्रकाशित पुस्तक परख के पंख उनके तैंतीस लेखों की यात्रा है। लेखों की यह यात्रा साठ के दशक से उड़ान भरकर नवंबर 2019 पर आकर ठहरती है। प्रयाग शुक्ल के समीक्षा-लेख साहित्य, कला, पत्रकारिता, अनुवाद और विश्व प्रसिद्ध पुस्तक मेलों की परख करते मानो इतिहास का एक अंश बन जाते हैं। हमारे देश की आजादी के बाद से सत्तर के दशक तक भारतीय कला, साहित्य और पत्रकारिता की उड़ान एक-सी है। अस्सी का दशक आते ही हम इन लेखों में देख पाते हैं कि वैश्वीकरण की आंधी पत्र-पत्रिकाओं को भी सामाजिक प्रतिबद्धता छोड़ व्यावसायिकता की उड़ान भरने को मजबूर करने लगी है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण स्वयं प्रयाग शुक्ल के दिनमान की पत्रकारिता के अनुभवों से गुजरते हुए दिखता है। रघुवीर सहाय की दिनमान के संपादक पद से विदाई पत्रकारिता की एक परंपरा की विदाई भी दिखाई देती है।

प्रयाग शुक्ल पुस्तक की भूमिका आरंभ में लिखते हैं, “परख के साथ ही, पाठकों को वह आनंद भी मिलेगा, जो स्वयं मैंने इस समीक्षा-लेखों को लिखते हुए उठाया है। वह समय भी कहीं से झांक ही आएगा, जब ये समीक्षा लेख लिखे गए थे, साठ-सत्तर के दशक से शुरू होकर, आज तक का समय।” इस महत्वपूर्ण पुस्तक में कला और साहित्य पर समीक्षात्मक आलेख हैं परंतु साहित्य से जुड़ी पत्रकारिता की चर्चा इसे एकदम ‘ताजा कटकर आई फसल’ (वान गॉग) की तरह महकदार बनाती है। हिंदी में बाल-साहित्य को लेकर प्रयाग शुक्ल कहते हैं, “जब बच्चों में लोकप्रिय पत्रिका पराग को बंद किया गया तब संयोग से मैं इसका संपादक था। इसे बंद करने का कोई कारण नहीं बताया गया। लेकिन इसके पीछे यही व्यावसायिक बुद्धि काम कर रही थी।”

दिनमान के अपने अनुभवों में प्रयाग शुक्ल बताते हैं, “1969 के जनवरी महीने में सच्चिदानंद हीरानंद वात्‍स्यायन ‘अज्ञेय’ मुझे बकायदा संपादक मंडल में शामिल करा कर, कुछ दिनों बाद अमेरिका चले गए और फिर दिनमान मंे वापस नहीं लौटे। मेरा दिनमान से जो प्रगाढ़ संबंध उनके संपादन काल में बना, वह अबाध गति से तब तक जारी रहा, जब तक दिनमान का स्वरूप बिलकुल ही बदल देने की बात मालिकों ने जोर-शोर से लागू करनी शुरू नहीं कर दी और रघुवीर सहाय का संपादकत्व छीन लिया।” प्रयाग शुक्ल लेखों में कृष्‍णा सोबती, अलका सरावगी, राजुला शाह, अज्ञेय, अनंतमूर्ति, श्रीपत राय, आर.के. नारायण, कृष्‍णनाथ, कुलदीप कुमार और गिरधर राठी आदि के संबंध में हमें वह पढ़ने को मिलता है जो अन्यत्र संभव ही नहीं। प्रयाग शुक्ल के आत्मिक संबंधो से पगे ये लेख आत्मकथात्मकता का आस्वाद देते हैं। दिनमान के संपादक के रूप मंे अज्ञेय, उपसंपादक मनोहर श्याम जोशी और नवभारत टाइम्स के संपादक राजेन्द्र माथुर से पत्रकारिता सीखते प्रयाग शुक्ल मानो आज के पत्रकारों के हाथ में पत्रकारिता के कई-कई मंत्र रखते चलते हैं।

