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पुत्र के संपादन में भवानी भाई

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा

प्रख्यात कवि भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 29 मार्च 1913 में होशंगाबाद जिले के नर्मदा तट पर स्थित ग्राम टिगरिया में हुआ था। भवानी प्रसाद मिश्र संचयन में देश के वर्तमान परिदृष्य में उनके संपादकीय, भाषण, व्याख्यान, साक्षात्कार, पुस्तकों की भूमिका, स्मृति लेख, आत्म प्रसंग और कविताएं समकालीन हो उठी हैं। इनमें कई-कई मार्ग भी खुलते दिखते हैं, जिनकी तरफ हमने अभी तक ध्यान नहीं दिया था।

भवानी भाई को गांधी की कविता भी कहा जाता है। उनके पद्य और गद्य में महात्मा गांधी संबोधित करते मिलते हैं। भवानी भाई ने महिलाश्रम पत्रिका (वर्धा), कल्पना, गांधीमार्ग, भूदान यज्ञ और गगनांचल पत्रिकाओं का संपादन किया। महिलाश्रम पत्रिका (वर्धा) में ‘अपनी बात’ स्तंभ में भवानी भाई के संपादकीय उल्लेखनीय हैं। वे लिखते हैं, ‘‘चारों तरफ से साफ-साफ आवाजें आ रही हैं कि महात्मा गांधी महान हैं। उन्होंने देश को जगाया, कर्म-सचेष्ट किया और स्वतंत्रता भी उन्हीं की बदौलत हमने पाई, हम उनके कृतज्ञ हैं किंतु अब परिस्थितियां कुछ ऐसी बदल गई हैं कि वे हमारे नेता नहीं रह सकते।’’

भवानी भाई आगे कहते हैं कि जो लोग जैसा कह रहे हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि पंजाब की भयानक घटनाओं के बाद हिंदुस्तान के सारे मुसलमानों को पाकिस्तान खदेड़ देना चाहिए। ऐसी ही आवाजें आज स्वतंत्रता के सत्तर वर्षों बाद भी सुनाई दे रही हैं। इस अति महत्वपूर्ण संपादकीय में वे कहते हैं कि इन पढ़े-लिखे लोगों में जो आज गांधी से ऊब गए हैं, अधिकांश लोग परिस्थिति से परेशान होकर सूझ-बूझ खोकर ऐसा कह रहे हैं। 

सांप्रदायिक शक्तियों के विरोध में महात्मा गांधी आगे एक कठोर बात कहते हैं कि यदि आप इससे आगे बढ़कर, क्रोध में आकर संदेह के बल पर घृणा के वशीभूत होते हैं और स्वयं किसी को बेवफा कहकर तलवार के घाट उतार देना चाहते हैं तो आप मामूली गलती नहीं करते, आप राष्ट्र-द्रोह करते हैं। आप भी मौत की सजा के काबिल हैं। सारी सरकारों का यही कायदा है। इस समय हमारे देश पर छा रहे वैचारिक घटाटोप को छांटने के लिए महात्मा गांधी की यह टिप्पणी सर्वोपरि है। मानो गांधी जी देश की तरफ से सांप्रदायिक शक्तियों को चुनौती दे रहे हैं।

भवानी भाई अपने संपादकीय में लिखते हैं कि गांधी जी मानते थे, शंका बहादुरी का चिह्न नहीं है। वह बुद्धिमानी भी नहीं है। शंकाकुल मन बुद्धि खो देता है, उसे ‘जोगनी’ छा जाती है। गांधी कहते हैं, इसलिए क्रोध छोड़ों, शंका छोड़ो, गया-गुजरा छोड़ो, आगे बढ़ो।

भवानी प्रसाद मिश्र ने बहुत पहले ही चुनावी राजनीति के अमंगल को देख लिया था। वे अपने एक संपादकीय (भूदान 30 जनवरी 1974) में चुनाव की रीति-नीति पर प्रश्न उठाते हुए कहते हैं, ‘‘उत्तर प्रदेश के चुनावों का आगाज टिकट बांटने के ढंग से ही सत्तारूढ़ दल की ओर से जिस तरह व्यक्त हुआ है, वह अस्वच्छ है। जहां प्रतिनिधि ही अस्वच्छ पद्धति से चुने गए हैं, वहां आगे भी यही तर्कसंगत जान पड़ता है कि चीजें गति भी उसी पद्धति से पकड़ेंगी।”

भवानी प्रसाद मिश्र 1976 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा शिखर सम्मान समारोह में दिए गए अपने वक्तव्य में कहते हैं, “अब कवि या दार्शनिक या दूसरों के लिए व्याकुल आदमी की जगह बुद्धिजीवी नाम का एक प्राणी उभरा है जिसे विचारगोष्ठी, बहस या जमाकर बात कर लेने भर में सार्थकता का अनुभव होता है। दूसरे भी उससे इतनी ही अपेक्षा करते हैं। वह किसी समाज के लिए उपयोगी किसी काम में सीधा पड़कर कोई भी जोखिम उठाएगा न वह ऐसा मानता है न दूसरों को मानने की उसने गुंजाइश छोड़ी है।” इसी तरह के विचार को आगे बढ़ाते हुए वे दिनकर स्मृति ग्रंथ की भूमिका में कहते हैं, “मुख्य बात यही है कि आप जो सोचते हैं या कहते हैं और करते हैं, उसका कोई मूल्य चुकाने को तैयार हैं या नहीं।” इसी आलेख में भवानी भाई कहते हैं, “जो किसी तयशुदा विचार से बद्ध हैं, वह विचार करने से बचता है, लीक को संभालता है। लीक को संभालने वाला या तो किसी संप्रदाय का बन जाता है या शक्तिशाली हो तो अपना संप्रदाय बना डालता है।”

यह पुस्तक चार भागों में विभाजित है। एक भाग में पत्रिकाओं के संपादकीय, भाषण, व्याख्यान, साक्षात्कार, पुस्तकों की भूमिकाएं/समीक्षाएं, स्मृति लेख, आत्मप्रसंग और आलेख है। दूसरे में कविताएं। तीसरे में बच्चों की कविताएं, अनूदित कविताएं, आकाशवाणी के लिए रचित/ प्रसारित कविताएं हैं जबकि चौथे भाग में अप्रकाशित कविताएं हैं।

आदेश है कि यह तुम्हारा देश है, तख्तोताज कबाड़ी बाजार में बिकते हैं और चार कौव्वे उर्फ चार हव्वे कविता पढ़ते हुए लगता है कि सत्तर के दशक में जनता द्वारा उड़ाए गए कौव्वे आज फिर संसद भवन पर आकर बैठ गए हैं। आजकल देश के नेतृत्व से स्वयं के स्तुतिगान सुनकर निरापद कोई नहीं है कविता का सहज स्मरण हो जाना भी आश्चर्य नहीं है। भवानी प्रसाद मिश्र की दस पृष्ठों में फैली कविता आशागीत देश की आशा-निराशा में डूबे मानस का एक शोकगीत है। 20 अप्रैल 1943 को जेल में लिखी कविता आशागीत आज हमें स्वतंत्रता के सत्तर वर्षों बाद भी अपनी आत्मा की पुकार लग रही है तो क्या इस देश की मानस-आत्मा अभी भी किसी मुक्ति की आशा में है?

भवानी प्रसाद मिश्र संचयन का संपादन उनके सबसे बड़े पुत्र और शास्‍त्रीय गायक अमिताभ मिश्र ने किया है। अमिताभ मिश्र की इकतालीस पृष्ठों की भूमिका हमें द्रवित कर जाती है। इसमें अमिताभ ने अपनी प्रेममय ऊर्जा उड़ेल दी है। एक कवि को समीक्षक के रूप में देखने के अलावा एक पुत्र-दृष्टि भी होती है जिसने कविता को जन्म लेते और बड़ा होते देखा होता है। इसे पढ़ते हुए अमृत राय की पुस्तक कलम का सिपाही स्मरण हो उठती है जिसमें प्रेमचंद का विराट कद दिखता है।

 

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भवानी प्रसाद मिश्र संचयन

अमिताभ मिश्र

प्रकाशक | भारतीय ज्ञानपीठ

मूल्यः 850 रुपये | पृष्ठः 488

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