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प्रतिरोध के संवादी सुर

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा

लेखन को महज साहित्य-साधना नहीं, बल्कि सांस्कृतिक कर्म के तौर पर लेने के पक्षधर रामकुमार कृषक ने सन 1988 में अलाव नाम से लघुपत्रिका निकाल कर अपने पक्ष को ईमानदारी के साथ पुष्ट किया। लंबे समय से निकल रही इस पत्रिका का लघुपत्रिकाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इसके लगभग सभी विशेषांक बहुचर्चित रहे। संपादक रामकुमार कृषक ने पत्रिका के माध्यम से समकालीन हिंदी परिदृश्य को समर्पण के साथ समझा और जिया है।

सुविधाभोगी, तटस्थ, अभिजात्यपन से सजे-धजे या फिर दब्बू किस्म के बुद्धिजीवी, साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी अपने समय के जिन प्रश्नों अथवा अपेक्षाओं से मुंह चुराते मिलेंगे, उनसे अलाव के संपादकीय प्रतिबद्धता के साथ सीधे जुड़ते हैं। इसे कविता में बंटवारा में संग्रहीत आलेखों में आसानी से पढ़ा जा सकता है। उदाहरणत: ‘सर्वहारा के साहित्यिक’ शीर्षक से लिखे गए आलेख में लेखक ने सफदर हाशमी की हत्या और गोरख पांडेय द्वारा आत्महत्या के संदर्भ में न केवल सत्ता-पोषित फासीवादी ताकतों को, बल्कि सुविधाभोगी बुद्धिजीवियों को आड़े हाथों लिया है। इसी प्रकार की निष्ठा को पंजाब-संकट के एक दशक के बाद सन 1990 में अलाव पत्रिका के पंजाब-अंक निकालते हुए दोहराई गई। ‘मुनाफे का सौदा: पंजाब’ शीर्षक से इस अंक के संपादकीय में वे लिखते हैं, “पिछले एक दशक में राष्ट्र के जिम्मेदार कला-फिल्मकारों की फिल्में देखिए और समकालीन जन-लेखकों की रचनाएं पढ़िए, एक-दो अपवादों को छोड़कर अधिकांश ने चालाकी भरे दब्बूपन से पंजाब की उपेक्षा की और इसे अपनी ‘कलात्मक’ सृजनशीलता की विषयवस्तु नहीं माना।

वैसे तो सारे ही संपादकीय आलेख लघुपत्रिका निकालने जैसे साहित्यिक-सांस्कृतिक कर्म के एक लेखे-जोखे के रूप में भी पढ़े जा सकते हैं लेकिन इनमें से कुछ आलेख विशेष रूप से जैसे ‘प्रयोजन से परे,’ ‘भूत का वर्तमान,’ ‘तब कहां जानता था, और...,’ ‘वैसे मुझे मालूम है,’ ‘साहित्यिक पत्रिकाएं और आप’ आदि उल्लेखनीय हैं।

प्रायः संपादकीय आलेख अपने विशेष समय-संदर्भों के साथ लिखे-पढ़े जाते हैं। इसके बावजूद किसी संपादकीय में तत्कालीन घटनाओं या विषय विशेष की संपादक द्वारा व्याख्या और विश्लेषण करने का कौशल उस संपादकीय को एक सार्वकालिक और स्वतंत्र आलेख के रूप में रूपायित कर देता है। इस कड़ी में ‘अभिजनवादी हिंदी काव्यालोचना,’ ‘उठ एशिया, उठ,’ ‘विफलता के शिल्प में नहीं,’ ‘मैकाले की मोहिनी,’ ‘जन की स्वतंत्रता ठगी-ठगी,’ ‘साहित्य और साहित्येतर,’ ‘सूखे कठोर नंगे पहाड़,’ ‘दलितों का धर्म,’ ‘कद से ओछे माप,’ ‘रहनुमाई’ की तलाश,’ ‘फासीवाद की असल आहटें,’ ‘दूसरी हिंदी’ और ‘हिंदियां’ आदि ऐसे ही आलेख हैं।

उदाहरण के लिए ‘दूसरी हिंदी’ और ‘हिंदियां’ नाम से आलेख में अंग्रेजीपरस्त सत्ताभोगी वर्ग द्वारा हिंदी, भारतीय भाषाओं और बोलियों को निशाना बनाकर की जा रही घृणित राजनीति से सावधानीपूर्वक निपटने का आहवान किया गया है। इस पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने से पहले वो लिखते हैं, “हिंदी को अभी तक वास्तविक अर्थों में राजभाषा (राष्ट्रभाषा तो दूर की बात है, क्योंकि ‘राष्ट्रभाषा’ तो देश की सभी भाषाएं हैं) नहीं बनाया जा सका है। इसके कारण तक जाएं तो इसके लिए तमिलनाडु जैसे राज्य के विरोध की आड़ ली जाती है, जबकि इसकी बुनियाद में सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजीपरस्त सत्ताभोगी वर्ग है, फिर चाहे वह किसी भी राज्य, धर्म, जाति या भाषा से जुड़ा हो। यह वही वर्ग है, जिसे न कल अंग्रेजों की गुलामी से था न आज अंग्रेजी की गुलामी से गुरेज है।

पुस्तक में संग्रहीत अनेक आलेखों को कविता केंद्रित और कवि या साहित्यकार केंद्रित आलेखों के रूप में भी वर्गीकृत करके देखा जा सकता है। साहित्यकार केंद्रित लेखों में बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री पर केंद्रित ‘खड़ी बोली (पद्य) का चाणक्य,’ कवि शील पर केंद्रित ‘जन की स्वतंत्रता ठगी-ठगी,’ कवि नईम पर ‘कद से ओछे माप,’ गोपाल सिंह नेपाली पर ‘...और सब कुशल है,’ रामविलास शर्मा को उनकी जन्मशती पर याद करते हुए लिखित ‘रामविलास जी के भाषायी सरोकार,‘ बाबा नागार्जुन पर ‘मेरी भी आभा है इसमें,’ महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर ‘सबार उपर मानुष सत्य’ आदि खास हैं। कविता पर केंद्रित ‘अभिजनवादी हिंदी काव्यालोचना,’ गजलों को केंद्र में रखकर लिखी गई संपादकीय ‘जुड़ाव की साहित्यिक संस्कृति,’ समकालीन कविता के छंदबद्ध और छंदमुक्त विभाजन की राजनीति पर ‘कविता में बंटवारा,’ और इसी तरह ‘घातक मानने के बावजूद,’ कविता की समकालीनता,’ ‘गोल-मटोल भाषा का तर्क’ आदि महत्वपूर्ण आलेख हैं।

साहित्यिक और सांस्कृतिक कर्म और इससे सन्नद्ध कर्मवीरों के प्रति कमरबंदी की भाव-भावना के साथ ही सारे संपादकीय आलेख आज के समय के साथ सचेत होकर गुजरते हुए लिखे गए हैं। प्रस्तुत संग्रह को समय की शिला पर दर्ज ईमानदार और रचनात्मक विरोध के रूप में पढ़ा जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो नई चेतना और प्रगतिशील मूल्यों के सतत संरक्षण और संवर्धन की हूक से गुंजायमान संपादकीय आलेखों के इस संग्रह कविता में बंटवारा में स्वाभाविक रूप से प्रतिरोध के संवादी स्वर मुखर हो उठे हैं।

कविता में बंटवारा

रामकुमार कृषक

प्रकाशक | शिल्पायन

पृष्ठः 216 | मूल्यः 500 रुपये

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