प्रयाग शुक्ल पत्रकारिता के प्रतिमान लेख में रमेशचन्द्र शाह के अज्ञेय पर मोनोग्राफ का उल्लेख करते हैं। इसमें भारतभूषण अग्रवाल के एक प्रश्न के उत्तर में अज्ञेय कहते हैं, “मैं यह नहीं मानता कि कोई भी काम अपने स्वभाव के कारण रचना-कार्य में बाधक होता है। जो इतर परिश्रम नहीं करता, उसकी रचनाशीलता धीरे-धीरे क्षीण हो जाती होगी। इतर परिश्रम को मैं यथार्थ से बंधे रहने में सहायक मानता हूं।”

वे नवभारत टाइम्स के संपादक राजेन्द्र माथुर का स्मरण करते हैं। राजेन्द्र माथुर कहते थे, अगर कोई खबर दस-पंद्रह मिनट के भीतर पढ़वा नहीं लेती तो वह फिर कभी नहीं पढ़ी जाएगी। इसलिए जरूरी है, जो लिखें वह समझ आए, उसमें जानकारी और विचार के साथ प्रासंगिकता हो। गिरधर राठी के संबंध में उनकी कसौटी हम सभी की भी लगती है, वे कहते हैं, “वे निराकांक्षी हैं। स्वाभिमानी हैं। साहसी हैं। स्वतंत्रचेता हैं। कठोर या द्रवित एक साथ या आगे-पीछे हो सकते हैं, पर सोच-विचार की, रचना की दुनिया में, किसी समझौते के आकांक्षी नहीं हैं।”

परख के पंख

प्रयाग शुक्ल

प्रकाशक | अनन्य प्रकाशन 

पृष्ठः 144 | मूल्यः 350 रुपये

---------------

संवेदना से सरोकार

चुनी हुई कहानियां

धीरेन्द्र अस्थाना

प्रकाशक | अमन प्रकाशन

पृष्ठः 152 | मूल्यः 175 रुपये

 

कई बार कहानियां यादों का सिलसिला होती हैं। लेकिन इन संग्रह की आठों कहानियां, मानवीय सरोकार की कहानियां हैं जिनमें स्मृतियां बीच-बीच में झांकती चलती हैं। ये चुनिंदा कहानियां हैं इसलिए इनका कालखंड भी बहुत अलग-अलग हैं। ये कहानियां 44 बरस का समाज और उसमें हो रहे बदलाव को समेटे हुए हैं। लोग हाशिए पर 1974 में लिखी गई है लेकिन कहानी पढ़ने के बाद आज भी लगता है कि कहीं कुछ नहीं बदला है। हर कहानी अलग ढंग से अपने कालखंड को कहता है और इन कहानियों की गूंज दूर तक सुनाई देती है। धीरेन्द्र अस्थाना पेशे से पत्रकार रहे हैं और यही वजह है कि उनकी कहानियों में समाज की बारीक बुनावट भी दिखाई देती है। ‘जन्मभूमि’ कहानी किसी फिल्म की रील की तरह चलती है। यह वर्तमान और अतीत को बहुत खूबसूरत ढंग से साधते हुए चलती जाती है। क्रांति, आंदोलन और रोजमर्रा के जीवन के बीच फंसे एक युवा की यह कहानी वैचारिक प्रतिबद्धता के द्वंद्व को भी बहुत सटीक ढंग से रेखांकित करती है। इस कहानी का युवा जब सब कुछ त्याग कर सामान्य जीवन जीता है तो वह अपने साथ बहुत से प्रश्न उठाता है कि क्या क्रांति का सपना जीवनयापन के सामने गौण हो जाता है? इस संग्रह में कई मिजाजों की कहानियां हैं, जो उस वक्त के षड्यंत्रों, मानवीय संवेदनाओं और समाज के ढंग और पाखंड को सामने लाती हैं।

