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भाजपा: ताकि कमान ढीली न पड़े

तमाम मोर्चों पर फंसा भाजपा नेतृत्व मुख्यमंत्रियों को बदलकर संतुलन साधने की कोशिश में
गुजरात के नए मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल अमित शाह और अन्य मुख्यमंत्रियों के साथ

जब संकट छाए और उससे निपटना आसान न हो तो उसे दूसरों के मत्‍थे थोपकर राह आसान बनाने के उपाय पुराने हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पिछले साढ़े चार महीने में अपने शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को बदलने और अपनी पकड़ दुरुस्त करने की प्रक्रिया शुरू की तो राजनैतिक हलकों में इसे इसी रूप में देखा गया। ताजा घटनाक्रम गुजरात का है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की भाजपा आलाकमान जोड़ी के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। गुजरात में किसी तरह का जोखिम उठाना शायद उनकी सत्ता के लिए खतरनाक हो सकता है, जहां चुनाव अगले साल के आखिरी महीनों में तय हैं। उसके पहले 2022 के शुरुआती महीनों में उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के चुनाव होने हैं, जहां 85 संसदीय सीटें ही उनकी अहमियत साबित कर देती है। सो, उत्तराखंड में अप्रैल-मई महीनों में तीन मुख्यमंत्री बदल दिए गए। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री यकीनन सियासी वजहों से नहीं बदला जा सका मगर सत्ता समीकरण साधने की कई कोशिशें पिछले महीनों में हुईं। मुख्यमंत्री कर्नाटक में भी बदला गया, जहां चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं। फिर, राजस्‍थान में भी कद्दावर नेता, पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ पार्टी में हवाएं नए सिरे से बहने लगी हैं। मध्य प्रदेश में भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ पार्टी में असंतोष के बगूले फिलहाल शांत हैं तो सूत्रों के मुताबिक, ऐसा उनकी लोकप्रियता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बूते है। जाहिर है, इस कोर्स करेक्‍शन की प्रक्रिया के सियासी मायने हर राज्य में अलग हो सकते हैं मगर इसके सियासी संकेतों और संकट को समझना अगले सियासी रुझानों के लिए अहम है।

संकट समझना कोई मुश्किल नहीं है। कोविड-19 की दूसरी लहर की भारी तबाही, लगातार ढहती अर्थव्यवस्‍था, ‌किसान आंदोलन, बेपनाह होती बेरोजगारी और महंगाई समूचे देश में मायूसी और भारी गुस्से का कारण बनती जा रही है। संयोग यह भी है कि खासकर कोरोना की तबाही अन्य राज्यों के साथ भाजपा शासित राज्यों में कुछ ज्यादा ही मारक असर छोड़ गई है। यह भी कोई अबूझ पहेली नहीं है कि चाहे ऑक्सीजन और दवाइयों की किल्लत हो, या महंगाई, बेरोजगारी और खस्ताहाल अर्थव्यवस्‍था, सभी केंद्र के ही खाते के मसले हैं। ऐसे में केंद्र की सत्ता की मजबूती के लिए केंद्र में अरसे बाद मंत्रिमंडल विस्तार के जरिए पिछड़ी और दलित जातियों को संतुष्ट करने के लिए कई मंत्री बनाए गए और उसे प्रचारित भी किया जा रहा है, जिन पर निश्चित रूप से सबसे ज्यादा मार पड़ी है। उसके अलावा मुख्यमंत्रियों को बदलकर भी शायद नई फिजा पैदा करने की कोशिश की गई। इसका एक मकसद पार्टी में उठ रही या उठ सकने वाली असंतोष की आवाजों को भी साधने की कोशिश और बागडोर पर आलाकमान की पकड़ मुकम्मल करना हो सकता है। आइए देखें राज्यों में क्या चुनौतियां पेश आ रही हैं।

