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जीवन की तहो-परतों को खोलती कहानियां

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा

इस संकलन की हर कहानी कठोर यथार्थ पर आधारित मानवीय संवेदना और प्रेम की कहानी है। सभी कहानियां वृहद कैनवास पर जीवन के विभिन्न आयामों को अनेक रंगों में चित्रित करती हैं। ये कहानियां जीवन के छोटे-बड़े संघर्षों से पाठक को तो रूबरू कराती ही हैं, वे भारत के मध्य और उच्च मध्यवर्गीय लोगों, जिनका परिवेश विशेषकर ग्रामीण है, उनकी खुशियों और ख्वाहिशों की बात भी करती हैं। मीना गांव और जिला-जवार के और गांव छोड़ शहर में आ बसे संपन्न लोगों की अय्याशियों, अभावों, सपनों और उनकी उम्मीदों को केंद्र में रखकर अपनी कहानियों का ताना-बाना बुनती हैं।

संग्रह की शीर्षक कहानी ‘उत्तरवाहिनी’ मूल्यों के टकराव की कहानी है। कथा नायिका तृष्णा के पिता बड़े पुलिस ऑफिसर हैं। संस्कारी पिता ने अपने बच्चों को एक खुला संसार और मजबूत पंख दिए हैं ताकि बच्चे अपनी मर्जी से अपने पंख पसार कहीं भी उड़ सकें। विवाह से मना करने पर दादी तृष्णा को समझाती हुई कहती हैं, “अकेले तो पशु भी नहीं रहते, मनुष्य कैसे रह सकता है। एक मनपसंद साथी, एक योग्य सहयोगी की सबको जरूरत होती है। इसलिए विवाह आवश्यक है। कामनाएं अतृप्त हों, तो जीवन असंतुलित हो जाता है। और इससे किसी का भला हुआ है कभी? विवाह समाज की स्थिरता की धुरी है।”

मीना झा भाषायी फ्लेवर में इस तरह नैरेट करती हैं कि पढ़ने वाला दंग रह जाता है। यही उनकी कला है और शिल्प भी। तभी शायद ममता कालिया जी ने मीना झा की कहानियों के बारे में कहा भी है, “मीना झा के पास गांव तथा नगर दोनों जगहों की सांस्कृतिक संपदा है। स्वयं वह बहुत सुलझी हुई सजग पाठक हैं, अतः उनकी कलम कहीं भी फिसलती नहीं है। वह कथावस्तु का निर्वाह बड़ी कुशलता के साथ कर लेती हैं।”

समाज और देश में हो रहे बदलाव अलग-अलग घटनाओं से सामने आते रहते हैं। इसी क्रम में बिहार में भी एक समय बदलाव का दौर था। सत्ता बदलती है तो सामाजिक समीकरण भी स्वाभाविक रूप से बदल जाते हैं। बिहार में भी एक दौर ऐसा आया जिसे तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों ने जंगलराज की संज्ञा दी। और इसी दौर पर आधारित संग्रह की कहानी है ‘व्यूह’, जिसमें शिक्षा जगत की विसंगतियां व्यक्त हुई हैं। एक योग्य, सुशिक्षित और कर्मठ अध्यापक को किन-किन परिस्थितियों सेे दो-चार होना पड़ता है, उसकी एक बानगी देखिए- “जब जंगलराज में निजी शिक्षण संस्थान कुकुरमुत्तों की तरह उग आए, किसी न किसी सत्ताधारी के अधीनस्थ, तब और बघारो अपने आदर्श, अड़े रहो सत्य पर! यह तो होना ही था। इस जमाने में आदर्श नहीं चापलूसी काम आती है। सत्य समय का रुख देखकर चलता है। पर तुम हो कि मानते ही नहीं। अब तो मैं भी घुन की तरह पिसूंगी तुम्हारे आदर्शों की चक्की में।”

मीना झा के संग्रह की कहानियों में बिहार के बदलते गांव तथा कस्बों की झलक भी देखने को मिलती है। साथ ही संयुक्त परिवार के टूटने तथा आर्थिक संकट से जूझते परिवार का टुकड़ों में बंट जाना, बड़े भाई द्वारा अपने परिवार को अपनी तरह से चलाने की उथल-पुथल स्पष्ट दिखाई देती है। ‘स्नेहदाह’ कहानी इसी बात को रेखांकित करती है। सोनू को गांव का कोना-कोना जानता है। यही सोनू जब बड़ा होकर और भारतीय विदेश सेवा का बड़ा अधिकारी बन विदेश जाने से पहले गांव जाकर देखता है, तो गांव बदला-बदला सा नजर आता है, अधिकतर कच्चे घर, पक्के घरों में बदल गए हैं। टीवी, बिजली, मोबाइल, लैंडलाइन घरों को गुलजार कर रहे हैं। भौतिक स्रोतों ने प्राकृतिक स्रोतों को सुखा दिया है। मन के स्रोतों का पता नहीं। इतना ही नहीं, ‘बड़ी काकी’ का सहज-सरल स्वभाव उसे आज भी याद है, क्योंकि काकी बाबा की छोटी-छोटी क्षुद्रताओं में नहीं उलझती थीं।

इसी तरह से ‘डोन्ट स्विच ऑफ द मून’ दादी और पोती के क्रमिक संबंध और ममत्व तथा रोजगार की वजह से विदेश में बस गए बेटे-बहू की अलग दुनिया के अनगिनत जीवंत शब्द-चित्रों से भरी हुई कहानी है। जहां समाज के उथल-पुथल और पिछड़ी जातियों के उभार तथा ऑनर किलिंग की सामाजिक व्यथा पर आधारित यह कहानी है, वहीं ‘मोह के भंवर’ संस्कारहीन होते और समाज एवं राजनीति के अपराधीकरण की आग में झुलसती संतानों की कहानी है।

निस्संदेह यह तो कहा ही जा सकता है कि ग्रामीण तथा पारिवारिक जनजीवन पर लेखिका की अच्छी पकड़ है। इससे कहानियां सहज ही यथार्थवादी स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं। आंचलिक शब्दों का प्रयोग कहानियों को सहजता तथा गति प्रदान करता है। कहा जा सकता है कि आंचलिकता उनकी ताकत है, जिसे वह खूबसूरती से इस्तेमाल करती हैं। कहानियों का संगठन चुस्त-दुरुस्त है तथा कहीं भी बिखराव नहीं है। कहानियां पाठकों को बांधे रखती हैं। इनमें कथानक और भावनाओं पर पकड़ इतनी मजबूत है कि कहानी कहीं भी उबाऊ नहीं होती और अंत तक पाठक की उत्सुकता बनी रहती है।

उत्तरवाहिनी

मीना झा

प्रकाशक | अंतिका 

पृष्ठः 120 | मूल्यः 250 रुपये

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