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मध्य प्रदेश: भाजपा को हार का डर

नगरीय निकायों का कार्यकाल अप्रैल 2020 में ही खत्म, शिवराज के सामने 2015 के नतीजे दोहराने की चुनौती
अपने पक्ष में हवा देखने के बाद ही शिवराज निकाय चुनाव करवाएंगे

मध्य प्रदेश में नगरीय निकायों का कार्यकाल खत्म हुए दस महीने से ज्यादा बीत चुके हैं, लेकिन अगले चुनाव की तारीखों की घोषणा अभी तक नहीं हुई है। कोरोना संकट को आधार बनाकर ये चुनाव टाले जा रहे हैं। दिसंबर में भी तारीखों का ऐलान होने ही वाला था, कि कोरोना संकट का हवाला देकर राज्य निर्वाचन आयोग ने इसे टाल दिया। प्रदेश के नगरीय निकायों का कार्यकाल अप्रैल 2020 में खत्म हो चुका है।

कांग्रेस का कहना है कि सत्तारूढ़ भाजपा जानबूझ कर चुनाव टाल रही है। जिस तरह से केन्द्र सरकार के खिलाफ जनता में नाराजगी भरी हुई है, उससे शिवराज सरकार डरी हुई है। उसे लग रहा है कि केन्द्र की नाराजगी चुनावों में उसके खिलाफ जा सकती है। नाराजगी कई कारणों से है। किसान आंदोलन का असर राज्य के कई क्षेत्रों में दिख रहा है। डीजल, पेट्रोल और रसोई गैस के लगातार बढ़ते दाम और बेरोजगारी से जनता परेशान हो चुकी है। इसलिए भाजपा को हार का डर है।

मध्य प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सज्जन वर्मा सीधे आरोप लगाते हैं कि भाजपा सरकार चुनाव से भाग रही है। वे कहते हैं, “सरकार चुनाव की तारीखें घोषित नहीं कर रही है, क्योंकि वह जानती है कि डीजल, पेट्रोल, गैस के दाम इतने बढ़ गए हैं कि जनता इनको वोट नहीं करेगी। बीजेपी समझ रही है कि अगर अभी चुनाव कराए गए तो सभी नगर निगम सीटें हार जाएगी।”

भाजपा इस तरह के आरोपों को खारिज करती है। पार्टी प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल कहते हैं, “कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए स्वयं चुनाव टाला और अब आरोप हम पर लगा रही है। इन्होंने ही मेयर का चुनाव परोक्ष रूप से कराने के लिए संशोधन किया था। इसका सीधा अर्थ यह है कि वे लोग सीधे चुनाव से बचना चाह रहे थे।” अग्रवाल के अनुसार भाजपा चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार है। राज्य सरकार तो कोर्ट में भी कह चुकी है कि वह किसी भी समय चुनाव के लिए राजी है।

भाजपा ने निकाय चुनावों की तैयारियों के लिहाज से नवंबर-दिसंबर में मंडल स्तर के कार्यकर्ताओं की बैठकें की थीं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सभी निगमों का दौरा भी किया था। अब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा सभी नगर निगमों का दौरा कर रहे हैं। प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव भी कई स्तरों पर स्वयं बैठकें कर चुके हैं।

प्रदेश में पिछले नगरीय निकाय चुनाव 2015 में हुए थे, जिसमें भाजपा को बड़ी जीत मिली थी। प्रदेश के सभी 16 नगर निगमों पर उसका कब्जा था। ज्यादातर निगमों की नगर परिषदों में भी भाजपा का ही बहुमत था। उस समय शिवराज सिंह की लोकप्रियता चरम पर थी। 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, लेकिन पिछले साल उसे गिराकर भाजपा फिर सत्ता में आ गई।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि हार का डर भाजपा से ज्यादा शिवराज सिंह को सता रहा है। जिन परिस्थितियों में उनकी सत्ता वापसी हुई है, उसके चलते निकाय चुनावों में जीत का पिछला परिणाम दोहराना उनकी आवश्यकता है। उनको सत्ता में आए एक साल का समय हो गया है। इसका सीधा अर्थ है कि जनता उनके काम के आधार पर वोट देगी। ऐसे में यदि नतीजे पिछली बार की तुलना में खराब रहे तो यह बात उनके खिलाफ जाएगी। उनके विरोधियों को आवाज उठाने का मौका मिल जाएगा और वे ऐसा कोई मौका देना नहीं चाहते हैं।

यही कारण है कि पिछले साल विधानसभा उपचुनाव के परिणाम आने के बाद शिवराज नगरीय निकाय चुनावों को ध्यान में रखते हुए प्रदेश के सभी नगर निगमों का दौरा कर चुके हैं। सभी शहरों के तीन साल के विकास कार्यों की योजना बनवाकर उन पर अमल भी शुरू करवा चुके हैं। यह सब नगर निगम चुनावों को ध्यान में रखकर ही किया जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषक दिनेश गुप्ता कहते हैं, “मुख्यमंत्री के विरोधी अवसर की तलाश में हैं। इसलिए शिवराज के सामने नगरीय निकाय चुनावों में पिछले परिणाम को दोहराने की चुनौती है। वे चुनावों से पहले पार्टी के भीतर अपने खिलाफ असंतोष को खत्म कर देना चाहते हैं। विधानसभा अध्यक्ष के रूप में विन्ध्य से गिरीश गौतम की नियुक्ति उसी का परिणाम है।” सवाल है कि शिवराज कब तक अपनी पोजीशन मजबूत करेंगे और कब तक लोगों को निकाय चुनावों का इंतजार करना पड़ेगा।

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