Advertisement

आर्थिक नीतियों की हकीकत

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा

एस.के. सिंह

सरकार आर्थिक नीतियां किसके लिए बनाती है? कहने को तो इसमें समाज के हर वर्ग को शामिल किया जाता है, लेकिन क्या सचमुच इन नीतियों का लाभ हर वर्ग को मिलता है? जाने-माने अर्थशास्‍त्री ज्यां द्रेज की यह किताब इन्हीं सवालों के जवाब देती है। 2001 में सरकार के गोदामों में काफी अनाज इकट्ठा था, दूसरी तरफ लोग भुखमरी के शिकार थे। स्थिति आज भी नहीं बदली है। सरकार के पास बफर स्टॉक से ज्यादा अनाज है, और लोग आज भी भूखे सोने के लिए मजबूर हैं। खाद्य सब्सिडी का मकसद गरीबों तक भोजन की पहुंच आसान बनाना है, लेकिन हुआ इसके उलट है। द्रेज लिखते हैं कि एफसीआइ का संचालन खाद्यान्न की कीमत कम करने के लिए नहीं, बल्कि ऊंचा बनाए रखने के लिए हो रहा है। गरीबी रेखा से नीचे के प्रत्येक परिवार के हिसाब से एक टन अनाज एफसीआइ के गोदामों में जमा है। बहुत से गरीब परिवार राशन दुकान की अपेक्षा बाजार से अनाज खरीदना बेहतर समझते हैं क्योंकि राशन दुकान में मिलने वाले अनाज की क्वालिटी खराब होती है। एफसीआइ की इस ‘जमाखोरी’ के कारण उन्हें ऊंची कीमत पर अनाज खरीदना पड़ता है।

लेखक ने गरीबी रेखा की पहचान, मनरेगा में काम करने वाले और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के मानकों पर सवाल उठाए हैं। उनका मानना है कि बीपीएल श्रेणी के लोगों को लक्षित करने वाला तरीका पूरी तरह छोड़ दिया जाना चाहिए। इसकी वजह व्यावहारिक है। शहरी इलाकों के लिए निर्धारित गरीबी रेखा का जो बजट तय किया गया है वह प्रति दिन प्रति व्यक्ति 32 रुपये है। सच्चाई यह है कि रोजाना 32 रुपये में जीना कहीं से भी मुमकिन नहीं। आज मिड डे मील की काफी सराहना की जाती है लेकिन इसे अमल में लाने में काफी मुश्किलें पेश आईं। प्राथमिक स्कूलों के बच्चों को भोजन देने के लिए 1995 में नेशनल प्रोग्राम फॉर न्यूट्रिशनल सपोर्ट टू प्राइमरी एजुकेशन (एनपीएनएसपीई) योजना बनी थी, फिर भी सुप्रीम कोर्ट को 2001 में यह निर्देश देना पड़ा कि सभी सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों में दोपहर में पका हुआ भोजन दिया जाए। अब भी स्कीम के अमल में गड़बड़ियों की शिकायतें अक्सर आती रहती हैं। यही स्थिति स्वास्थ्य सेवाओं की है। जीडीपी की तुलना में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च के मामले में भारत दशकों से निचली पंक्ति के देशों में है। निजी क्षेत्र में नियमन का कोई कारगर ढांचा न होने से मरीज के शोषण की आशंका बनी रहती है। मरीज अक्सर शोषण के शिकार भी होते हैं।

द्रेज ने स्कूलों की बदहाली की बात भी कही है। आज भी अनेक गांवों में स्कूल के नाम पर कोई भवन नहीं है। यह भी देखा गया कि स्कूल की इमारत का इस्तेमाल भंडार घर, पुलिस कैंप, सार्वजनिक शौचालय आदि के लिए हो रहा है। इन सबसे अलग वह भारत भी है जहां रेल मंत्री यह कहते हैं कि बुलेट ट्रेन जल्दी से जल्दी चले, यह हर हिंदुस्तानी की चाहत है। क्या रेल मंत्री यह नहीं जानते कि रेलगाड़ियों का देर से चलना ही आज रेलवे की सबसे बड़ी समस्या है। रेल से सफर करने वालों में बड़ी तादाद उन लोगों की भी है जो आज भी बिना आरक्षण वाले डिब्बों में सफर करते हैं। उनके लिए बुलेट ट्रेन के क्या मायने हो सकते हैं, इसे आसानी से समझा जा सकता है। किताब के अंत में नोटबंदी का जिक्र करते हुए यह सही कहा गया है कि यह गैरकानूनी आमदनी को रोकने में बिलकुल भी कामयाब नहीं हुई। दरअसल, कमजोर वर्ग कभी आर्थिक नीतियों के केंद्र में नहीं होता। उसके नाम पर घोषणाएं तो बहुत होती हैं लेकिन अंततः इन घोषणाओं और योजनाओं का लाभ किसी और को मिलता है। यही तो है झोलावाला अर्थशास्‍त्र!

झोलावाला अर्थशास्त्र

ज्यां द्रेज

अनुवाद | चन्दन श्रीवास्तव

प्रकाशक | वाणी प्रकाशन

पृष्ठः 376 | मूल्यः 375 रुपये

------------------------------------------

स्‍त्री जीवन की कविताएं

वह हंसती बहुत है

स्वरांगी साने

प्रकाशक | श्री सर्वोत्तम प्रकाशन

पृष्ठः 144 | मूल्यः 100 रुपये

काव्य जगत में स्वरांगी साने का नाम अपेक्षाकृत नया है, लेकिन उनकी कविताएं मन को काफी उद्वेलित करती हैं। इस काव्य संग्रह की ज्यादातर रचनाएं नारी मन की व्यथा को व्यक्त करने वाली हैं। कभी प्रतीकों में, तो कभी खुल कर। वह लिखती हैं, दीदी को ‘प्याज काटना’ इसलिए पसंद था, क्योंकि इस बहाने वह अपने आंसू छिपा लेती थीं। बचपन से लड़कियों के हाथों पर इसलिए मेहंदी लगाई जाती है कि वह कभी अपने हाथों की लकीरें न देख सकें। तीन खंडों में रची इन कविताओं में नारी का सबसे बड़ा दर्द छलकता है- कोई घर उसका अपना नहीं होता (किरायेदार), बस मां के घर से ससुराल तक ही होती है उसकी दुनिया (सार), तीमारदारी करने के लिए ही बनी है वह। नारी होने का क्या मतलब है, इसे उन्होंने अहिल्या कविता में बताया है – ‘या तो उसे पतिव्रता होना है या पत्थर।’ एक अन्य कविता में वह लिखती हैं- ‘हार मान लेने का रोग, उसे तभी लग गया था, जब उससे कहा गया था, तुम लड़की हो।’ इन सबके बावजूद उसे जीना है। सिर्फ जीना नहीं, अपना दुख-दर्द भूल कर जीना है। लेकिन क्या वह सचमुच भूल पाती है? ‘वह ठीक-ठीक जवाब नहीं दे पाती, लगता है सच कह दे’ (हंसी)। महिलाएं पूरी तरह सुरक्षित कहीं नहीं, न घर में न बाहर। इसी ओर इंगित करती हुई यह पंक्ति है- ‘वह खुलकर जीना चाहती है, लेकिन खतरे को देखकर वह कछुए की तरह खोल में सिमट जाती है।’ बहरहाल, नारी व्यथा को शब्द देने वाली रचनाकार को कविता से प्रेम है, इसीलिए तो कहती हैं कि ‘कविता में जाना, मेरे लिए पीहर जाने जैसा है।’

आउटलुक डेस्क 

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement