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हमारे समय की विडंबना

पुस्तक समीक्षा
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आधी रात के करीब एक फोन आया है- बरसों पुरानी प्रेमिका का- जो बताती है कि उसका पति पिछली सुबह से घर नहीं लौटा है। पत्नी पीछे खड़ी यह बातचीत सुन रही है। चंदन पांडेय का उपन्यास वैधानिक गल्प लेकिन किसी प्रेम-त्रिकोण की कथा नहीं है। पति में हिचक है, पत्नी कहती है, उसे मदद के लिए जाना चाहिए। इसी के साथ कहानी गुड़गांव के मध्यवर्गीय घर से बिहार-यूपी की सरहद पर बसे देवरिया जिले के एक कस्बे में पहुंच जाती है।

इसके आगे-पीछे यादों का पूरा सिलसिला है। बरसों तक प्रेम के बाद छोड़ दी गई बागी लड़की है, उसके साथ गुजारे हुए दिन हैं और यह खयाल भी कि पूरे शहर में जब मदद के सारे साधन चुक गए होंगे तब उसने बरसों पुरानी किसी पत्रिका में छपा उसका फोन नंबर निकाल कर उसे आवाज देने की हिम्मत जुटाई होगी।

बाकी बातें बाद में मालूम होती हैं। अनसूया यानी उस छूटी हुई प्रेमिका के पति का नाम रफीक है। इस अंतरधार्मिक विवाह की वजह से अपने परिवारवालों के कोप से बचने के लिए ही अनसूया और रफीक देवरिया के सलेमपुर के नोमा नाम के इस नामालूम-से कस्बे में आ बसे हैं। रफीक एक स्थानीय कॉलेज में एडहॉक के तौर पर पढ़ाता है, उसने एक छोटी-सी रंगमंडली भी बनाई है, जो दुनिया भर का साहित्य पढ़ती और नाटक करती है।

शायद असली कसूर यही है-अपने भीतर के मनुष्य को न मरने देने की जिद, अपने समाज में बदलाव की चाहत, अपने रंगकर्म के जरिए ऐसा प्रतिरोध, जिससे लोग आहत होते हों और अंततः अपनी मौजूदगी भर से ऐसी कुछ स्थापनाओं का खंडन, जो लोग थोपने में लगे हैं। और यह काम कहां हो रहा है? बिहार-यूपी की सरहद के एक कस्बे में, जहां पुलिस की मदद से तस्करी होती है, जहां एक क्रूर और अमानवीय व्यवस्था हर वक्त किसी को जबड़ों में लेने को तैयार रहती है और जहां दिल्ली में थोड़ा-बहुत दिखने वाली संवैधानिक व्यवस्थाएं खुद को असहाय पाती हैं।

लेकिन चंदन पांडेय ने यह कहानी इतने स्थूल शब्दों में नहीं लिखी है। मितकथन और सूक्ष्म-संप्रेषण पर जैसे उनका अगाध विश्वास है। वे संकेत छोड़ते चलते हैं- निस्संदेह इतने ठोस संकेत- कि कथा कहीं उलझती हुई न लगे। शुरू में एक रहस्यमय कथा की तरह खुलता यह वैधानिक गल्प धीरे-धीरे हमारे भीतर थोड़ी दहशत और दुविधा पैदा करने लगता है। कथावाचक अर्जुन कुमार के साथ हम एक ऐसी दुनिया में दा‌‌खिल होते हैं जहां हमारे समय की राजनैतिक और सामाजिक विडंबनाएं बिलकुल नग्न रूप में मौजूद हैं। यहां मॉब लिंचिंग, चरित्र हनन, झूठे मुकदमे, पुलिसिया बदसलूकी, बेशर्म नेतागीरी, बेखौफ मुखबिरी सबकुछ जैसे बेधड़क जारी है।

इन सबके विरुद्ध प्रतिरोध का साहस जिनमें बचा है, वे गायब हो रहे हैं। पुलिस उनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखने को तैयार नहीं है, बल्कि एक वीडियो क्लिप के सहारे वह इसे 'लव जेहाद' का मामला साबित कर रही है और बता रही है कि रफीक नाम का यह शख्स एक हिंदू लड़की को लेकर भागा है। गुड़गांव से आए अर्जुन कुमार के बारे में भी यह चर्चा उड़ाई जाती है कि वह अपनी ‘एक्स’ से मिलने आया है। अर्जुन कुमार इस खूंखार दुनिया में सुरक्षित है तो बस इसलिए कि जिस प्रकाशन समूह में वह काम करता है, उसके मालिक या संपादक की पहुंच इस इलाके के बड़े लोगों तक है। इसलिए अचानक एक लेखक के तौर पर वह सम्मानित भी किया जाने लगता है। यह अश्लील-सा सम्मान समारोह एक बहुत मार्मिक कथा की विडंबना को कुछ वेधक ही बनाता है।

निस्संदेह, इस कथा में चंदन पांडेय ने अपनी सूक्ष्म-संवेदनशील दृष्टि से कई उपकथाएं भी जोड़ दी हैं। मसलन, पति-पत्नी अर्चना और अर्जुन के दांपत्य की कोमल-सी कहानी, अनसूया और अर्जुन के बीच ठिठके हुए रिश्ते की कहानी, रफीक की डायरी के सूखते पन्नों के बीच उकेरी जाती एक संवेदनशील कहानी। ऐसी कहानियां और भी हैं।

जिन लोगों को हिंदी उपन्यास अपठनीय लगते हैं उन्हें चंदन पांडेय का यह उपन्यास पढ़ना चाहिए-एक बहुत गंभीर और तरल उपन्यास, जो आपको लगातार अपने प्रवाह में बांधे रखता है और अंततः आपको बेचैन छोड़ जाता है। घनघोर सांप्रदायिकता से लिथड़ी सपाट राजनीति जो अपसंस्कृति पैदा करती है, उसका यहां मर्मभेदी चित्रण है। बेशक, उपन्यास में कुछ किंतु-परंतु वाले प्रश्न हैं, लेकिन पाठ के सुख में उन्हें अनदेखा करने की इच्छा होती है।

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गौरव के शानदार 75 वर्ष

मनोज मोहन

उर्दू में छप रही आजकल की लोकप्रियता के दबाव में मई, 1945 में हिंदी आजकल का प्रवेशांक आया था। तब के संपादक का उद्देश्य, भारत के निकट पड़ोसियों का वास्तविक चित्रण करना और युद्धोत्तरकालीन संसार के निर्माण के लिए प्रोत्साहन देना था। आजकल के स्वर्ण जयंती वर्ष में पंकज बिष्ट ने माना था कि यह पत्रिका हिंदी के प्रसिद्ध और प्रतिनिधि लेखकों और कवियों की प्रतिनिधि हो चली है। वर्तमान संपादक राकेश रेणु पुराने गौरव को नए शिखर की ओर ले जाने को प्रतिबद्ध दिखते हैं। वे प्रसंगवश में कहते भी हैं, “आजकल हिंदी के श्रेष्ठ साहित्य को अपने पाठकों तक ले जाने, उनकी खूबियों-खामियों को विश्लेषित कर, उन्हें सहेजने के दायित्व का निर्वहन करती रहेगी।” अमृत जयंती विशेषांक में हिंदी के वरिष्ठ और युवा रचनाकारों की रचनाओं को बराबर तरजीह दी गई है। सैंतीस कवियों की कविताएं अंक को शानदार बनाती हैं। इसमें सौमित्र मोहन जैसे वरिष्ठ कवि हैं, तो अदनान कफील ‘दरवेश’ जैसे युवा भी। आजादी के बाद के गद्य साहित्य पर भी एक परिचर्चा है। साथ ही आजादी के बाद विविध विधाओं में लिखे जा रहे साहित्य पर सर्वेक्षणात्मक आलेख लिखवाए गए हैं, जिन्हें विशिष्ट साहित्यकारों ने लिखा है। इनमें मैनेजर पांडेय, गंगा प्रसाद विमल के आलेख बेहद महत्वपूर्ण हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी, निर्मला जैन, ममता कालिया और पंकज बिष्ट के साक्षात्कार इस अंक की शोभा को और बढ़ाते हैं।

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