आउटलुक डेस्क 

------------------

जीवन की विविधताओं से साक्षात्कार

जब तुम नहीं होती

रणविजय राव

प्रकाशक | इंडिया नेट्बुक्स

पृष्ठः 139 | मूल्यः 325 रुपये

रणविजय राव साहित्य के गंभीर अध्येता हैं। उनके अनुभव उनकी रचनाओं में अभिव्यक्त होते हैं। पुस्तक की सभी कविताओं में मनुष्यता, समता, भाईचारा, बंधुत्व आदि को मजबूती देनेवाले आधुनिक मानदंड हैं। कवि ने अपने अध्ययन, चिंतन-मनन और रुचि को बचाए-बनाए रखते हुए बेहतर मनुष्य और बेहतर समाज की चाहत में काव्य-सृजन को अपनाया है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि रणविजय की कविताएं अनुभूति और चिंतन के गहरे विमर्श से निर्मित होती हैं।   

इस संग्रह की समसामयिकता का संकेत अनुक्रम से मिल जाता है। अनुक्रम में दो खंड बनाए गए हैं–कुछ अब की, कुछ तब की। यह वर्गीकरण वर्तमान और अतीत की ओर संकेत करता है। संग्रह की पहली कविता के शीर्षक से ही कवि के तेवर का संकेत कुछ इस अंदाज में मिलता है, जैसे क्रिकेट में बल्लेबाज पहली ही गेंद पर चौका या छक्का लगाकर संकेत देता है। पहली कविता का शीर्षक है, ‘हक के लिए लड़ो’  “जैसे खेल के मैदान में/ लड़ते हैं खिलाड़ी/ जीतने के लिए/ वैसे ही लड़ो/ अपने हक के लिए/ अपने अधिकार के लिए/ अपनी इज्जत के लिए/ अपनी मर्यादा के लिए।”

कविता को जीवन से जोड़ते हुए कवि ने जीवन-संघर्षों को खेलों की प्रतिस्पर्धा से जोड़ दिया है। जैसे खेल के मैदान में लड़ते हैं खिलाड़ी जीतने के लिए, वैसे ही लड़ो अपने हक के लिए। उल्लेखनीय है कि जब हम जीवन-संघर्षों में खिलाड़ी वाला अंदाज बनाए रखते हैं तो कभी भी हार से हताश नहीं होते। प्रत्येक हार हमें अगले प्रयास के लिए तैयार करती है। कवि अपने पाठकों में इस कविता द्वारा सकारात्मक ढंग से जीवन को संघर्ष के रास्ते पर चलते हुए जीने का संदेश देता है। जीवन संघर्षों का उद्देश्य इस कविता में बहुत स्पष्ट है, “किसी का उधार लेकर मत लड़ो/ चोरी करके मत लड़ो/ लड़ो कि भरोसा कायम रहे/ लड़ो कि इंसानियत जिंदा रहे/ लड़ो कि तुम्हारा स्वाभिमान बचा रहे।” कवि जीवन को सकारात्मक ढंग से जीने का पक्षधर है।

कवि के काव्य सृजन के केंद्र में श्रम और श्रमिक वर्ग भलीभांति विराजमान है। ‘इस्पाती जज्बात’ ऐसी ही कविता है। बाजारवाद की आंधी ने श्रम और श्रमिक वर्ग के समक्ष विभिन्न संघर्षों को खड़ा किया है, फिर भी श्रमिक अपने कर्तव्यपथ से कभी विमुख नहीं होते। यह कविता जीवन के प्रति उनके नजरिये को अभिव्यक्त करती है। जीने की विवशताओं की अभिव्यक्ति पठनीय है, “सताने लगा है उसे/ जीने की विवशता का संघर्ष/ उठने लगा है/ सादगी का पर्दा/ चकाचौंध करती है अब/ झिलमिल करती/ बिजली की लड़ी/ बेमानी हो गए हैं/ हुनर और श्रम। इस्पाती जज्बात का है/ हार नहीं मानेगा/ बनाए जा रहा है वह/ मिट्टी के दीये/ मिट्टी में मिल जाने के लिए।” कर्मयोगी की भांति कवि लगातार कर्म करने की ओर अग्रसर है। संग्रह की कविताएं भी निरंतर यही कार्य कर रही हैं।