ताजा घटनाक्रम गुजरात का है इसलिए पहले उस पर नजर। यह गौरतलब है कि इसी सितंबर में नरेंद्र मोदी की सत्ता की नाबाद पारी के 20 साल पूरे हो रहे हैं। पहले बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री और अब देश के प्रधानमंत्री के रूप में। गुजरात का इतिहास देखें तो आजादी के बाद से ही हर बीस साल में सत्ता की स्थिरता डगमगाने लगी है। खासकर 1971 से 2001 का दौर तो ऐसा रहा है कि उस दौरान 19 मुख्यमंत्री आए-गए। मतलब यह कि किसी मुख्यमंत्री को औसतन ढाई-तीन साल से अधिक राज करने का मौका नहीं मिला। यह सिलसिला नरेंद्र मोदी के आने से टूटा। लेकिन यह भी सही है कि गुजरात जैसे बहुल जातियों और संप्रदायों वाले राज्य में पटेल या पाटीदार समुदाय ने हमेशा स्थिरता-अस्थिरता में अहम भूमिका निभाई है, जिसकी आबादी तकरीबन 20 फीसद बताई जाती है। 2018 में पाटीदारों की नाराजगी के साथ पिछड़ी जातियों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों का गठजोड़ कायम करके कांग्रेस 182 सदस्यीय विधानसभा में 80 सीटें जीतने में कामयाब हो गई और भाजपा की सत्ता 99 सीटों के सहारे बस बच भर गई। उसमें भी नरेंद्र मोदी को एड़ी-चोटी का जोर लगा देना पड़ा और आखिर में जाकर उन्होंने मनमोहन सिंह की पाकिस्तान राजदूत से कथित मुलाकत का हौवा उठाकर यह संकेत दिया कि किसी अहमद को मुख्यमंत्री बनाने की साजिश चल रही है। 2001 से ही कभी मौलाना मुशर्रफ तो कभी अहमद का चुनावी हौवा उठाया जाता रहा है। अहमद से संकेत कांग्रेस नेता अहमद पटेल से था, लेकिन कोरोना के दौर में उनका भी इंतकाल हो गया।

यही नहीं, पिछड़ी क्षत्रीय जाति के उभरे युवा नेता अल्पेश ठाकोर को भले भाजपा अपने पाले में लाने में कामयाब रही है, लेकिन 2017 में पाटीदार आरक्षण आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल अब कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष हैं और युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी भी उनके साथ हैं, जिनकी दलितों में पैठ अच्छी है। यह भी गौरतलब है कि हाल में सूरत और राजकोट के नगर निकाय चुनावों में नई-नई पहुंची आम आदमी पार्टी को तकरीब 25 फीसदी वोट मिल गए। यही वह इलाका है, जहां पाटीदार समाज की बहुलता है। पाटीदार समुदाय लव और कड़वा पटेलों में बंटा है और कड़वा पटेलों की आबादी कुल पाटीदारों में दो-तिहाई बताई जाती है। इसी गणित से शायद पहली बार के विधायक भूपेंद्र पटेल को विजय रूपाणी की जगह मुख्यमंत्री बनाया गया। भूपेंद्र पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के करीबी और कड़वा पटेल हैं। हालांकि यहां एक पेंच और है। पटेल बिरादरी के वरिष्ठ मंत्री नितिन पटेल, पुरुषोत्तम रूपाला जैसे कई वरिष्ठ नेताओं को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। शायद यह दिखाने की कोशिश हो सकती है कि आलाकमान का आदेश सर्वोपरि है। मतलब यह कि जाति समीकरण साधने की कवायद के साथ यह संदेश भी देने की कोशिश हुई कि आलाकमान की पकड़ ढीली नहीं पड़ी है। इसके पहले विजय रूपाणी भी वरिष्ठ और रसूख वाले नेताओं के बदले बनाए गए थे, जबकि उनके जैन समुदाय के वोट काफी कम हैं।

कर्नाटक में येदियुरप्पा की जगह संघ से जुड़े व्यक्ति को कमान नहीं, बोम्मई को सीएम बना आलाकमान ने मध्यमार्ग को चुना

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गुजरात की राजनीति के एक जानकार इसकी वजह कुछ इस तरह बताते हैं। उनके मुताबिक, “आज देश में मोदी और शाह की ही नहीं, गुजरात काडर के अधिकारियों की ही सत्ता है। कॉरपोरेट जगत में गुजरात के लोगों का दबदबा बढ़ा है। ऐसे में यह संकेत बहुत भारी पड़ सकता है कि अपने गृह प्रदेश में ही जमीन कच्ची हो गई है। इसका फौरन असर बाकी प्रदेशों में पड़ सकता है।” सत्ता की डोर पक्की बताने का यह संदेश दूसरे प्रदेशों के घटनाक्रमों में साफ दिखा। कर्नाटक में बी.एस. येदियुरप्पा के खिलाफ खासकर संघ बिरादरी के भीतर अरसे से गुरेज पनपता भी रहा है और खुलकर हवाएं भी उठती रही हैं। भाजपा में बी.एल. संतोष के महत्वपूर्ण होने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में होसबोले का कद बढ़ने से यह प्रक्रिया तेज हुई। ये दोनों ही मोदी-शाह जोड़ी के करीबी बताए जाते हैं। लेकिन येदियुरप्पा के बदले संघ से जुड़े किसी नेता को कमान नहीं सौंपी जा सकी। नए मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई न सिर्फ येदियुरप्पा के करीबी हैं, बल्कि लिंगायत हैं। लिंगायतों के साथ आने से ही राज्य में भाजपा मजबूत हुई है। बोम्मई पूर्व मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई के बेटे हैं और 2008 में ही भाजपा में शामिल हुए हैं। उनका रुझान भी समाजवादी किस्म का है। मतलब यह कि यहां भी आलाकमान की कमान सर्वमान्य बताने की कोशिश हुई।

हालांकि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर तमाम तरह की अटकलों के बावजूद कोई फेरबदल नहीं हुआ। पिछले महीने दिल्ली और लखनऊ में भाजपा और संघ परिवार के नेताओं की बैठकें होती रहीं। मुख्यमंत्री भी कई बार दिल्ली बुलाए गए। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से भी मिले। यह भी अटकल थी कि प्रधानमंत्री के नजदीकी गुजरात काडर के अफसरशाह अरविंद शर्मा को कोई जिम्मेदारी दी जाएगी, जो सेवानिवृत्ति लेकर लखनऊ पहुंचे थे। लेकिन उन्हें पार्टी उपाध्यक्ष ही बनाया गया।

जाहिर है, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता और जाति समीकरणों का ख्याल रखा गया। फिलहाल ऊंची जातियों में उनका रसूख बताया जाता है। ऊंची जातियों में ब्राह्मण भले ही नाराज बताए जाते हैं मगर पिछड़ी जातियों की ओर कोई भी फैसला उन्हें और नाराज कर सकता है। वहां उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य बड़े दावेदार बताए जाते हैं। शायद इसी वजह से जाति आधारित जनगणना पर भी केंद्र सरकार कोई फैसला नहीं ले रही है, जबकि विपक्षी दलों के अलावा भाजपा के पिछड़े नेता भी खुलकर इसके पक्ष में बोल चुके हैं।

उत्तराखंड में शायद भाजपा ऐसे किसी नेता को कमान देना पसंद नहीं करती, जिसका संघ परिवार से जुड़ाव न हो। हालांकि वहां उसे सत्ता विजय बहुगुणा जैसे कई कांग्रेस नेताओं के टूटकर जाने से मिली थी। इसलिए कोरोना की दूसरी लहर और हरिद्वार में कुंभ मेले के मामले में अप्रैल में पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर तीरथ सिंह रावत और फिर जून में पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया। ये सभी संघ में लंबे समय से सक्रिय रहे हैं और राजपूत हैं, जिनकी आबादी राज्य में सबसे ज्यादा है। लेकिन कोरोना के दौर में भारी तबाही, भूस्‍खलन और अन्य समस्याओं के साथ तराई के जिलों और हरिद्वार में नाराजगी भी भारी बताई जाती है। इसलिए चुनौतियां कम नहीं हुई हैं। वैसे मुख्यमंत्री धामी को काफी उम्मीद है (देखें इंटरव्यू)। इसका उलट उदाहरण असम में दिखा, जहां इस साल हुए चुनावों में कांग्रेस से 2016 में आए हेमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा।

गौरतलब यह भी है कि मुख्यमंत्रियों के अलावा वसुंधरा राजे जैसे क्षत्रपों पर भी भाजपा की नजर हैं (देखें साथ की राजस्‍थान स्टोरी)। वसुंधरा से भाजपा आलाकमान का छत्तीस का आंकड़ा होना कोई छुपी हुई बात नहीं है। शायद गुरेज यह भी हो सकता है कि कांग्रेस में मुख्यमंत्री गहलोत से सचिन पायलट की खींचतान के दौरान वसुंधरा खेमा के साथ न देने से बात नहीं बन पाई। जो भी हो, चुनौतियां बेहिसाब हैं और भाजपा नेतृत्व इससे कैसे निपटता है, यह देखना दिलचस्प होगा। इसमें ज्यादा वक्त भी नहीं है क्योंकि 2022 के बाद लगातार उन राज्यों में चुनाव होने हैं, जो भाजपा की सत्ता के लिए अहम हैं।

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