‘कुछ तब की’ खंड के बहाने कवि अपने बीते हुए दिनों को, जो उसकी स्मृति में आज भी ताजा हैं, बहुत शिद्दत से याद कर शब्दों में सुरक्षित कर रहा है। सिर्फ सुरक्षित ही नहीं कर रहा, बल्कि जीवन के उन तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों को दोबारा याद करते हुए मानो दोबारा जी रहा है। इन कविताओं में ‘जीवन का मुश्किल समय है’, ‘आम आदमी’, ‘बाबूजी की चिट्ठी’, ‘कईली दादी’, ‘वैशाली एक्सप्रेस’, ‘मां की पाती बेटे के नाम’, ‘बेटी तुम’, ‘कॉलेज के मित्रों की याद है’, ‘वीरेंद्र भाई’, ‘बुजुर्ग पड़ोसी’, ‘मन में बसता है मेरा गांव’ आदि कविताएं प्रमुख हैं। मुझे उम्मीद है कि इस संग्रह की कविताएं पाठकों को जीवन के विविध रंगों और अनुभवों से समृद्ध करेंगी। 

डॉ. रमेश तिवारी

---------------

रिश्तों की कहानियां

बंद दरवाजों का

शहर

रश्मि रविजा

प्रकाशक | अनुज्ञा बुक्स

पृष्ठः 176 | मूल्यः 225 रुपये

कहानियों की पहली शर्त पठनीयता होती है और रश्मि रविजा की कहानियां इस शर्त पर खरी उतरती हैं। किसी प्रसंग की नब्ज को पकड़ना ही कहानीकार का पहला काम होता है और लेखिका इसे खूब समझती हैं। 12 कहानियों वाले इस संग्रह में शहरी प्रेम, शहरी विडंबना और शहरी एकांत का खूबसूरत वर्णन है। पहली कहानी ‘चुभन टूटते सपनों के किरचों की’ इतने मार्मिक ढंग से लिखी गई है कि दूसरी कहानी पढ़ने के लिए एक अंतराल की जरूरत होती है। दूसरी कई कहानियों में भी शहरी प्रेम को दर्शाया गया है लेकिन इस कहानी का ढंग पाठक को देर तक बांधे रखता है। कहानियों की खास बात भाषा है, जिसमें उन्होंने आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग तो किया ही है, उन घटनाओं को भी पकड़ा है, जिससे आम व्यक्ति जीवन में दो-चार होता ही रहता है। इन कहानियों के विषय ऐसे हैं कि इसे हर वर्ग का पाठक चाव से पढ़ेगा। आसपास की घटनाओं को वे कहानी में बहुत आसानी से पिरो देती हैं, जिससे कहानियां घटना से ज्यादा भावना में तब्दील हो जाती हैं। ऊंची-ऊंची गगनचुंबी इमारतों में छोटे-छोटे फ्लैटों में रहने वाले जीवन को दिखाती उनकी शीर्षक कहानी, ‘बंद दरवाजों का शहर’ वाकई सराहनीय है। एक गृहिणी की घुटन को उन्होंने मानो जीवंत कर दिया है। यह कहानी बताती है कि जिंदगी दोबारा नहीं मिलती इसलिए जीवन हमेशा जीने का नाम होना चाहिए।

आउटलुक डेस्क 

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement